सफाई का महत्व
उद्योग की प्रक्रियाओं का परिणाम है, आर्थिक उत्पादन। जिसे कूड़ा-करकट समझकर फेंक दिया जाता है, उसकी यदि व्यवस्था वैज्ञानिक ढंग से की जाय, तो आसानी से उसे उत्पादन का जरिया बना सकते हैं। साधारणतः गन्दगी दूर करने का अर्थ कूड़े-करकट को एक स्थान से दूसरे स्थान पर हटा देना समझा जाता है। सचमुच इसे सफाई नहीं कहते। इसे तो गन्दगी का स्थानान्तरण ही कहा जा सकता है।
प्रकृति का मौलिक गुण
सामाजिक जीवन का मूल उद्योग
मनुष्य की मूल प्रवृत्ति आत्मरक्षा है, इसलिए उसकी चेष्टा अपनी जान बचाने के साधन एकत्र करने की है। अन्न और वस्त्र जीवन-यापन के मुख्य साधन है। यही कारण है कि हम कृषि और कताई को मूल उद्योग मानते हैं। किन्तु मनुष्य की जिंदगी व्यक्तिगत ही नहीं है। उसकी सामाजिक जिंदगी भी है। उसे अपनी व्यक्तिगत रक्षा के लिए सामाजिक रक्षा की आवश्यकता पड़ती है। सफाई का समाज में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। इसके बिना समाज टिक नहीं सकता। अतः जिस प्रकार व्यक्तिगत जिंदगी के लिए कृषि और कताई को मूल उद्योग माना गया है, उसी प्रकार सफाई को सामाजिक जिंदगी का मूल उद्योग मानना पड़ेगा।
उद्योग की प्रक्रियाओं का परिणाम है, आर्थिक उत्पादन। जिसे कूड़ा-करकट समझकर फेंक दिया जाता है, उसकी यदि व्यवस्था वैज्ञानिक ढंग से की जाय, तो आसानी से उसे उत्पादन का जरिया बना सकते हैं। साधारणतः गन्दगी दूर करने का अर्थ कूड़े-करकट को एक स्थान से दूसरे स्थान पर हटा देना समझा जाता है। सचमुच इसे सफाई नहीं कहते। इसे तो गन्दगी का स्थानान्तरण ही कहा जा सकता है।
जहाँ-तहाँ कागज के टुकड़े पड़े रहना, खर-पतवार का यत्र-तत्र बिखरे रहना, कमरे के सामान का धूल से भरा रहना और लकड़ी, ईंट, खपरैल आदि के टुकड़े जहाँ-तहाँ बिखरे रहना इत्यादि बातों को लोग गन्दगी समझते हैं और उसी को कूड़ा कहते हैं। तो क्या कागज के टुकड़े, खर-पतवार, लकड़ी के टुकड़े, धूल, मिट्टी आदि जहाँ कहीं भी हों, उन्हें कूड़ा समझकर कहीं-न-कहीं फेंक देना चाहिए? इस तरह कूड़ों को स्थानान्तरित करने से ही सफाई नहीं होती। हमने देखा है कि खिलौना बनानेवाले, कागज और कपड़े के चिथड़ों को सँभालकर सुरक्षित रखते हैं, ईंधन बेचनेवाले भी लकड़ी के टुकड़े संचित करते हैं और बेचकर पैसे पैदा करते हैं। रही बात धूल की। धूल से तो सारी पृथ्वी ही बनी है। इससे भागकर हम कहाँ जायँगे? इन बातों को मतलब यह नहीं है कि ये चीजें हटायी न जायँ और वैसे ही जहाँ की तहाँ पड़ी रहें। सच बात तो यह है कि जो कागज का टुकड़ा रास्ते में आँखों को खटकता है और गन्दगी का कारण बनता है, वही टुकड़ा यदि अपने उपयुक्त स्थान पर पहुँच जाय, तो सम्पत्ति का साधन बन सकता है। अनुपयुक्त स्थान पर महान पण्डित भी एक प्रकार का कूड़ा ही है और उपयुक्त स्थान पर छोटी-से-छोटी साधारण वस्तु भी राष्ट्र की सम्पत्ति समझी जाती है।
सफाई का अर्थ है- स्थानच्युत वस्तुओं को अपने स्थान पर प्रतिष्ठित करना, अर्थात् कूड़े-करकट को सम्पत्ति में परिणत करना।
एकांगी कलाकार भी अपनी कला की शुरुआत सफाई से करता है। लेकिन एकांगी और संकुचित दृष्टि के कारण वह केवल उतना ही हिस्सा साफ करता है, जितना उसके अंकन के लिए आवश्यक है। ऐसे लोगों को कलाकार नहीं माना जा सकता। उन्हें हम दस्तकार, नृत्यकार, गायक या चित्रकार आदि नामों से सम्बोधित कर सकते हैं। कलाकार वह है, जो अपनी आँखों के सामने किसी किस्म की भद्दी और गन्दी चीज को बर्दाश्त नहीं करता और उसे साफ किए बिना चैन नहीं पाता।
मौलिक कला
कलाकार का मूलगुण
सभ्यता का अविभाज्य अंग
सफाई जीवन का, सभ्यता का अविभाज्य अंग है। दुनिया के हर-एक धर्म में सफाई की ओर निर्देश करनेवाले आचार वर्णित हैं। पूजा-पाठ के पहले स्नानादि या नमाज के पहले वजू यही सूचित करते हैं। योगाभ्यास के वर्णन में “शुचि देश में आसन लगायें” और असुरों के वर्णन में गीता का कथन है कि “उनमें शुचिता नहीं होती।” शुचिता में सफाई आ ही जाती है, एक भीतरी, दूसरी बाहरी। “साधुता के बाद स्वच्छता का ही स्थान है” इस अर्थ का अंग्रेजी वाक्य प्रसिद्ध ही है। स्नानादि से या स्वच्छ मैदान, नदी आदि देखने से होनेवाली प्रसन्नता का सबको अनुभव है। रस्किन ने शिक्षा की व्याख्या ही यह की है कि हवा, पानी और मिट्टी को ठीक ढंग से बरतना आना ही शिक्षा है। याने बिना बिगाड़े उनका कैसा उपयोग करना और बिगड़े हों, तो उन्हें कैसे दुरुस्त करनी ही शिक्षा है। जीवन में आरम्भ से अन्त तक सफाई की जरूरत होती है। इसलिए नयी तालीम में सफाई अनिवार्य और सहज-समवाय का विषय है। आरोग्य के लिए सफाई बहुत जरूरी है। कॉलरा, टाइफॉइड आदि बड़े रोगों और बुखार, खुजली आदि छोटे रोगों का असली कारण अस्वच्छता ही है।
सफाई के इतने महत्वपूर्ण विषय की ओर दीर्घ काल से हम दुर्लक्ष करते रहे हैं। निजी सफाई के स्नानादि नियमों का हम कुछ पालन करते हैं, फिर भी सामाजिक सफाई का हममें अभाव ही है। अपने घर का कूड़ा-कचरा दूसरे के घर के सामने, रास्ते पर या किसी आम जगह पर डालने में हमें संकोच नहीं होता। विनोबाजी विनोद में कहा करते हैं कि “मेरे बच्चे दूसरे के आँगन में और दूसरों के बच्चे मेरें आँगन में” इस तरह की ‘प्रतियोगी सहकारिता’ बच्चों के टट्टी फिरने के बारे में हममें चलती है। कहीं भी थूक देने या पेशाब-पखाना कर देने की आदत हममें घर कर गयी है। इसलिए किसी के कथनानुसार हमारे देहात घूर पर बसाये गये जैसे दिखते हैं। दूसरे एक मित्र के विनोदानुसार जैसे रावण की लंका को सोने का परकोटा होता है। वैसे हमारे देहातों का सोनखाद (मैले) का परकोटा होता है। फलस्वरूप कमजोरी, बीमारी, अकाल मौत आदि के रूप में हमें इसकी सजा भुगतनी पड़ती है।