उपसंहार

Published on
2 min read

‘जल’ के ऊपर लिखने के लिए इतना अधिक मौजूद है कि एक स्वतंत्र ग्रन्थ लिखा जा सकता है। किन्तु समय और कलेवर की सीमा विवश कर रही है कि मैं अपने आलेख को यहीं समाप्त कर दूँ।

मैंने संस्कृत के मूल उद्धरण केवल इस कारण दिये हैं कि सुविज्ञ-पाठक मूल-पाठ के आधार पर उनके अर्थ का निश्चय स्वयं कर सकें। इसी प्रकार वैदिक-सूक्त भी केवल यही सोचकर मूल रूप में दिये हैं कि उनका ‘तात्पर्य’ दिये हुए सरलार्थ की सीमा में बँधकर न रह जाये।

मेरा विनम्र अनुरोध है कि प्राचीन भारतवासियों की जल-सम्बन्धी अवधारणा पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विचार किया जाये। भारतीयों का दृष्टिकोण भी विचित्र है कि उन्होंने वैज्ञानिक-शोधकार्यों को धर्म का आवरण देकर सबके सामने रखा। इसमें उनका कौन-सा उद्देश्य निहित था, यह तो वे ही जानें। किन्तु यह निश्चित है कि वे सोचने-विचारने तथा उस पर अमल करने के लिए हमें बहुत कुछ देकर गये हैं। हमें इस विरासत को यों ही नष्ट हो जाने के लिए नहीं छोड़ देना चाहिए। नई पीढ़ी को प्रेरित करना चाहिए कि वह इस पर कुछ समय खर्च करे।

वर्तमान में ‘भौतिक जल’ का दिनोंदिन अभाव होता चला जा रहा है। वर्षा भी कहीं होती है, कहीं बिल्कुल नहीं होती तथा कहीं अतिवृष्टि होती है। नदियो के स्रोतों ने पानी देना कम कर दिया है। पृथ्वी के अन्तः जलस्रोत या तो सूख गये हैं, या फिर उनका स्तर बहुत नीचे पहुँच गया है। ऐसी स्थिति में हम क्या करें? हमें क्या करना चाहिए कि हमें ‘जल’ सदैव सुगमतापूर्वक मिलता रहे?

इन प्रश्नों के उत्तर के लिए संसार भर के वैज्ञानिक तो प्रयत्नशील हैं ही, हम भारतीय भी अपने प्राचीन-आर्ष-उपायों का प्रयोग करके उनका ‘सत्यापन’ कर सकते हैं। वेदों, पुराणों, रामायण, महाभारत तथा वाराही संहिता जैसे प्राचीन ग्रन्थों में अनावृष्टि रोकने के, समय पर वर्षा कराने के तथा भूमि के जलस्तर को सुधारने के अनेक उपाय दिये हुए हैं। हम यह दुराग्रह त्याग कर कि ये सब हिन्दुओं के धर्मग्रन्थ हैं, यदि इनमें वर्णित जल प्राप्ति के उपायों पर पुनर्विचार करें तो संभव है कि हमारी ‘जल संबंधी समस्या’ का कोई ‘हल’ निकल आये।
 

संबंधित कहानियां

No stories found.
India Water Portal - Hindi
hindi.indiawaterportal.org