विकास प्रक्रिया

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पाठ-1

विकास कार्यों के सकारात्मक परिणाम प्राप्त करने के लिए प्रत्येक परियोजना के सभी चरणों में योजना निर्माण से लेकर उसके क्रियान्वयन में लोगों के सक्रिय सहयोग को सुनिश्चित करना बहुत ही आवश्यक है। इसके लिए सहभागिता को परिभाषित तो किया गया, परन्तु वास्तव में उसका प्रयोग अभी भी पूर्ण रूप से नहीं हो पा रहा है। आज भी कई कार्यों के परिणाम इस बात के साक्षी हैं। जीवन में प्रत्येक विभाग, प्रत्येक पक्ष चाहे वह मानव संसाधन हो, आर्थिक स्थिति हो या मूलभूत आवश्यक सुविधाओं की उपलब्धता हो, इन सब में सुधार हेतु विभिन्न स्तरों पर प्रयास हो रहे हैं, इस बीच कई, योजनायें लागू हुई व कई चल रही हैं, पिछले पाँच-छः दशक से इस प्रकार के प्रयासों का एक मात्र उद्देश्य रहा है, विकास करना, इस दौरान परिस्थितियों के साथ-साथ योजनाओं का स्वरूप भी बदलता रहा है।

विकास प्रक्रिया का आरम्भ

सन 1947 में हमने आजादी प्राप्त की व सरकार बनी, उस समय की अपेक्षाओं से भरे माहौल में सरकार ने अपना जो स्वरूप निर्धारित किया वह कल्याणकारी सरकार का रहा। जनता तक अधिकाधिक लाभ एवं सुविधायें पहुँचाने के लिए सरकार द्वारा समुदाय के चहुँमुखी विकास के लिए विभिन्न प्रयास प्रारम्भ किए गए, सरकार द्वारा विकास के लिए जो उचित समझा गया उस पर आधारित योजनाऐं/कार्यक्रम प्रारम्भ किये गए।

विकास प्रक्रिया के बदलते हुए स्वरूप

सन 1950-60 के दशकों में विकास कार्य मुख्यतः सरकार ने अपने ढाँचे, अपने विभागों व साधनों से किये, प्रारम्भिक सोच समुदाय के चहुमुखी विकास की रही, आगे चलकर सन 1960 उत्तरार्द्ध व सन 1970 के प्रारम्भ में यह रूप परिवर्तित होकर लक्ष्य समूह आधारित विकास हो गया, इसके अन्तर्गत लघु किसान, भूमिहीन व आदिवासी समूह के लिए योजनायें एवं कार्यक्रम चलाये गए, थोड़ा समय बीतने पर कमाण्ड एरिया डेवलपमेंट की बात प्रारम्भ हुई, एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र का समग्र विकास जिसको कि पिछले कुछ वर्षों से जलागम विकास कहा जा रहा है।

विकास प्रक्रिया के प्रभाव

मानव सभ्यता के लम्बे इतिहास में विकास की बात मात्र पांच-छः दशक से ही प्रारम्भ हुई है। यही वह दौर रहा, जबकि सामाजिक-आर्थिक विकास के नाम पर ढाँचा खड़ा करने पर तथा सुविधायें उपलब्ध कराने पर अधिक जोर दिया गया। हिमालय में सड़कों की लम्बाई 50 हजार कि.मी. से अधिक पहुँच गई, कई विशाल बाँध बन गए, स्कूल खुल गए, चिकित्सालय खुल गए आदि, इस दौर के चलते विकास का भौतिक आयाम मुख्य हो गया, जिस कारण सामाजिक उत्थान की सोच आँकड़ों में सीमित होकर रह गई। कार्यक्रमों का एक मात्र ध्येय स्व-निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति रह गया। इसी बीच विकेन्द्रीकरण व्यवस्था के स्थान पर केन्द्रीकरण बढ़ा, गाँव स्तर की बात जिला स्तर व जिले स्तर की बात राज्य पर होने लगी। जंगल, पशु, औद्योगिकी, सिंचाई आदि के अलग-अलग विभाग बन गए व विभागीकरण बढ़े, साथ ही योजनाओं में क्षेत्रीय भिन्नताओं की अनदेखी हुई व सार्वभौमिकता को बढ़ावा मिला।

क्या कारण रहे

विकास प्रक्रिया का यह काल मुख्य रूप से जिस सोच से प्रभावित रहा वह था, लोग अशिक्षित हैं (लगभग 90 प्रतिशत तक जनसंख्या अशिक्षित थी), चूँकि लोग अशिक्षित हैं और वे जानकार नहीं हैं। विकास कार्यों में बौद्धिक रूप से किसी भी प्रकार का सहयोग दे पाने में सक्षम नहीं हैं, दूसरी सोच थी लोग गरीब हैं- साधन सुविधाओं से रहित लोग, साधनों आदि का सहयोग प्रदान करने में असमर्थ हैं।

विकास प्रक्रिया के परिणाम

1980 के दशक के प्रारम्भ से विभिन्न परिणाम सामने आने लगे, मुख्य परिणाम यह रहा कि बड़े स्तर पर भौतिक विकास हो जाने के उपरान्त भी आम लोगों के जीवन स्तर में अपेक्षित सुधार नहीं हुआ, साथ ही जहाँ भी योजनाएँ क्रियान्वित हुई, जब-जब योजनागत ढाँचा वहाँ से उठा तो बनाया गया सम्पूर्ण तन्त्र ही ढह गया, नहरें बनी किन्तु देख रेख के अभाव में अनुपयोगी हो गई, वृक्षारोपण हुए परन्तु वन विभाग के हटते ही नष्ट हो गए, कार्यक्रमों में निरन्तरता का अभाव रहा।

विकास प्रक्रिया के निष्कर्ष

पिछले चार-पाँच दशकों में हुए विकास कार्यों का जब विश्लेषण हुआ तो महसूस किया जाने लगा कि, लोग पराश्रित व परावलम्बी हो गए हैं, लोगों में सरकारी योजनाओं में निर्भर रहने की मानसिकता बहुत बढ़ गई है, लोगों ने अपने स्व-विकास के लिए क्या उचित है, सोचना छोड़ दिया है, लोग प्रयास व सहयोग करने की क्षमता खो चुके हैं, यदि लोगों की सोच उनकी मानसिकता, एवं सामाजिक संगठन की भावना का विकास नहीं होता है तो विकास का कोई अर्थ नहीं है, भौतिक विकास, विकास का एक आयाम हो सकता है सम्पूर्ण विकास नहीं, यह बात भी स्पष्ट हुई कि अभी तक स्थानीय जानकारी, लोगों का रहन-सहन, खेती तथा संस्कृति को अनदेखा किया गया, जिसके कारण लोगों में जुड़ाव की भावना मर गई व योजनाओं का क्रियान्वयन सार्थक नहीं रहा।

बदलाव की ओर ग्रामीण विकास

ग्रामीण विकास प्रक्रिया के अब तक के अनुभवों का यदि हम विश्लेषण करें, तो पाते हैं कि विगत वर्षों में सरकार ने लोगों के जीवन स्तर, स्वास्थ्य, शिक्षा, सामाजिक-आर्थिक विकास हेतु विभिन्न योजनाएँ संचालित की, परन्तु ढाँचागत स्तर पर विकास होने के बावजूद भी लोगों के जीवन स्तर में अपेक्षित सुधार नहीं हो पाया है, राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय एवं स्थानीय स्तर पर तेजी से बदलते परिदृश्य से यह स्पष्ट हो गया है कि, वर्षों से चली आ रही विकास की सोच एवं धारणा की मौजूदा संदर्भ में समीक्षा की जानी आवश्यक है, विकास लोगों के इर्द-गिर्द घूमना चाहिए न कि लोग विकास के इर्द-गिर्द घूमें तथा विकास ऐसा हो जिससे लोग व्यक्तिगत एवं सामूहिक रूप से सशक्त हो सकें ताकि वे विकास में पूरी-पूरी भागीदारी निभा सकें।

विकास प्रक्रिया में लोगों की भागीदारी आज प्रत्येक स्तर पर विकास की सोच को प्रभावित कर रही है, तथा निचले स्तर से भी निर्णय प्रक्रिया में सम्मिलित किये जाने हेतु लगातार आवाजें उठ रही हैं। जिसके कारण विकास कार्यक्रमों एवं परियोजनाओं में जन साधारण की भागीदारी पर आम सहमति तैयार हो चुकी है।

विकास को केवल भौतिक सुख-सुविधाओं से नहीं जोड़ा जा सकता है, परन्तु वास्तविक तौर पर भौतिक सुख सुविधाओं से परिपूर्ण जीवन को ही विकसित जीवन माना जाने लगा है, इससे अलग-अलग परिवेश, पारिस्थितिकीय तन्त्रों एवं संस्कृति में जीते हुए लोगों के ऊपर दबाव सा पड़ रहा है, यह उन्हें अपनी सोच, जीवन शैली तथा भावनाओं को छोड़कर अलग तरह से जीने के लिए प्रेरित करता है, जो प्रायः वहाँ की परिस्थिति तथा समाज के लिए ठीक नहीं होता है। ऐसा होने पर काफी मेहनत तथा धन खर्च करने के बाद भी सार्थक परिणाम सामने नहीं आते हैं, विकास की इस पुरानी परम्परा के दुष्परिणाम योजनाओं की असफलता तथा उनमें निरन्तरता के अभाव के रूप में सामने आ रहे हैं। जिनसे पूरा विश्व चिन्तित है। पारिस्थितिकीय तन्त्र (इकोसिस्टम) के अनुसार लोगों को अपनी संस्कृति के अनुसार अलग तरह से जीने का हक है तथा उन्हें अपने ज्ञान एवं अनुभवों के आधार पर अपने विकास की रूपरेखा तैयार करने का अधिकार है।

ग्रामीण विकास से जुड़े विभिन्न पक्ष

ग्रामीण विकास प्रक्रिया का बारीकी से अवलोकन करने पर उसमें ग्रामवासी, जनप्रतिनिधि व विकास कार्यकर्ता के रूप में तीन पक्ष (एक्टर्स) नजर आते हैं, ग्रामीण स्तर पर नियोजन प्रक्रिया को मजबूत करने, सहभागी विकास को बढ़ावा देने तथा निरन्तर विकास की अवधारणा को मजबूत करने के लिए इन तीनों पक्षों को मजबूत करने के साथ-साथ इनके बीच के अन्तर्सबन्धों को भी मजबूत किया जाना आवश्यक है, प्रत्येक पक्ष (एक्टर) को मजबूत करने का अर्थ उसे दृष्टिकोण (एटिट्यूड) ज्ञान एवं क्षमताओं में सुधार करने से है।

स्थाई/निरन्तर विकास

1. निरन्तर विकास का अर्थ एक ऐसे विकास से है, जो वर्तमान की आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ-साथ भविष्य की आवश्यकताओं का भी ध्यान रखें।

2. जो केवल ढाँचा खड़ा करने में विश्वास न रखता हो, बल्कि अन्य पहलुओं को भी ध्यान में रखता हो।

3. जो किसी विभाग/ संस्था या व्यक्ति पर निर्भर न रह कर स्वावलम्बी हो तथा स्थानीय निवासियों द्वारा संचालित हो।

4. जो मानव संसाधन के विकास पर भी पूरा ध्यान देता हो।

5. जो पूरे किये गए कार्यों के उचित रख-रखाव एवं उसको आगे बढ़ाने हेतु उचित संगठनात्मक ढाँचा तैयार करे।

निरन्तर विकास के सिद्धान्त

स्थानीय व्यक्तियों एवं समुदाय का सशक्तीकरण

विकास प्रक्रिया के साथ पैदा होने वाले सबसे बड़े अवरोधों में स्थानीय समुदाय की संस्कृति पारम्परिक अधिकारों, संसाधनों तक पहुँच एवं आत्म-सम्मान आदि की अवहेलना मुख्य हैं, इससे स्थानीय समुदाय का विकास कार्यक्रमों के प्रति जुड़ाव के स्थान पर अलगाव तथा रोष पैदा होता है, अतः विकास को निरन्तर या सतत बनाने के लिए स्थानीय निवासियों के अधिकारों को पहचानना तथा उनके मुद्दों को समर्थन प्रदान करना आवश्यक है।

स्थानीय ज्ञान एवं अनुभवों का महत्व

विकास के नाम पर नये विचार एवं ज्ञान थोपने के बजाय स्थानीय निवासियों के ज्ञान एवं अनुभवों को महत्व देना आवश्यक है, तथा उपलब्ध ज्ञान एवं अनुभवों को आधार मानकर विकास कार्यक्रम तैयार किये जाने चाहिए।

स्थानीय समुदाय की आवश्यकताओं एवं प्राथमिकताओं की पहचान

बाहर से आने वाले विकास कार्यकर्ताओं का दृष्टिकोण एवं नजरिया स्थानीय समुदाय से भिन्न होता है, जिसके आधार पर विकास कार्यकर्ता की दृष्टि में स्थानीय समस्याएँ एवं प्राथमिकताएँ भी भिन्न हो सकती हैं। अतः आवश्यकताओं एवं प्राथमिकताओं की पहचान स्थानीय निवासियों के साथ मिल-बैठ कर उनके दृष्टिकोण एवं नजरिये को समझ कर ही की जानी चाहिए।

स्थानीय निवासियों की सहभागिता

कार्यक्रम नियोजन से लेकर क्रियान्वयन तथा प्रबन्धन में ग्रामवासियों की सहभागिता आवश्यक है। सहभागिता का अर्थ भी स्पष्ट होना चाहिए तथा स्थानीय समुदाय द्वारा विभिन्न स्तरों पर लिये गए निर्णयों को स्वीकारना ही उनकी सच्ची सहभागिता प्राप्त करना है।

लैंगिक समानता

पिछले अनुभवों से यह स्पष्ट है कि, यदि विकास की गतिविधियों को महिला एवं पुरूषों दोनों की आवश्यकताओं को ध्यान में रख कर तैयार नहीं किया जाता है तथा उनमें महिलाओं की बराबर भागीदारी नहीं होती, तो ऐसा करना न केवल अनुचित है, बल्कि उनके सफल एवं निरन्तर होने में संदेह रहता है। निरन्तर बनाने के लिए विकास को महिलाओं तथा पुरूषों की भूमिकाओं, प्राथमिकताओं तथा आवश्यकताओं को ध्यान में रख कर तैयार किया जाना चाहिए।

कमजोर वर्गों को पूर्ण अधिकार

समाज के कमजोर वर्गों जैसे भूमिहीन, अनुसूचित जाति एवं जनजाति को आधुनिक विकास प्रक्रिया में उपेक्षित किया गया है, तथा उनकी सहभागिता का केवल दिखावा किया गया है। उन पर या तो अनुदान वाली योजनाएँ थोप कर अनुदान स्वयं ले लिया गया या बैठकों या क्रियान्वयन के दौरान उनकी केवल भीड़ एकत्र करके उनको निर्णय प्रक्रिया से दूर रखा गया है, अतः निरन्तरता के लिए समाज के कमजोर एवं उपेक्षित वर्ग के अधिकारों का समर्थन किया जाना आवश्यक है, तथा उन्हें विकास की मुख्य धारा से जोड़ा जाना आवश्यक है।

जैविक विविधता तथा प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण

पिछले कुछ वर्षों में हुए विकास कार्यों के कारण जैविक विविधता में गिरावट आई है, तथा प्राकृतिक संसाधनों का ह्रास हुआ है, किसी भी जीव-जन्तु या वनस्पति का अन्य जीव-जन्तुओं तथा वनस्पतियों से पारस्परिक सम्बन्ध होता है, इन अन्तर्सम्बन्धों में बिगाड़ आने से पूरा चक्र गड़बड़ा जाता है। इसी प्रकार पारिस्थितिकीय तन्त्र के विभिन्न घटकों का सन्तुलन खराब हो जाने से बहुत सी पर्यावरणीय समस्याएँ पैदा होने लगती हैं, अतः विकास को निरन्तर बनाने के लिए जैविक विविधता तथा प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण आवश्यक है।

स्थानीय तकनीकों, निवेश तथा बाजार पर निर्भरता

बाहरी सहयोग पर आधारित, विकास कार्यों की लम्बे समय तक चलने की कोई गारन्टी नहीं होती है। साथ ही साथ बाहरी तकनीक की समाज में स्वीकार्यता पर भी शंकाएँ होती हैं। अतः विकास की निरन्तरता हेतु स्थानीय तकनीकों, स्थानीय स्तर पर जुटाया गया, निवेश तथा स्थानीय बाजारों पर ही पूर्ण भरोसा किया जा सकता है।

विकास एवं सहभागिता

सहभागिता की अवधारणा

विभिन्न योजनाओं के माध्यम से विकास की दिशा में किये गए पिछले प्रयास प्रायः एकांकी सिद्ध हुए हैं। निरन्तरता एवं स्थायित्व पर अनेक प्रश्न उठाये जाते रहे हैं। इसके कारणों का विश्लेषण करने पर यह अनुभव किया गया कि विकास कार्यक्रमों में लोगों की भूमिका एवं भागीदारी की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया। इन अनुभवों ने विकास के प्रयासों एवं योजनाओं में जनता की भागीदारी/सहभागिता की अवधारणा को जन्म दिया।

इतिहास दर्शाता है कि, सहभागी विकास मानव संस्कृति का केन्द्र बिन्दु था। यह बात संयुक्त परिवार जैसी व्यवस्था से भी प्रदर्शित होती है। आज भी देश की विभिन्न जनजातियों में सहभागिता जैसे सामाजिक तन्त्र देखने को मिलते हैं, धीरे-धीरे सहभागिता की भावना खत्म होने लगी और संयुक्त ढाँचे की जगह एकांकी ढाँचे ने ले ली। इस व्यवस्था को और भी क्षति तब पहुँची जब ग्रामीण विकास कार्यक्रमों में अनुदान देने-लेने तथा ढाँचागत विकास पर अधिक जोर दिया गया। पर स्थानीय लोगों की दशा में सुधार नहीं हुआ बल्कि मानसिक तथा शारीरिक रूप से वे और अधिक निर्बल हो गए।

देश में विकास कार्यक्रमों के मूल्यांकन के पश्चात देखा गया है, कि कार्यक्रमों में निरन्तरता का सर्वथा अभाव रहा जिसका मुख्य कारण था, विकास कार्यों में स्थानीय लोगों की भागीदारी का न होना। जिन लोगों के लिए कार्यक्रम बनाये गए थे, उन्हीं को वे कार्य स्वीकार नहीं थे, व कार्यक्रम का पूर्ण होना उनके हाथ में नहीं था। फलस्वरूप उन्हें अनपढ़ तथा गरीब कहकर नकारा गया। इन कारणों को स्वीकारते हुए विकास की पुरानी सोच बदलने लगी तथा विकास में सहभागिता का महत्व समझ में आने लगा। यह महसूस किया गया कि विकास कार्यों की सफलता व इनकी निरन्तरता को बनाये रखने में स्थानीय समुदाय की भूमिका का विशेष महत्व है। आज हम समग्र ग्रामीण विकास की बात करते हैं और उसके लिए ग्रामीणों की सहभागिता को जरूरी समझते हैं इससे स्पष्ट होता है कि विकास और सहभागिता एक दूसरे के पूरक हैं। सहभागिता क्या है? सहभागिता क्यों? सहभागिता के क्या लाभ हैं? सहभागिता कैसे प्राप्त की जाती हैं? यह एक महत्त्वपूर्ण विषय है, जिस पर चर्चा की जानी आवश्यक है।

आज विकास कार्यकर्ताओं की सोच में परिवर्तन हुआ है, क्योंकि जिन ग्रामीणों को वह तुच्छ, अज्ञानी और महज लाभार्थी मानते थे आज वे उन्हीं के ज्ञान व अनुभव को महत्व देने की बात करते हैं। पहले विकास की जिम्मेदारी सिर्फ सरकार की समझी जाती थी, जिसके कारण लोगों का विकास कार्यक्रमों में सहभागिता न के बराबर थी। परन्तु आज सरकारी कर्मचारियों व अधिकारियों की मनोवृत्ति में परिवर्तन से ग्रामीणों की सक्रिय भागीदारी पर बल दिया गया है।

विकास कार्यों के सकारात्मक परिणाम प्राप्त करने के लिए प्रत्येक परियोजना के सभी चरणों में योजना निर्माण से लेकर उसके क्रियान्वयन में लोगों के सक्रिय सहयोग को सुनिश्चित करना बहुत ही आवश्यक है। इसके लिए सहभागिता को परिभाषित तो किया गया, परन्तु वास्तव में उसका प्रयोग अभी भी पूर्ण रूप से नहीं हो पा रहा है। आज भी कई कार्यों के परिणाम इस बात के साक्षी हैं। सहभागिता को शब्दों या परिभाषा में बाँधना उचित नहीं हैं। क्योंकि सहभागिता हर व्यक्ति के लिए अलग-अलग अर्थ रखती है, तथा विभिन्न कार्यों के लिए सहभागिता के विभिन्न रूप होते हैं।

एक नजर वर्तमान सहभागिता के तरीकों पर

1. गाँव में सभाओं कार्यशालाओं का आयोजन तथा लोगों के साथ बैठकर उनको अपने कार्यक्रमों की जानकारी देना।

2. कोई भी कार्य शुरू करना, लोगों से सम्पर्क करना तथा लोगों को सहयोग देने के लिए कहना।

3. लोगों से श्रमदान लेना सहयोग राशि लेना तथा उसी को सामूहिक सहभागिता कहना, क्या यही सहभागिता है?

4. लोगों के सक्रिय सहयोग व योगदान प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम स्थानीय लोगों के अस्तित्व को स्वीकार करना व उनसे मेल-जोल होना जरूरी है। उनकी विभिन्न गतिविधियों में भाग लेकर उन्हें प्रोत्साहित कर उनमें विश्वास की भावना पैदा की जानी चाहिए। परस्पर विचार-विमर्श व जानकारी के आदान-प्रदान से जहाँ लोगों की भावना का पता चलता है, वहीं स्थानीय समस्याओं, सम्भावनाओं व विभिन्न संसाधनों की समझ बनाने में भी सहायता मिलती है। अनुभवों व सुझावों के आदान-प्रदान से तथा आम सहमति से निर्णय लेने की क्षमता पैदा हो सकती है। सहभागिता की भावना एक व्यक्ति में धीरे-धीरे जड़ पकड़ती है तथा वह धीरे-धीरे ही एक समूह से जुड़ता है और उसमें सहभागिता जैसे विचार का निर्माण होता है। यह कैसे होता है, इसके विभिन्न चरण निम्नवत है:

सहभागिता के चरण

1. लोगों में तथा विकास कार्यकर्ता में खुलापन लाना, ताकि वे बदलाव को स्वीकार कर सकें।

2. निर्माण अवस्था, जहाँ स्थानीय लोग तथा विकास कार्यकर्ता साथ बैठकर स्थिति, परिस्थिति के अनुरूप विचार-विमर्श द्वारा विकास के बारे में सोचना प्रारम्भ कर दें।

3. क्रियात्मक अवस्था जहाँ लोग अपनी योजना खुद बनाते हैं। विकास कार्यकर्ता प्रेरित करते हैं, ताकि लोग योजनाओं को ठीक क्रियान्वयन में लेकर आयें।

सहभागिता के लाभ

1. सहभागिता समूह भावना व संगठन निर्माण में सहायक होती है।

2. विभिन्न कार्यों की उपयोगिता व आवश्यकता निर्धारण में सन्तुलित सोच पैदा करती है।

3. कम लागत में कार्य पूर्ण हो जाता है।

4. लोगों की जिम्मेदारी की भावना उत्पन्न होती है।

5. सहभागिता से किये गए कार्य सही तथा स्पष्ट होते हैं।

6.लोगों के स्थानीय ज्ञान एवं अनुभवों का उपयोग सुनिश्चित होता है।

7. सामूहिक व बढ़ी हुई जागरूकता, विकास कार्यों को निरन्तरता तथा सुनिश्चितता प्रदान करती हैं।

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