वन विविधता
पूरा भारत 10 पारिस्थितिकीय जैव-विविधता क्षेत्रों में बँटा हुआ है। पिथौरागढ़ व चम्पावत जिले पश्चिमी हिमालय के पारिस्थितिकी क्षेत्र में शामिल हैं। यह क्षेत्र नेपाल के पश्चिम में काली नदी के किनारे-किनारे पिथौरागढ़-चम्पावत से जम्मू कश्मीर तक फैला हुआ है। 1960 में सामरिक महत्व के कारण अल्मोड़ा जिले की नेपाल व चीन की सीमा से लगी तहसीलों को मिलाकर बनाया गया पिथौरागढ़ जिला, 1997 में पिथौरागढ़ एवं चम्पावत जिले में विभाजित कर दिया गया।
इन दो जिलों के कुल 8881 वर्ग किमी क्षेत्र में आरक्षित वन (1377.98 वर्ग किमी), सिविल एवं सोयम वन (831.47 वर्ग किमी), पंचायती वन (1092.98 वर्ग किमी) तथा नगर पालिका वन 1.07 वर्ग किलोमीटर हैं। कुल वन 3303.50 वर्ग किमी में हैं जबकि प्रति व्यक्ति वन क्षेत्र 4810 हेक्टेयर है। कुल भौगोलिक क्षेत्र के सापेक्ष वन क्षेत्र का प्रतिशत 37.30 है।
पूरा पिथौरागढ़-चम्पावत काली नदी के जलागम क्षेत्र में स्थित है। इस जलागम की मुख्य बर्फानी नदियाँ कुटी, काली, धौली, गोरी, रामगंगा एवं सरयू हैं। कई नदियाँ जंगलों के भूमिगत जलाशयों से निकलती हैं। इनमें मुख्य लधिया, पनार, लोहावती, चर्मागाड़ आदि हैं। इनमें से केवल पनार नदी ऐसी है जो सरयू के जलागम क्षेत्र में है। इन जिलों के मुख्य छीने कनालीछीना, बूंगाछीना, लिपू लेख, शामा, राईंआगर, खेतीखान, कोटमन्या, बनलेख, गंगोलीहाट, धूनाघाट, घोरपाटा व कालामुनि आदि हैं।
यदि इन दोनों जिलों की भूमण्डलीय स्थिति का अवलोकन किया जाए तो यह उत्तराखण्ड के बिल्कुल पूर्वी किनारे पर स्थित हैं। इन जिलों के रहन-सहन, कृषि, संस्कृति, बोली, रीति-रिवाज, खान-पान, देवी-देवता, जलवायु, भूमि बनावट, वनस्पति व जीव जन्तुओं में नेपाली मिजाज का समावेश पाया जाता है।
बंगाल की खाड़ी से चलने वाली मानसूनी हवाएँ चम्पावत-पिथौरागढ़ जिलों में पहले पहुँच जाती हैं। इसलिये ये जिले देहरादून तथा उत्तरकाशी के मुकाबले अधिक गरम व नम हैं। वनस्पति के पैदा होने, वितरण, प्रकार, मिश्रण व घनत्व पर गर्मी, नमी व मिट्टी के मिले-जुले प्रतिफल का अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। गर्मी व नमी की तीव्रता, भू-आकृति, समुद्र से ऊँचाई तथा हिमालय में स्थिति (आन्तरिक अथवा वाह्य हिमालय में) पर भी वनस्पति का वितरण निर्भर करता है। इस क्षेत्र में मुख्य तौर से लगभग 1000 मीटर से कम ऊँचाई वाले क्षेत्र, लधिया, पनार, रामगंगा, सूखीढांग, सरयू, लोहावती व काली नदी की घाटी का निचला भाग आता है। इस क्षेत्र में सूखीढांग की धार से बाहर की ओर दक्षिणी भाग में तो वर्षा बहुत अधिक होती है परन्तु अन्दर की घाटियों में अपेक्षाकृत कम। सूखीढांग से दक्षिण की ओर मुख्य प्रजाति साल पाई जाती है। मनुष्य एक समाज में रहते हुए अपना आर्थिक, सांस्कृतिक एवं प्राकृतिक विकास करता है। स्थान एवं पारिस्थितिकी के अनुसार उसके अलग-अलग समुदाय बन जाते हैं। ठीक उसी प्रकार वनस्पति भी स्थान व पारिस्थितिकी की स्थान विशिष्टता के अनुसार अलग-अलग समाज का रूप धारण कर लेती है। इस क्षेत्र में साल अपने समाज के क्रमशः विकास की उत्कर्ष स्थिति पर पहुँचा हुआ है। साल के समाज में अन्य सहयोगी प्रजातियाँ सैन, हरड़, बहेड़ा, अर्जुन, आँवला, अमलतास, जामुन, धौड़ी, डोमसाल, हल्दू, झींगन, भिलावा व रोहिणी आदि हैं।
मुख्य झाड़ियाँ बिन्दा, गंधोला, धौला, साकिना, भाँट आदि। साल वनों में कुछ बेलें भी पाई जाती हैं जैसे पानीबेल, डायोस्कोरिया डेल्टोइडीज, गौज और मालझन आदि हैं। घास में कुमेरिया, गोड़िया आदि पाई जाती हैं। विभिन्न स्थान कारकों के कारण अलग-अलग पर्यावरणीय तंत्रों में अलग-अलग प्रजातियों के समुदाय पाए जाते हैं। यह कारक निम्न प्रकार से उल्लिखित हैं-
I. जलवायु एवं जैव जलवायु
किसी भी स्थान पर जलवायु के विभिन्न तत्वों के मिले-जुले प्रभाव से उत्पन्न क्षेत्रीय एवं सूक्ष्म जलवायु के कारण एक ऐसी एकीकृत जैव जलवायु का निर्माण होता है कि एक विशिष्ट वनस्पति का पर्यावरण तंत्र पनपने लगता है। यह चम्पावत-पिथौरागढ़ जिलों में टनकपुर के पास शारदा टापुओं में खैर, शीशम की बोझियों से लेकर जोहार, दारमा, कुटी, काली घाटी व ग्लेशियल ढलानों में हिमाद्रि वनस्पति के रूप में स्पष्ट दिखता है।
II- भूआकृति
समुद्रतल से ऊँचाई अभिमुख एवं अनावृत्त, ढाल का झुकाव, जलोत्सारण, समुद्र तल से ऊँचाई व ऊपर उल्लिखित तथ्यों का स्पष्ट प्रभाव विभिन्न स्थान कारकों पर पड़ता है। यह वर्षा व बर्फ के रूप में अवपतन तापक्रम, प्रकाश, प्रकाश के विकिरण व ऊष्मा के विकिरण, हवा, आर्द्रता मृदा एवं भूगर्भीय कारकों के रूप में इन जनपदों की वनस्पति के वितरण को प्रभावित करता है। यह अन्तर भाबर-तराई के नधान, बस्तिया, पूर्णागिरी, जड़ियाखाल एवं जगबूड़ा से लेकर बुदी, गर्ब्यांग, छियालेख, गुंजी, कालापानी और नाभिढांग तथा लिपूलेख के अल्पाइन क्षेत्रों की वनस्पति में स्पष्ट देखा जा सकता है।
III- मृदा कारक (भूगर्भीय प्रभाव समेत)
मृदा भी मुख्य कारक है जो जलवायु भूगर्भीय स्थिति, भू-आकृति, जीव मंडल, वनस्पति, जीव जन्तु, मिट्टी में रहने वाले जीव जीवाणु एवं स्थान विशेष की मिट्टी के विकास स्तर के कारण इन जिलों में वनस्पति के विकास को प्रभावित करता है। यह कुटी, नपल्चू, गुंजी व कालापानी के कैल वनों, दारमा घाटी के तानसेन वनों व जोहार घाटी के उतीस वनों में स्पष्ट झलकता है।
IV- ऐतिहासिक एवं जैविक कारक
वन सम्पदा का वितरण केवल वर्तमान जलवायु, प्राकृतिक भूवृत्त एवं मृदा कारकों के आधार पर वर्णित नहीं किया जा सकता है। यह क्षेत्र के भूगर्भीय इतिहास एवं जैविक प्रभावों का परिणाम होता है। महाद्वीपों के खिसकने का सिद्धान्त पादप जातियों एवं प्राणि जातियों के वितरण को स्पष्ट कर सकता है। गुंजी, कालापानी की आधार चट्टानें धीमे-धीमे हिम मलबे, हिमानी अवसाद व व्यपधृष्ट से भर गईं जो कैल व फर के लिये तो उपयुक्त हैं परन्तु देवदार के लिये नहीं। गुंजी व कालापानी के बीच की घाटी व ढाल में यह साफ दिखता है।
जैविक कारकों जैसे वनाग्नि, छत्र कर्तन, स्थान परिवर्ती खेती, पशु चारण, कोपल चारण, शाखाकर्तन, निश्शेष पातन कर वृक्षारोपण, सड़क निर्माण, भूमि क्षरण ने इस जनपद की वनस्पति में बहुत परिवर्तन किया है। सरकार के 1000 मीटर से ऊपर हरे पातन पर प्रतिबन्ध ने जहाँ वनों के घनत्व में बढ़ोत्तरी की है, वहीं चीड़ प्रजाति ने बाँज व साल वनों में आक्रमण भी किया है।
इन दोनों जिलों में कुछ वन प्रजातियाँ बड़ी विशिष्ट हैं। यहाँ की जैव जलवायु इन प्रजातियों के लिये अत्यधिक अनुकूल हो जाती है। फलस्वरूप ये प्रजातियाँ केवल इन्हीं जनपदों में केन्द्रित होकर उगती हैं। कोनीफेरी कुल के तानसेन पूरे उत्तराखण्ड में ही नहीं पूरे भारत में केवल बर्फानी धौली नदी की दारमा घाटी में हिरी गोमरी, ज्यूंतीगाड़, डुक, सोबला के वनों में ही 2400 से 3100 मीटर की ऊँचाई में फर, कैल, खर्सू, बांज, बुरांश, काजल, थुनेर, भोजपत्र के मिश्रण में बड़ी शान से अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं।
एक और मजेदार प्रजाति सैपोटेसी कुल की च्यूरा है। यह दोनों जिलों की गरम घाटियों में बड़ी मस्ती से बिखरे रूप में उगता है। यह एक बहुत बड़ा एवं बहु उपयोगी पर्णपाती वृक्ष है। इसका फल खाने के और बीज घी बनाने के काम आता है। इससे मोमबत्ती भी बनाई जाती है। घी सिरदर्द और रूमैटिक दर्द में मालिश करने के काम आता है। तेल का केक और पल्प खाने और फल जूस या गुड़ बनाने के काम आता है। पश्चिमी हिमालय में कहीं भी इसके वृक्ष नहीं मिलते हैं। बुन्देलखण्ड में इसका भाई महुआ होता है।
लेग्यूमिनेसी परिवार की यह एक मध्यम ऊँचाई की गुणी वृक्ष प्रजाति है। यह चम्पावत के भाबर क्षेत्र के वनों में 600 मीटर की ऊँचाई तक विजय साल नाम से बिखरे रूप में फैली है। इसकी छाल छीलने पर गुलाबी धारियों से एक लाल गोंद सा निकलता है। इस प्रजाति के विभिन्न भाग अस्थमा, हैजा, मधुमेह, डायरिया, दाँत दर्द, प्रसवोपरान्त टॉनिक, मूत्र रोग, चर्मरोग, छाती दर्द आदि में दवा के काम आते हैं। यह प्रजाति चम्पावत जिले के अतिरिक्त भारत में कहीं नहीं पाई जाती है।
यहाँ विविध वन-वनस्पतियाँ तराई से हिमाद्रि शिखर तक फैली हुई हैं। एच.जी. चैम्पियन एवं एस.के. सेठ द्वारा 1968 में पूरे हिन्दुस्तान की वनस्पतियों का वर्गीकरण किया गया। उसको यदि इन जिलों में समझने का प्रयास किया जाय तो निम्न प्रकार से वनों को वर्गीकृत किया जा सकता है:-
मुख्य वर्ग 3- उष्ण देशीय आर्द्र पर्णपाती वन
1. आर्द्र शिवालिक साल वन
इस प्रकार के वन नहान बालुकाश्म की रचनाओं पर हल्की मिट्टी के क्षेत्रों पर उपलब्ध हैं। इसमें साल मुख्य प्रजाति है। पुनर्जनन भी सन्तोषजनक है। इन समूहों के प्रतीक कोटकेन्द्री, आमखड़क, छीड़ा तथा ओखलढूंगा के कुछ वन हैं। अच्छी श्रेणी के साल वन शिवालिक रचनाओं में इस जनपद के दक्षिण पूर्व में उपलब्ध हैं। साल की संकीर्ण पट्टियाँ मुख्य नदियों जैसे काली, लधिया, सरयू, रामगंगा व गोरी नदियों की घाटियों की स्फटिकाश्म रचनाओं पर भी उपलब्ध हैं। इस प्रकार के वन 300 से 1100 मीटर की ऊँचाई पर स्थित हैं जो बिखरे एवं क्षुद्र रूप में 1500 मीटर तक भी पाए जाते हैं। ये वन मुख्य घाटियों में काफी दूर तक चले गए हैं जिनके अन्तिम छोर लधिया घाटी में ढोलीगाँव, रामगंगा घाटी में नौलड़ा, गोरी घाटी में पैय्या, डफिंयाधूरा व पूर्वी गन्धौरा के वन हैं। जिले के दक्षिण में साल 1350 मीटर तक पाया जाता है जबकि उत्तर में यह केवल 900 मीटर की ऊँचाई तक ही पाया जाता है। यह कभी-कभी चीड़ वनों में भी निम्न रोह में पाया जाता है। बहुत से वनों में अग्नि घटनाओं के कारण कुछ क्षेत्रों में चीड़ भी साल को हटा रहा है, जैसे पश्चिमी पालविलोन में। सबसे अच्छा साल कोटकेन्द्री में पाया जाता है। साल का प्राकृतिक पुनर्जनन भी इस क्षेत्र में अच्छा है।
वनस्पति की संरचना
शीर्ष वितान- साल, सैन, बाकली, हल्दू, बहेड़ा, उत्तरी अभिमुख व ऊँचाई वाले स्थानों पर चीड़ तथा झींगन।
मध्य वितान- साँदन, चीला, कचनार, रोहिणी, आँवला, जामुन आदि।
अधोवितान- बिन्दा, गन्धोला, साकीना, धौला, तुंगला, किल्मोड़ा आदि।
घास- कुमेरिया, गोड़िया आदि।
लताएँ- मालझन, गौज।
2. आर्द्र मिश्रित पर्णपाती वन
ऐसे वन आर्द्र साल के क्षेत्र में 1200 मीटर तक पाए जाते हैं। इन स्थानों पर चिकनी मिट्टी पाई जाती है जो ट्रैप शैल, शिलिका, स्फटिकाश्म, जम्ब-शिला शैलौं से बनी होती है। प्रतिकूल परिस्थितियों में साल अपने सहचारियों को हटाकर उनके स्थान पर नहीं उग सकता। यह वन कोटकेन्द्री, आमखडक, स्याला, मथियाबाँज, टाड तथा पश्चिमी पालविलौन के निचले सिरों में पाए जाते हैं। इन वनों के प्रतीक कोटकेन्द्री, उपराकोट व छीड़ा में हैं।
वनस्पति संरचना
शीर्ष वितान- सिरस, हल्दू, तुन, सैन, बहेड़ा, खरपट आदि।
मध्य वितान- रोहिणी, साँदन, आँवला आदि।
अधोवितान- बासिंगा, भाँट, बिन्दा आदि।
लताएँ- मालझन
मुख्य वर्ग 5 उष्णदेशीय शुष्क पर्णपाती वन
3. उत्तरी शुष्क मिश्रित पतझड़ वन
जिन स्थानों पर भू-भाग एवं मिट्टी शुष्क होती है वहाँ के वनों के प्रकार भी आर्द्र मिश्रित पतझड़ वनों से भिन्न हो जाते हैं। इस प्रकार के वन शुष्क मिट्टी एवं विगोपित शिलाओं के क्षेत्रों में मिलते हैं एवं शिवालिक चीड़ में मिल जाते हैं। इस प्रकार के प्रतीक उपराकोट व आमखड़क वनों में हैं। यह बाह्य हिमालय के 1250 मीटर तथा दक्षिण अभिमुखों तथा इससे भी अधिक ऊँचाई पर पाए जाते हैं।
वनस्पति संरचना
शीर्ष वितान- बाकली, सैन/असना, बहेड़ा, खरपट आदि।
मध्य वितान- कचनार, पूला, रोहिणी, सांदन, आँवला, चमरोड़, कुर्रा आदि।
अधोवितान- धौला, सकीना, बासिंगा, भाँट आदि।घास- भाँवर, कुमेरिया आदि।
लताएँ- मालझन।
4. खैर-शीशम वन- इस प्रकार के वन उन क्षेत्रों में पाए जाते हैं जहाँ मिट्टी का प्रभाव जलवायु की अपेक्षा कहीं अधिक होता है। थोड़ी गहराई पर ही पानी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हो जाता है, हालांकि ऊपर की मिट्टी गर्मियों में काफी शुष्क एवं सूक्ष्म छिद्रयुक्त होती है। मिट्टी अस्थाई व कभी भी पानी से बह सकती है। ऐसे वन लधिया एवं अन्य सहायक नदियों के किनारे कछार भूमि में पाए जाते हैं और मुख्यतः खैर व शीशम मिश्रित होते हैं। कोटकेन्द्री व उपराकोट में इसके उदाहरण हैं। कोटकेन्द्री वन में कूंज का शुद्ध समूह भी इसी प्रकार में सम्मिलित है। नदी के किनारे पंचेश्वर घाट व धारचूला तक बिखरे हुए शीशम के वृक्ष भी मिलते हैं।
वनस्पति संरचना
शीर्ष वितान- शीशम, खैर, कंजू, सैजन
मध्य वितान- प्रायः अनुपस्थित।
अधोवितान- बासिंगा, काला बासिंगा आदि।
घास- काँस
मुख्य वर्ग 9- उपोष्ण चीड़ वन
5. हिमालय के उपोष्ण चीड़ वन
इन जिलों के अधिकांश भाग इस प्रकार के वनों से आच्छादित हैं। यह मुख्यतः 750 मीटर से 2000 मीटर तक की ऊँचाई पर पाए जाते हैं। बिखरे रूप में यह प्रजाति 400 मीटर तथा ऊपरी सीमा में 2300 मीटर तक भी पाई जाती है। ऊँचाइयों की इन सीमाओं में, आर्द्रता व अभिमुखों का चीड़ के वितरण पर काफी प्रभाव पड़ता है। उत्तरी अभिमुखों पर यह नीचे की ओर तथा दक्षिणी अभिमुखों पर ऊपर की ओर बढ़ता है। नालों तथा शीतल आर्द्रता वाले स्थानों में चीड़ के स्थान पर चौड़ी पत्तियों वाली प्रजातियाँ पाई जाती हैं। निचली सीमा पर चीड़ साल के वनों में तथा ऊपरी सीमा में बाँज के वनों में प्रवेश कर जाता है। न्यून वर्षा व प्रतिकूल परिस्थितियों में यह निम्नतलीय गुल्म व शुष्क-रोधी प्रजातियों यथा, रामबांस, ओपन्शिया, यूफोर्विया आदि द्वारा प्रतिस्थापित हो जाता है।
चीड़ प्रजाति से लगभग समस्त भौमिकीय रचिताओं पर पाई जाती है, परन्तु इसकी उत्तम वृद्धि पट्टिताश्मीय तथा स्फटिकाश्मीय मिट्टी पर होती है। चूने के पत्थर वाली रचनाओं पर वृक्ष कम ऊँचाई, कम गुणता श्रेणी तथा कम घनत्व के पाए जाते हैं।
चीड़ के वितरण पर प्रभाव डालने वाले अन्य कारकों में अग्नि, चारण व शाखाकर्तन मुख्य हैं। बाँज के वनों में निरंकुश शाखाकर्तन से बाँज लुप्त हो जाता है एवं उसका स्थान चीड़ ले लेता है।
इस प्रकार के वनों में वर्षा का वितरण सामान्यतः 1200 मिमी से 2000 मिमी तक होता है। गर्मियों के शुष्क महीनों में तापक्रम बहुत अधिक हो जाता है। जाड़ों में किसी वर्ष वनों के ऊपरी क्षेत्र में हिमपात भी होता है किन्तु बर्फ अधिक दिनों तक नहीं रुकती है।
चीड़ की गुण श्रेणी ढाल की निचली सीमा धारों की अपेक्षा अच्छी पाई जाती है। उत्तम चीड़ 750 से 2000 मीटर के मध्य पाया जाता है। सबसे अच्छे चीड़ वन लधिया घाटी में पाए जाते हैं।
चीड़ वनों के प्रबन्ध को अत्यधिक प्रभावित करने वाले महत्त्वपूर्ण कारक वृक्षों में पेंच का होना है। सौभाग्यवश पेंच 10 प्रतिशत से अधिक नहीं पाया जाता है और कोई भी चीड़ क्षेत्र पेंच के कारण उपयोग की दृष्टि से असाध्य नहीं है।
सामान्यतः चीड़ शुद्ध रूप में पाया जाता है तथा सहचारी प्रजातियाँ नालों या वन क्षेत्र की ऊपरी अथवा निचली सीमाओं पर पाई जाती हैं। विभिन्न जैव कारकों के प्रभाव से चीड़ बाँज क्षेत्रों में बढ़ रहा है। चीड़ के युवा वर्ग के वृक्षों की कमी है जबकि प्रौढ़ आयु का चीड़ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। कम व्यास के वृक्षों में भी छाल भूरी हो गई है जो अधिकांशतः अधिक आयुवर्ग के हैं।
वनस्पति संरचना
शीर्ष वितान- चीड़
मध्य वितान- बाँज, फल्यांट, बुरांश, अंयार, मेहल, काफल, उतीस, तिमला, गढ़महुवा, कौला आदि।
अधोवितान- साकीना, किल्मोड़ा, घिंघारू, मकौया, लोध, घड़ी, तुमरिया, पडेरा, हिसालू, तितमुइया, धौला, काला हिसालू आदि।
झाड़ियाँ- पाती, चमलाई, कुरखा आदि।
घासें- विछरला, कुमेरिया, इयेलिलिया मौलिस, एग्रोस्टिस, आल्वा, कौलोवोडियम पार्किलोरम आदि।
लताएँ- कुंज, मिथियाड़ी आदि।
6. हिमालय के उपोष्णीय रोह गुल्म वन
सामान्यतः इस प्रकार के वन शिवालिक चीड़ वनों में पाए जाते हैं जिनका विस्तार हिमालय के चीड़ वनों के क्षेत्र तक है एवं निचली सीमा में मिश्रित पतझड़ वनों तक जाते हैं। अत्यधिक शुष्क एवं उथली मिट्टी होने के कारण ऊपरी वितान या तो नष्ट हो चुका है अथवा पनप नहीं रहा है एवं भूतल पर क्षुद्र रोह रचनाएँ व्याप्त हैं। आग लगना, मिट्टी बह जाना एवं अत्यधिक चराई के कारण इन वनों की अवकृष्ट स्थिति बिखरी हुई चकत्तियों के रूप में है। 1500 मीटर से अधिक ऊँचाई एवं उत्तरी अभिमुखों पर यह वन नहीं पाए जाते हैं। करौंदा, विलायती मेहन्दी एवं तुंगला नामक क्षुद्र रोह इन वनों में मिलते हैं। ऐसे क्षेत्र टाँड, पश्चिमी पालविलौन एवं डुँगराबाँकू में हैं।
मुख्य वर्ग-12: हिमालय के आर्द्र शीतोष्ण वन
7. बाँज वन
बाँज सबसे अधिक पाई जाने वाली प्रजाति है जो दक्षिणी अभिमुखों पर 1800 से 2100 मीटर तक, उत्तरी अभिमुखों पर 1500 से 1800 मीटर तक पाया जाता है। श्रेणी I के वनों के अधिकांश भाग में ऐसे वन व्याप्त हैं एवं श्रेणी II के क्षेत्रों में यह कुछ ही क्षेत्रों में केवल चीड़ क्षेत्रों में ऊपरी सीमा पर ही उपस्थित हैं। बाँज वनों पर भूगर्भीय रचनाओं का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता है क्योंकि इन वनों से अपनी स्वयं की मिट्टी बनती है तथा नमीयुक्त मिट्टी के फलस्वरूप मिट्टी गहरी तथा उपजाऊ होती है। चूने के पत्थर से बनने वाली मिट्टी तथा पट्टिताश्म व स्फटिकाश्म से बनने वाली बलुई मिट्टी पर स्थित बाँज के वन आग, चरान एवं चुगान से क्षति होने पर शिलिका, सुभ्राजा तथा शैल से बनी मिट्टी पर स्थित वनों की अपेक्षा अधिक प्रभावित होते हैं और बाँज प्रजाति लुप्त हो जाती है।
1791 से 1815 तक गोरखा शासन काल में आग व अन्य कारणों से वनों का बहुत विनाश हुआ है। 1815 के बाद अंग्रेजों का शासन स्थापित होने पर उन्होंने अपने चहेतों (अंग्रेज व अन्य) को फ्री सैम्पल इस्टेट के रूप में जंगल व जमीनें बाँटी और जंगलों का निःशेष पातन कर आलू, फल व चाय की खेती कई गई। जंगलों का जबर्दस्त विनाश हुआ। कोयला बनाने तथा आजादी के बाद सड़क, पर्यटन विकास, फल पट्टी आदि के नाम पर भी बाँज वनों का बहुत विनाश हुआ है।
बाँज वनों का जैविक कारकों द्वारा भी विनाश हुआ है। आबादी के क्षेत्रों के निकट निरंकुश शाखाकर्तन व ईंधन की माँग पूर्ति हेतु बाँज के वन क्षुद्र रोह वन जैसे हो गए हैं। चारे के अतिरिक्त पत्तियाँ आलू के खेतों में खाद का भी काम करती हैं। बाँज के वन स्वयं ज्वलनशील नहीं हैं परन्तु नीचे के चीड़ क्षेत्रों से आई हुई अग्नि से इन्हें क्षति पहुँचती है। उदाहरणतः पूर्वी एवं पश्चिमी पालबिलौन, पश्चिमी क्रान्तेश्वर, स्योंतल, मोरनौला व थली के वनों में प्रायः इस प्रकार की स्थिति है। पुनर्जनन का अभाव प्रायः बना रहता है।
इन वनों की गुण श्रेणी निम्न है व तने टेढ़े-मेढ़े एवं छोटे हैं। परन्तु पूर्वी गंधौरा, डफिंयाधूरा व मजथाम खण्ड के वन काफी घने हैं व वितान की ऊँचाई लगभग 18 मीटर है। आर्द्रता वाले स्थानों पर बाँज के सहचारी वृक्ष भी मुख्य वितान पर ही उपलब्ध हैं जबकि शुष्क क्षेत्रों में यह सहचारी वृक्ष लगभग नगण्य हैं। नालों में बाँज के साथ उतीस भी पाया जाता है। बाँज के वृक्षों पर झूला मिलता है। ठण्डे स्थानों पर गोल रिंगाल भी मिलता है। बाँज के साथ-साथ ओक की पाई जाने वाली दूसरी प्रजातियाँ रियाज, फल्यांट और ऊपरी भागों में तिलौंज हैं।
बाँज के साथ 1800 से 2300 मीटर तक की ऊँचाई पर रियाँज पाया जाता है। यह मायापाटा, पश्चिमी गन्धौरा, देवचूला, जड़पानी, पूर्वी क्रान्तेश्वर व स्योंतल के वनों में पर्याप्त रूप से उपलब्ध है। इसका पुनर्जनन भी अन्य ओक प्रजातियों की अपेक्षा अच्छा है। बाँज का दूसरा प्रमुख सहचारी फल्याँट है जो 1200 से 1700 मीटर की ऊँचाई तक पाया जाता है। यह बमनढौन क्षेत्र में, थल के आस-पास और रामगंगा के किनारे व घोरपाटा रोड के साथ-साथ काफी मात्रा में उपलब्ध है। परन्तु अत्यधिक शाखाकर्तन से इसने अवकृष्ट रूप धारण कर लिया है। यह नमी वाले स्थानों पर अधिकतर पाया जाता है। इसके प्रमुख सहचारी लौरेसी कुल की मैकाइलस प्रजातियाँ हैं।
वनस्पति संरचना
अच्छे वनों में शीर्ष वितान- बाँज, फल्यांट, रियाँज, तिलौंज, उतीस, चमखड़िक, मान्दरा, दरली, पांगर, कौला, खागसा, तुन
मध्य वितान- बुराँश, अयांर, काठ कौं कौं, कन्देरू, कठभोज, काफल।
अधोवितान- किल्मोड़ा, घिनु, सकीना, हिसालू, पिस्सूमार, घड़ी, घिंगाय, घुगताई, रिंगाल।
लताएँ- मिठियारी, कुन्जा, कुकुरदड़ा, वाइटिस प्रजाति।
आबादी के निकट वाले वनों में
शीर्ष वितान- बाँज, बुरांश, अयांर, दसमिला, मेहर, भमोर, काफल।अधो वितान- किल्मोड़ा, सकीना, घिनु, चमलाई पिनुली, पिडारा, हिसालू भैंकल, घिगारू शाक- कुरखा।
लताएँ- कुन्जा, लडुली।
8. मोरू वन
मोरू के वन 2100 से 2750 मीटर की ऊँचाई पर थली, मोरनौला, थलकेदार, ध्वज और सौरलेख में उपलब्ध हैं। अधिक ऊँचाई पर बाँज वनों के बाद सीधे ही खरसू आ जाते हैं जबकि तिलौंज बिना अपना कोई साम्राज्य बनाए केवल आर्द्र स्थलों पर ही सीमित रहता है। अनुकूल वातावरण में इसकी ऊँचाई 30 मीटर तक पाई जाती है और इसका तना भी सीधा रहता है। मोरू के सहचारी भी वही हैं जो अच्छे बाँज वनों में मिलते हैं। किन्तु चमर महुआ, पांगर, भोटिया बादाम एवं एसर प्रजाति तिलौंज वनों में अक्सर पाई जाती है जबकि बाँज वनों में यह लगभग अनुपस्थित हैं। यहाँ ध्यान देने योग्य है कि उत्तरी वनों से दूर थली क्षेत्र में 2070 से 2200 मीटर की ऊँचाई पर तिलौंज के साथ रागा भी उपलब्ध है।
वनस्पति संरचना
शीर्ष वितान- मोरू/तिलौंज, बाँज, रागा, चमरमहुवा पांगर, काजल व टिरू।
मध्य वितान- कन्दरू/हौली, अयांर, चोपर कठभोज, मेहल, कौला तथा कौला भोटिया बादाम, बुरांस, चिमुला, अंगू, थुनेर, गुईयाँ, रिंगाल।
अधोवितान- हिंसालू, किल्मोड़ा, जानू, कुन्ज, पाषाण भेद, काला हिंसालू।
लताएँ- कोनियावाली, हेड्रा नेपालैन्सिस।
9. क्षुद्र रोह
इस प्रकार के वन स्थानीय व गाँवों के आस-पास हैं और सामान्यतः आरक्षित वनों के बीच में बहुत कम पाए जाते हैं। आबादी के समीप निरंकुश शाखा कर्तन व चराई से यह वन काफी मात्रा में क्षतिग्रस्त होकर केवल झाड़ीनुमा रह गए हैं। बुराँश भी इन क्षेत्रों में बिल्कुल झाड़ी जैसा हो गया है। इन वनों में किलमोड़ा (बरवेरिस प्रजाति), घिंगारू, भेकल आदि की झाड़ी पाई जाती है तथा कहीं-कहीं मैराला (स्पाईरिआ प्रजाति), सकीना, चिमलिया आदि। जहाँ चारण कम है, सूक्ष्म घास भी जमीन पर पाई जाती है। इन क्षेत्रों के उदाहरण मोरनौला, पूर्वी पालविलौन व पश्चिमी क्रान्तेश्वर, थलकेदार, सौरलेख तथा लोड़ी के वन हैं। गर्म स्थानों पर क्षुद्र ओक के वृक्षों का चीड़ द्वारा भी विस्थापन हो रहा है, जैसा थली, ढोलीगाँव एवं लोड़ी वनों में साफ दिखता है।
10. आर्द्र देवदार वन
देवदार इन जिलों की मूल प्रजाति नहीं है परन्तु पुराने ओक वन क्षेत्र में वृक्षारोपण के रूप में स्थाई हो गए हैं। यह छोटी-छोटी वनियों में 1370 से 2050 मीटर ऊँचाई तक पाए जाते हैं। अधिकांश दक्षिण अभिमुखों की सस्य निम्न श्रेणी की है परन्तु उत्तरी अभिमुखों पर अच्छी वनियाँ हैं। पश्चिमी क्रान्तेश्वर, घटकू, वनी, मोरनौला वनों में स्थापित होकर कहीं-कहीं प्राकृतिक रूप से पुनरुत्पादित भी हो रहे हैं।
प्रारम्भ में चन्द राजाओं ने देवदार, मन्दिरों के समीप लगाया जो बाद में रोपवनियों के रूप में लगाया गया। इनमें बाद में प्राकृतिक पुनरुत्पादन होने लगा। लगभग समस्त वनियों के समीप मन्दिर बने हुए हैं और उनके समीप के पेड़, जो बहुत पुराने हैं, पवित्र समझे जाते हैं एवं कुछ वनियों में गाँव वाले एक वृक्ष नहीं काटते हैं। इस प्रकार चन्द राजा बड़े जबर्दस्त वनविद थे।
कुछ देवदार वनियों में देवदार के प्रवरणवन हैं जबकि कुछ अन्य में समान आयु के वन हैं। लगभग एक चौथाई वनी का क्षेत्र मध्य आयु के वृक्षों वाला है। शेष प्रौढ़ एवं अतिप्रौढ़ वृक्षों से घिरा हुआ है। देवदार की तरुण सस्य कुछ ही वनियों में उपलब्ध है। उपयुक्त स्थानों में देवदार पुनर्जनन अच्छा है तथा आस-पास के क्षेत्रों में भी बढ़ रहा है। घनत्व भी सामान्य रूप से बहुत अच्छा है। निम्नरोह कम है परन्तु कुछ प्रजातियाँ जैसे गरू व घड़ी सामान्य रूप से पाई जाती हैं। खुले क्षेत्रों में एवं दक्षिण अभिमुखों पर चीड़, देवदार वनियों में घुस रहा है। विशेषकर, खिलपती, सुई, ढोलीगाँव, मोरनौला, क्रान्तेश्वर व तिलौन के कुछ क्षेत्रों में यह स्थिति अधिक है। इन स्थानों की सामान्य झाड़ियाँ किल्मोड़ा, हिसालू, घिंगारू, घर्रा, मेहल तथा कुन्जा है।
11. आर्द्र समशीतोष्ण पर्णपाती वन
इस प्रकार के वन गहरी एवं आर्द्र मिट्टी वाले क्षेत्रों में विशेषकर उत्तरी अभिमुखों पर मिलते हैं। यह 1800 से 2750 मीटर तक की ऊँचाई पर पाए जाते हैं। यह पतझड़ वन हैं जिनमें अत्यधिक मोटे पेड़ पाए जाते हैं एवं प्रजातियाँ मिश्रित अथवा शुद्ध रूप से बड़े समूहों में पाई जाती हैं। यह आर्द्र समशीतोष्ण वनों में केवल निचाई के क्षेत्रों को छोड़कर सभी जगह फैले हैं।
वनस्पति संरचना
शीर्ष वितान- पांगर, काँजल, टिरू, चमखड़िक, चमड़महुआ, अंगू, कठभोज, अखरोट, खरसू आदि।
अधोवितान- देवरिंगाल, थामरिंगाल, तेलानू, काला हिसालू, हिसालू, किलमोड़ा, भिलोका, जिमला।
घासें/क्षुपा- Paeoria Emodi, Impatiens spp. Lilium Giganteum, अतीस आदि।
लताएँ- कोनियावाली, कदुला आदि।
12. निम्नस्तरीय कैल वन
कैल बहुत थोड़े क्षेत्र में हीरीगुमरी, ज्योतिगाड़, सोबला, बमनढौन व चण्डाक के वनों में उपलब्ध है। यह शंकुधारी क्षेत्रों में 1800 से 3000 मीटर ऊँचाई तक पाया जाता है। सस्य शुद्ध नहीं है परन्तु बाँज व खर्सू से मिली हुई है एवं शुष्क स्थानों पर व्याप्त हैं।
13. खर्सू वन
खर्सू 2500 मीटर से 3300 मीटर ऊँचाई तक विशेषकर, दक्षिणी अभिमुखों पर पाया जाता है। आन्तरिक हिमालय के वनों की यह विशेष प्रवृत्ति है कि यहाँ ऊँचाई बढ़ने से शंकुधारी वनों के स्थान पर खर्सू वन आ जाते हैं। खर्सू बहुत अधिक मात्रा में एवं चीड़ की तरह से शुद्ध रूप में पाया जाता है। पेड़ों पर गहरे हरे व भूरे रंग का झूला भी पाया जाता है। दूसरा वृक्ष वितान लगभग अनुपस्थित है परन्तु रिंगाल प्रचुर मात्रा में अस्कोट क्षेत्र के इन वनों में पाया जाता है। इसके पश्चात निम्न रोह में पतझड़ झाड़ियाँ, घास फर्न आदि पाई जाती हैं। फर के वृक्ष भी बिखरे रूप में मिलते हैं किन्तु कैल व रई बहुत कम हैं। ऊँचाई की ओर ये वन उप हिमाद्रि फर वर्च वनों से मिलते हैं एवं कहीं-कहीं इनकी ऊपरी सीमा सीधे ही हिमाद्रि चारण भूमि से मिलती है।
वनस्पति संरचना
शीर्ष वितान- खर्सू, कठभोज, मोल, मोरू, काँजल, फर।
मध्य वितान- कुशा बुराँश, चिमुला, भोजपत्र, देवरिंगाल, थाम रिंगाला।
अधोवितान- दरकुंजा, कुन्जा, तेलानू, रुईस, जिमला, गढ़बैस।
क्षुपा/घास- जंगली चेरी, गुलवनप्सा, अजेली, फर्न, अल्मोड़ा, सालम आदि।
लताएँ- कोनियावाली, कण्डार।
14. पश्चिमी हिमालय के ऊपरी बाँज/फर वन
फर की ऊँचाई की सीमा विशेषकर उत्तरी एवं ठण्डे अभिमुखों पर 2600 से 3400 मीटर तक है। इन्हीं ऊँचाइयों के गर्म स्थानों पर फर का स्थान खर्सू ले लेता है। इस प्रकार के वन कम वर्षा वाले स्थानों में पाए जाते हैं। बर्फ पिघलने से इन स्थानों में आर्द्रता रहती है। यह दो वितान के वन हैं जहाँ ऊपरी वितान में शुद्ध रूप में अथवा समूहों में फर पाया जाता है एवं निचले वितान में खर्सू एवं अन्य पतझड़ वृक्ष होते हैं। धरातल पर क्षुद्र रोह भी पाया जाता है एवं गर्मियों में बहुत सी जड़ी-बूटी आदि वनस्पति फैली रहती है। रिंगाल प्रचुर मात्रा में है। लताए कम हैं किन्तु झूला प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। अग्नि की घटनाएँ बहुत कम होती है परन्तु अग्नि से प्रभावित क्षेत्र में रिंगाल प्रचुर मात्रा में है। इस प्रकार के वन दारमा में डुक, सोबला, हीरीगुमरी व ज्योतिगाड़ वनों में व्याप्त हैं।
वनस्पति संरचना
शीर्ष वितान- फर, रई, बहुत कम।
मध्य वितान- खर्सू, मोरू, मोल, बुरांश, चिमुला, अयांर, सौरबस फोलियोसा।
अधोवितान- झुमरा, थामरिंगाल, कुन्ज, तेलानू, कसमोठ, जिमला, दसनी।
घास- फैस्टुका प्रजाति, पोवा प्रजाति लौलियम प्रजाति।
लताएँ- लदुली, वनी, मिठिआरी, कुकुरदड़ा, कौनियाबाली आदि।
पूर्वी हिमालय आर्द्र समशीतोष्ण वन
15. पूर्वी हिमालय के मिश्रित शंकुधारी वनों की पश्चिमी सीमा (तानसेन वन)
इस प्रकार के वन डुक, सोबला, हीरीगुमरी और ज्योतिगाड़ खण्डों में 2400 से 3100 मीटर ऊँचाई के मध्य पाए जाते हैं। तानसेन पूर्वी हिमालय के आर्द्र शंकुधारी वनों का प्रतीक है। इस प्रकार के वन उसकी पश्चिमी सीमा हैं। ऊँचाइयों पर तानसेन के स्थान पर फर आ गया है। फर व खर्सू के साथ अन्य ओक की प्रजाति क्वैरकस लिनाटा हैं जो कहीं-कहीं पाई जाती हैं। गर्मियों में इन वनों में चारण भी अधिक होता है व कभी-कभी अग्नि की घटना हो जाती है। समस्त क्षेत्र में रिंगाल भी फैला है जिनमें मुख्य देवरिंगाल है। पुनर्जनन असन्तोषजनक है।
वनस्पति संरचना
शीर्ष वितान- तानसेन, फर, कैल।
मध्य वितान- खर्सू, बाँज, मोरू, बुराँश, मोल, काँजल भमोरा, कठकोपकाना, थुनेर, भोजपत्र आदि।
अधोवितान- थामरिंगाल, देवरिंगाल, झुमरा, कुंजा, गुइयाँ, कसमोई, काखरही, जिमला, वाइल्डचेरी, गुलबनप्सा, वैलीरीना वालीचई।
लताएँ- कौनिया वाली, मिठिआरी, लदुली आदि।
16. पर्वतीय बाँस वन
2400 मीटर से अधिक ऊँचाई पर ये बाँस वन ओक व बुराँश के वनों में निम्न वितान के रूप में पाए जाते हैं। यह पूर्वी व पश्चिमी गन्धौरा वनों की ऊपरी सतहों पर तथा डफिंयाधूरा, मजथाम, डुक, सोबला, हीरीगुमरी, ज्योतिगाड़ व रूँगलिंग के वनों में पाए जाते हैं। उन क्षेत्रों में जहाँ ऊपरी वृक्ष वितान अग्नि से या अन्य किसी कुप्रभाव से खण्डित हो जाता है, ये बाँस समस्त भू-भाग पर छा जाते हैं एवं वृक्षों के पुनर्जनन को भी रोक देते हैं। इन बाँसों की ऊँचे क्षेत्रों में पाई जाने वाली मुख्य प्रजातियाँ देवरिंगाल, झुमरा एवं थामरिंगाल हैं। गोलरिंगाल बाँज वनों में व्याप्त हैं परन्तु जैविक दबाव के कारणों से कम मात्रा में मिलता है।
17. हिमालय के समशीतोष्ण चारागाह
आबादी के समीप वाले समशीतोष्ण वनों के अधिकांश ढाल अनुकूल वातावरण के स्थानों पर बार-बार काटे जाने के कारण तथा जलाने से एवं निरन्तर चारण से अवकृष्ट होकर समशीतोष्ण चारागाह के रूप में बदल गए हैं। इनमें सामान्य रूप से पाई जाने वाली घास एग्रोस्टिस प्रजाति, कुमेरिया व क्राईसोपोगौन हैं। डुक ज्योतिगाड़ व हीरीगुमरी के वनों में ऐसे चारागाह हैं।
18. उतीस वन
यह वन उन स्थानों पर पाए जाते हैं जहाँ पानी की मात्रा अधिक है। नई मिट्टी आती रहती है। 1000 मीटर से 3000 मीटर ऊँचाई तक उतीस वन नदी व नालों के किनारों तथा आर्द्र व भू-स्खलन के क्षेत्रों में स्थानीय रूप से पाए जाते हैं। कहीं-कहीं पहाड़ी पीपल, चमरम हुआ पांगर तथा खड़िक भी मिलते हैं। कभी-कभी रिंगाल निम्न रोह के रूप में मिल जाता है। झाड़ियाँ कम हैं। ऐसे वन समस्त क्षेत्र में छोटी-छोटी पट्टियों में केवल नालों के किनारे तक ही सीमित हैं।
मुख्य वर्ग 13- हिमालय के शुष्क शीतोष्ण वन
19. पश्चिमी उच्चस्तरीय शुष्क कैल वन
2006 में अपनी कैलास मानसरोवर यात्रा के दौरान गर्ब्यांग के बाद नपल्च्यू गुंजी कुटी व कालापानी से भी कुछ और आगे पुल तक मैंने देखा कि इस प्रकार के वन कुटी, काली नदी घाटी के इस व उस पार भारत-नेपाल में दोनों ओर फैले हुए हैं।
चूँकि महान भूगर्भवेत्ता हीम तथा गैन्सर ने उत्तराखण्ड को मध्य हिमालयी क्षेत्र में रखा है इसलिये इस प्रकार के वनों को मध्य हिमालयी उच्चस्तरीय शुष्क कैल वन नाम से वर्गीकृत किया जाए तो उचित होगा।
वनस्पति संरचना
3500 मीटर से 4000 मीटर तक गुंजी, कुटी व कालापानी तक। 1. कैल, फर 2. भोजपत्र, चिमला, चूख 3. जुनीपर प्रजाति, इफैड्रा प्रजाति, लौनीसेरा प्रजाति
20. हिपोफी/मिरिकारिया क्षुद्र रोह
इस प्रकार के वन आन्तरिक हिमालय में केवल सोबला, बुद, गर्ब्यांग, नपल्च्यू, गुंजी, कुटी के वनों में ही विद्यमान हैं। इन वनों की ऊँचाई 2400 से 3200 मीटर तक है। मुख्य प्रजाति चुख है जो 3 से 6 मीटर ऊँची, मुख्यतः शुद्ध रूप में पाई जाती है। इसके साथ अन्य प्रजाति वोगचिआ, बोम्बू, जंगली अजवाइन व कहीं-कहीं पर पहाड़ी पीपल भी निम्नतलीय स्थानों पर मिलता है।
मुख्य वर्ग 14. उप हिमाद्रि वन
21. पश्चिमी हिमालय के उप हिमाद्रि वर्च/फर वन
ये वन 3000 मीटर से अधिक ऊँचाई के क्षेत्रों में उत्तरी अभिमुखों पर पाए जाते हैं। इनकी मुख्य प्रजाति मोरिण्डा, वर्च व रोडोडेन्ड्रोन हैं। मोरिण्डा ऊपरी चोटियों की ओर होता है। अन्य क्षेत्रों में मोरिण्डा व वर्च बिखरे रूप में पाया जाता है व निम्नरोह के रूप में रोडोडैन्ड्रोन मिलता है। उसके नीचे छोटी-छोटी झाड़ियाँ मिलती हैं। तने छोटे शाखित होते हैं जिनकी गोलाई 60 सेमी से कम ही रहती है। फर्न समूह व अल्पाइन जड़ी-बूटी भी भूतल पर विद्यमान रहती है। इस प्रकार के वन डुक, सोबला, हीरीगुमरी व रूँगलिंग क्षेत्रों में पाए जाते हैं।
वनस्पति संरचना
शीर्ष वितान- काला मोरिण्डा।
मध्य वितान- भोजपत्र, खर्सू, चिमुला, थामरिंगाल आदि।
अधोवितान- चमरुईस, दरकुंजा, दरविया, किमकोलिया लोनिसेरा प्रजाति काला हिंसालू आदि।
22. उप हिमाद्रि चारागाह
3000 मीटर से अधिक ऊँचे निरन्तर चारागाह व जलाए जाने वाले चारागाह के अनुकूल क्षेत्र इस श्रेणी में आते हैं। ये डफिंयाधूरा क्षेत्र के ऊपरी कुछ भाग में एवं डुक, सोबला, हीरीगुमरी, ज्योतिगाड़ व रूँगलिंग के वनों में पाए जाते हैं। इन क्षेत्रों में मुख्य रूप से पाई जाने वाली घास एग्रोपाइरोन लोंगीरिस्टेटम, एग्रोपाइरोन सेमीकोटेटम, ब्रैकिपोडियम सिल्वेटिकम, डिक्टेइलस प्रजाति, डैन्थीनिया प्रजाति, फैस्टुका प्रजाति, मिलियस इफसम, औरजोसिस प्रजाति, फोलीयम प्रजाति, बोमस जैपोनिकस, पोवा प्रजाति आदि हैं।
मुख्य वर्ग 15. आर्द्र हिमाद्रि अनुक्षुप
22. हिमाद्रि चारण भूमि एवं हिमाद्रि वर्च रोडोडेन्ड्रोन क्षुद्ररोह
यह क्षेत्र वर्ष के अधिकांश समय बर्फ से ढके रहते हैं एवं जुलाई, अगस्त व सितम्बर में जब बर्फ पिघलती है तो घास एवं अन्य जड़ी-बूटियों से भर जाते हैं। अधिकतर क्षेत्र 3000 मीटर से अधिक ऊँचाई पर हैं। इस श्रेणी के वनों में बीच-बीच में चिमला व जुनीपर प्रजातियाँ पायी जाती हैं तथा रैननकुलेसी, क्रुसीफेरी तथा कम्पोजीटी परिवारों के अनेकानेक सदस्य पाए जाते हैं। इस प्रकार के वन डफिंयाधूरा, डुक, सोबला, हीरीगुमरी, ज्योतिगाड़ व रूँगलिंग वनों के ऊपरी भागों में पाए जाते हैं।
वनस्पति संरचना
शीर्ष वितान- भोजपत्र, चिमला।
अधोवितान- जुनीपर आदि।
घास/हर्ब- प्रिमुला डेन्टिकुलेटा, प्रिमुला स्टुआर्टी, एनीमोन प्रजाति, आइरिस प्रजाति, पोटेन्टिला प्रजाति, फैगेरिया प्रजाति, एकोनिटम प्रजाति आदि।
इन विविध प्रकार के वनों ने ही पिथौरागढ़-चम्पावत को सुन्दर व विशिष्ट बना रखा है। तरह-तरह की लोक संस्कृतियों व परम्पराओं को जन्म दिया है। सारे संसार से लोग पिथौरागढ़-चम्पावत जिले की ओर आकर्षित होते हैं। स्वामी विवेकानन्द ने चम्पावत में मायावती की शान्त व सुरम्य वादियों में बाँज वनों के बीच आश्रम स्थापित किया। नारायण स्वामी ने पिथौरागढ़ में सोसा आश्रम स्थापित किया।
हिमालय पर्वतमालाओं की संस्कृति, लोक परम्पराओं को सतत जीवन्त रखने और ग्रामीण परिवेश के प्राकृतिक संसाधनों को आधार बनाते हुए आजीविका, विशेषकर प्रकृति पर्यटन से जोड़ने के लिये हिमालय की वन विविधता को संरक्षित करना नितान्त आवश्यक है। हिमालय की ढलानों से धीमे-धीमे मिट्टी का आधार वन सम्पदा का ह्रास होता जा रहा है। मिश्रित वनों का स्वरूप बहुत तेजी से विकृत होता जा रहा है। बाँज व साल के चीड़ के मिलान वाले वन धीमे-धीमे चीड़ के वनों में परिवर्तित होते जा रहे हैं। गाँवों के आस-पास के गधेरों में व जंगलों से निकलने वाली लधिया, लोहावती, पनार, चर्मा जैसी नदियों में पानी घटता जा रहा है। इस समस्या से निपटना नितान्त आवश्यक है।
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेन्ट द्वारा 1813 से अब तक की वर्षा के स्वरूप का अध्ययन कराया गया है। इससे पता लगा है कि उत्तराखण्ड में वर्षा घट रही है। फलस्वरूप इन जनपदों की वन विविधता में निश्चित ही परिवर्तन आएगा।
पारथीनियम, लेन्टाना व यूपैटोरियम, तीन ऐसी खतरनाक विदेशी प्रजातियाँ हैं जो बहुत तेजी से वन्य क्षेत्र में फैल रही हैं। यह इन जिलों की प्राकृतिक वन सम्पदा की नई पौध के प्राकृतिक उत्पादन को उत्पन्न होने का अवसर ही नहीं दे रही हैं। एक समय ऐसा आएगा कि यह साल, चीड़, बाँज व विविध वन प्रजातियों को ही समाप्त कर देंगी। इस खतरे की घंटी से समय रहते ही निपटना पड़ेगा, अन्यथा बहुत देर हो जाएगी।
इसके लिये शीघ्रातिशीघ्र कोई व्यावहारिक रणनीति तैयार करनी होगी। सम्पूर्ण उत्तराखण्ड हिमालय के लिये एक आम नीति के अतिरिक्त पिथौरागढ़-चम्पावत के लिये भूमंडलीय स्थिति, स्थान विशेष एवं जन मानस को ध्यान में रखते हुए एक विशिष्ट जनग्राही नीति वन विविधता के संरक्षण, विकास एवं समुचित उपयोग के लिये बनानी होगी।
(अपने वन विज्ञान गुरु स्व. दुर्गाचरण पांडे, स्व. श्याम किशोर सेठ एवं गिरीश चन्द्र पांडे का आभार, जिन्होंने मुझे वन सम्बन्धी वैज्ञानिक दृष्टि विकसित करने के लिये प्रेरित किया तथा पहाड़ टीम का आभार। टंकण हेतु प्रताप बिष्ट का धन्यवाद।)
सन्दर्भ ग्रन्थ1. ऑस्मॉस्टन, ए.ई. : ए फॉरेस्ट फ्लोरा फॉर कुमाऊँ, सुपरिन्टेंडेंट गवर्नमेंट प्रेस, युनाइटेड प्रोविन्सेज, इलाहाबाद, 1927
2. चैम्पयन, एच.जी. सेठ, एस.के. : ए रिवाइज्ड सर्वे ऑफ दि फॉरेस्ट टाइप्स ऑफ इंडिया, मैनेजर पब्लिकेशन्स, दिल्ली, 1968
3. चैम्पियन, एच.जी. सेठ, एस.के. : जनरल सिल्वीकल्चर फॉर इंडिया, पब्लिकेशन ब्रान्च, डिपार्टमेंट ऑफ प्रिन्टिंग एंड स्टेशनरी, दिल्ली, 1968
4. चोपड़ा, आर.एन.; नायर, एस.एल.; चोपड़ा, आई.सी. : ग्लौसरी ऑफ इंडियन मेडिसिनल प्लान्ट्स रिसर्च, नई दिल्ली, 1956
5. जैन, एस.के. : डिक्शनरी ऑफ इंडियन फोक मेडिसिन एंड इथानोबॉटनी, दीप पब्लिकेशन, नई दिल्ली, 1991
6. लाल, उपेन्द्रनाथ कान्जी; गुप्ता, बसन्त लाल : फॉरेस्ट फ्लोरा ऑफ दि चकराता, देहरादून एंड सहारनपुर फॉरेस्ट डिवीजन्स, उत्तर प्रदेश, मैनेजर ऑफ पब्लिकेशन्स, दिल्ली, 1956
7. सिंह, डॉ. रनवीर सिंह प्रोविजनल पॉपुलेशन टोटल्स सेन्सस ऑफ इंडिया सीरीज -6 उत्तरांचल, डाइरेक्टर ऑफ सेन्सस ऑपरेशन्स उत्तरांचल -47
8. रजिस्ट्रार जनरल सेन्सस ऑफ इंडिया 2001 रजिस्ट्रार जनरल सेन्सस कमिश्नर, इंडिया।
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