नदी से, भाग 1

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तमाम दोपहर-
मैं तुम्हारे किनारे घूमता रहा
बिना यह जाने कि तुम कहां से आई हो
और किससे मिलने जा रही हो
तुम्हारी कितनी थाह है।
मुझे केवल वे लहरियाँ अच्छी लगती रहीं
जो तुममें उठती रहीं-
धूप में झिलमिलाती, खिलखिलातीं
मछलियों-सी कलाबाजियाँ खातीं, फिसलतीं।
लगातार यह कुतूहल मुझमें बना रहा
कि अंजुलि में भरते ही
वह लहराता रूप कहां चला जाता है।

तमाम दोपहर-
मैं तुम्हारी गुनगुनी रेत में बैठा रहा
जो एक परत हटाते ही ठंडी मिलती
जिसे तुम खिलखिला-खिलखिलाकर
एक-एक लहरियों से लाती बिछातीं, लाती बिछातीं...

तमाम दोपहर-
मैं उन सीपियों से खेलता रहा
जो तुम्हारी रेत में पड़ी थीं
रेत में लिखता रहा गहरा और गहरा
और देखता रहा कि कितनी सफाई से
आहिस्ता-आहिस्ता हर लिखा मिट जाता है।
अब शाम हो रही है
मैं अभी चला जाऊँगा
बिना यह जाने हुए कि तुम्हें भी पता है
कि कोई तुम्हारे किनारे घूमता रहा
रेत में बैठा रहा
सीपियों से खेलता रहा
अपना लिखा मिटता देखता रहा।

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