प्रकृति-संरक्षण पर वैदिक दृष्टिकोण
प्रकृति-संरक्षण पर वैदिक दृष्टिकोण

पर्यावरण-प्रबन्धन और प्रकृति-संरक्षण: एक वैदिक दृष्टिकोण

अथर्ववेद के ‘पृथ्वीसूक्त’ में पृथ्वी को माता और हमें इसके पुत्र कहा गया है। यह सूक्त प्रकृति और पर्यावरण के संरक्षण का आह्वान करता है और “वसुधैव कुटुम्बकम्” की भावना को दर्शाता है। रवीन्द्र कुमार जी का लेख हमारे आदिग्रन्थों में पर्यावरण संबंधी मान्यताओं को दर्शाता है।
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सौर मण्डल में जीवन से भरपूर सुन्दर गृह पृथ्वी की उत्पत्ति विज्ञान के अनुमानानुसार लगभग 4. 54 अरब वर्ष पूर्व हुई। पृथ्वी का कुल सतही क्षेत्रफल लगभग 510 मिलियन वर्ग किलोमीटर (196, 900, 000 वर्ग मील) है। इसकी सतह का 71 प्रतिशत भाग जल से और 29 प्रतिशत भाग भूमि से ढका हुआ है। इसके दोनों ध्रुव (उत्तरी एवं दक्षिणी) मोटी (घनी) बर्फ की परत से ढके हुए हैं। इन दो ध्रुवों के अतिरिक्त पृथ्वी छह महाद्वीपों –अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, उत्तरी व दक्षिणी अमरीका, एशिया तथा यूरोप में विभाजित है; इन सभी महाद्वीपों में 263 छोटे-बड़े देश हैं। पृथ्वी पर (विशाल जल-क्षेत्र को समेटते) प्रमुखतः पाँच –अटलान्टिक, अन्टार्कटिक, आर्कटिक, प्रशान्त और हिन्द महासागर हैं। भूमि-जल –महाद्वीपों-महासागरों में पृथ्वी का मूल (प्राकृतिक) विभाजन, वास्तव में, इस ग्रह की सम्पन्नता-समृद्धि, सुन्दरता, दीर्घकालिकता और व्यापक अथवा सर्वत्र उपादेयता का आधार है। इसकी मूल-प्राकृतिक स्थिति की निरन्तरता –संधारणीयता में विकास व सभ्यता के उत्थान के साथ ही जीवन-रक्षा व उसकी निरन्तरता की प्रत्याभूति है।

इस प्रत्याभूति के कारण विश्व के आदि ग्रन्थों –मूल सनातनधर्मी शास्त्रों में से अन्तिम, अथर्ववेद के बारहवें काण्ड में ‘पृथ्वीसूक्त’ प्रकट है और इस सूक्त में 63 मंत्र हैं। इन्हीं मंत्रों में से एक में कहा गया है कि पृथ्वी हमारी माता है और हम इसके पुत्र हैं; यथा,

"माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः/"

पृथ्वी की सभी दिशाएँ कल्याणकारी, समृद्धिकारक और सुखदायी हों, इस प्रकार की कामनाओं के साथ ही प्रकृति व पर्यावरण, जीव एवं जगत, चर-अचर के सम्बन्ध में अद्वितीय और सत्याधारित –वैज्ञानिक ज्ञान पृथ्वी सूक्त में विद्यमान है। वह अन्ततः "वसुधैव कुटुम्बकम्" उद्घोष के वास्तविकता के निष्कर्ष पर पहुँचकर साझे मानवीय प्रयासों –कर्मों द्वारा दृढ़निश्चय तथा उद्यम से पर्यावरण-सन्तुलन व (नदियों, पर्वतों, वनों, वनस्पतियों, वृक्षों, फसलों, औषधियों और समतल स्थान सहित) सम्पूर्ण प्रकृति संरक्षण का प्रत्येक जन (स्त्री व पुरुष) का धरती माता की सुरक्षा का, जिसके साथ हरेक के जीवन और अन्योनाश्रित सम्पूर्ण प्राणी-जगत का भविष्य भी जुड़ा है, उसके परम कर्त्तव्य के रूप में, आह्वान करता है।
व्यापक परिधि में, पर्यावरण-सन्तुलन एवं प्रकृति-संरक्षण पृथ्वी की सुरक्षा और स्वाभाविक रूप से इस ग्रह पर दीर्घकालिक व सुरक्षित जीवन से जुड़े दो सबसे  महत्त्वपूर्ण और प्रमुख पहलू हैं। केवल तीन विषयों –प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में विश्वभर में प्रकृति के मूल स्रोतों के साथ छेड़छाड़ (लाखों की संख्या में प्राकृतिक परिवर्तन, जिसमें लगभग दस लाख अति गम्भीर परिवर्तन हैं, और जिसके परिणामस्वरूप नदियाँ व प्राकृतिक जलस्रोत भी विलुप्त होते हैं, तथा जो स्वयं अस्तित्व की अनिवार्य शर्त अहिंसा का उल्लंघन भी है, इस संख्या में सम्मिलित हैं); प्राकृतिक संसाधनों का अन्यायपूर्ण व अनुचित दोहन, हर वर्ष लगभग पन्द्रह सौ करोड़ वृक्षों का कटान, और लगभग अस्सी अरब भू-पशुओं का (उन पशुओं सहित, जो स्वयं सीधे पर्यावरण-सन्तुलन एवं प्रकृति-संरक्षणार्थ अतिमहत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करते हैं) निर्ममतापूर्वक मारा जाना, वास्तव में, वातावरण को बुरी तरह बिगाड़ने  –वायु को प्रदूषित करने तथा तापमान को बढ़ाने जैसे दिन-प्रतिदिन बढ़ते खतरे के लिए उत्तरदायी हैं। निरन्तर बढ़ती जल-समस्या, पृथ्वी की उर्वरा शक्ति में कमी, खाद्य-उत्पादों के जन-स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से हानिकारक होने और नित-नूतन बीमारियों के सामने आने के पीछे भी ये ही, प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष, कारक हैं। ये लोगों के स्वास्थ्य को बुरी तरह प्रभावित करने तथा प्रतिवर्ष करोड़ों जन की मृत्यु का कारण हैं। ध्रुवों पर निरन्तर पिघलती बर्फ और ग्लेशियरों का टूटना, फलस्वरूप समुद्री जल में वृद्धि, मानसून की अत्यधिक अनिश्चितता, नदियों के सूखने का क्रम, परिणामस्वरूप सूखे की भयंकर समस्या, इस स्थिति को समझने के लिए पर्याप्त है। इस चेतावनी रूपी भयावह होती स्थिति के सम्बन्ध में मेरे द्वारा कुछ और अधिक कहे जाने की आवश्यकता नहीं है। 

पृथ्वी सुरक्षित रहे; पृथ्वी माता पर जीवन दीर्घकालिक और संधारणीय हो, इस दिशा में, विशेषकर पर्यावरण-सन्तुलन और प्राकृतिक-संरक्षण को केन्द्र में रखकर वैश्विक व राष्ट्रीय स्तर पर जो प्रयास हो रहें हैं, वे सभी हृदय से स्वागत किए जाने योग्य हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ की कार्य-योजनाओं के अन्तर्गत अन्तर्राष्ट्रीय व क्षेत्रीय संगठनों, तथा राष्ट्रीय के साथ ही स्वैच्छिक संस्थाओं के माध्यम से (जिनकी संख्या लाखों में है) होने वाले प्रयास (स्वयं विस्कॉन्सिन के सीनेटर जेराल्ड एंटोन नेल्सन की केन्द्रीय भूमिका के चलते इस हेतु वर्ष 1970 ईसवीं से प्रतिवर्ष 22वीं अप्रैल को विश्वभर में जन-जागृति के उद्देश्य से मनाए जाने वाले पृथ्वी दिवस सहित) श्रेयस्कर हैं। 

लेकिन, इसके बाद भी, विशेष रूप से राष्ट्रीय स्तर पर होने वाले प्रयास तब तक ईमानदारीपूर्ण नहीं हो सकते, जब तक पर्यावरण-सन्तुलन और प्राकृतिक-संरक्षण के मूल्य पर भी राष्ट्रीय हितों की वरीयता रहेगी। यही वरीयता, वास्तव में, इस पथ की सबसे बड़ी बाधा है, इस सम्बन्ध में सबसे घातक स्थिति है। राष्ट्रों को अपने-अपने स्तर से इस सम्बन्ध में सोचना होगा तदनुसार कार्य करना होगा। राष्ट्रीय स्तर पर विकास एवं (जीवन की निरन्तरता व दीर्घकालिकता सहित) पृथ्वी की सुरक्षा के मध्य एक प्रभावकारी तथा सुनिश्चित सन्तुलन अवस्था को केन्द्र में रखकर ही व्यवहार करना होगा। केवल ऐसा व्यवहार ही व्यक्तिगत स्तर पर प्रयासों का भी मार्ग प्रशस्त करेगा। 

हजारों वर्ष पूर्व, वेदों में से प्रथम, ऋग्वेद, के मंत्रों की कल्याणकारी कामना और इस हेतु पुरुषार्थ के लिए मानवाह्वान के अनुरूप ही बरतना होगा। इस सम्बन्ध में इसके अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है। ऋग्वेद की कल्याणकारी कामना और मानवाह्वान है: 

“संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्/ देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते// समानो मन्त्र: समिति: समानी समानं मन: सहचित्तमेषाम्/ समानं मन्त्रमभिमन्त्रये व: समानेन वो हविषा जुहोमि// समानी व आकूति: समाना हृदयानि व:/ समानमस्तु वो मनो यथा व: सुसहासति//”

अर्थात्, “हम परस्पर एक होकर रहें; मिलकर प्रेमपूर्वक वार्तालाप करें, समान मन से ज्ञान प्राप्त करें, जिस प्रकार श्रेष्ठजन एकमत होकर ज्ञानार्जन करते हुए ईश्वर की उपासना करते हैं; उसी प्रकार एकमत होकर व विरोध त्याग कर कार्य करें। हम सबकी प्रार्थना एक समान हो, भेदभाव-रहित होकर परस्पर मिलकर रहें; हमारे अन्तःकरण, मन-चित्त-विचार, समान हों। सबके हित के लिए समान मन्त्रों को अभिमंत्रित कर हवि प्रदान करें; सबके संकल्प एक समान हों, हृदय एक समान हों और मन एक समान हों, जिससे कार्य पूर्णतः संगठित हो।“ 
इसी  भावना और संकल्प के अनुसार पर्यावरण-सन्तुलन एवं प्रकृति-संरक्षण के लिए कार्य ही, वास्तव में, पृथ्वी दिवस मनाने का भी आधार होना चाहिए।  

लेखक पद्मश्री और सरदार पटेल राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित डॉ0 रवीन्द्र कुमार भारतीय शिक्षाशास्त्री एवं मेरठ विश्वविद्यलय, मेरठ (उत्तर प्रदेश) के पूर्व कुलपति हैं I

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