समुद्र और चंद्रभागा

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जैसे सारे संसार के टेलीफोन
घनघना उठे एक साथ
इस समुद्र के रोम-रोम से
लेकिन तुम कैसी हो चंद्रभागा
कि इतनी मौन हो
समुद्र इतना आविष्ट है
कि तुमसे संवाद नहीं कर पाता
क्या संवाद अब असंभव है?
लहरें अथाह से अनंत से सघन उल्लास में
हहराती ईरानी घोड़ों की रेस-सी
दौड़ती हैं झाग फेंकती लगातार
कगार पर टापों की आवाजें टकराकर
रह जाती हैं चंद्रभागा, तुम्हारे लिए
तुम चाँदनी की मलाई-सी
क्यों पड़ी हो अनाविष्ट, शांत...

यह कौन-सी बेहोशी है शापित चंद्रभागा,
यह समुद्र हहराता ज्वार पर ज्वार लेता
तुमसे मिलनोत्सुक उदग्र कितना कब से कब तक
और तुम चंद्रभागा, बेहोश ठंडी...

समुद्र यह विरोधभास कब तक सहे!
कब तक तुम्हें अंतःसूर्य का दे अर्घ्य!

डाम हैं तट पर
चाँदनी की मलाई है तू
चंद्रभागा, क्या समुद्र रहेगा ज्वार-जर्जर
सिर्फ सिर्फ सिर्फ...

‘इंडिया टुडे’ साहित्य वार्षिकी, 1996 में प्रकाशित

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