ताम्रपर्णी

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शंकर से आज्ञापित मुनि ने, पर्वत के उच्च शिखर पर से-
दी छोड़ कमंडलु की गंगा, वरदान-जलद जैसे बरसे।
लहराती - बलखाती नीचे पिघले तांबे - सी चली धार-
थी कल्लोलिनी ताम्रवर्णी-फेनिल, सवेग, नटखट अपार।

बह उठी तीन धाराओं में ‘नारदी तीर्थ’ घेरती हुई-
मुनिवर कश्यप के आश्रम को कुंडलाकार घेरती हुई।
कुछ दूरी पर फिर ‘अग्निनदी’ उन ‘वेदतीर्थ’ धाराओं को-
दे एकरूप आगे बढ़ती, कर ध्वस्त कलुष-काराओं को।

पहले प्राची, फिर उत्तर में, फिर दक्षिण में बहती आई-
ज्यों घाट-घाट का अनुभव ले, दिग्विजय-कथा कहती आई।
इसके उपकंठों ने अपनी संस्कृति के मंगलसूत्र गढ़े-
अश्लील तिमिर को ठुकराया, है सभ्य ज्योति के छंद पढ़े।

अपने संचित यश के समान, पांड्यों ने विवश चढ़ाए थे-
दिग्जयी रघु-चरण पर मोती, जो इसी नदी से पाए थे।
हनुमान खोजने सीता को, जब आए थे चंदनगिरि पर-
उन पर अगस्त्य ने बरसाए तब आशीषों के पुष्प-प्रकार।

विकराल ग्राह-संकुल, गंभीर-उद्दंड भीति-व्यालिनी नदी-
वे तैर गए थे ताम्रवती, प्रच्छन्न द्वीपशालिनी नदी।
मैथिली मिली जब उन्हें नहीं चंदनगंधी वन-प्रांतों में-
तब लिए साथ कवि-भालु गए, वे दक्षिण सिंधु-उपांतों में।

‘अंग्रेजों ! भारत को छोड़ो’ गांधी ने जब उद्घोष किया-
तब सजग जहां के जनगण ने था सत्याग्रह में भाग लिया।
श्रम-उद्यम, पौरुष-संयम गुण संपूरित जहां युवाओं में।
उद्गार क्रांति-पथ के प्रेरक संघोषित नित्य हवाओं में-

“वह मानव भी क्या मानव है? जो संकट से खेला न कभी।
दुःख के प्रचंड आघातों को हंसते-हंसते झेला न कभी।
वह जीवन भी क्या जीवन है? जिसमें न प्रगति हो, धार न हो,
वह यौवन भी क्या यौवन? जो जाज्वल्यमान अंगार न हो।

श्वानों, शूकरों, श्रृंगालों-सा, खाकर-सोकर मर जाना क्या?
जो रच न प्रगति-प्रतिमान सका, उसका रोना क्या? गाना क्या?
धुँधुआते निष्क्रिय वर्षों से, पल एक धधकता अच्छा है।
बहुसंख्य गरजते मेघों से, घन एक बरसता अच्छा है।”

ऐसी उदात्त भावना भरे, तरुणाई के बलिदान जहां-
चप्पे-चप्पे में राष्ट्र-प्रेम, फूलों में सुरभि-समान जहां।
शोणित की मेहंदी रचे रहा यशमूल पराक्रम का सावन-
जिस तमिलनाडु की मिट्टी है, रणवीर-रत्नगर्भा पावन-

उस प्रबल प्रांत की भाग्य रेख, कुंभजनंदिनी उदारा है-
सभ्यता-शक्ति, कृषि-संस्कृति की अभिभावक जीवनधारा है।
घूमती चंदनारण्यों में, हंसती निश्छल मोक्तिकदशना-
रतार उपाओं से बिंबित लगती कोई गैरिकवसना।

‘ताम्रपर्णी’ नदी काव्य से एक अंश । यह काव्य, कवि की पुस्तक ‘पंचगंगा’ में संकलित है, जिसे लोकवाणी संस्थान, मुरादाबाद, रोड, नूरपुर, बिजनौर (उ.प्र.) ने 1997 में प्रकाशित किया है।

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