अब आई रेनगन पद्धति

खेतों में सिंचाई के लिए ‘‘बूंद-बूंद’’ और ‘‘फौव्वारा तकनीक’’ के बाद अब रेनगन आ गयी है जो 20 से 60 मीटर की दूरी तक प्राकृतिक बरसात की तरह सिंचाई करती है। इसमें कम पानी से अधिक क्षेत्रफल को सींचा जा सकता है। सब्जी तथा दलहन फसलों के लिए यह माइक्रो स्प्रिंकलर सेट बहुत उपयोगी है, इससे ढाई मीटर के व्यास में बरसात जैसी बूंदों से सिंचाई होती है।

कैसे काम करती है रेनगन


20, 40 और 60 मीटर प्रसार क्षमता वाली रेनगन, फसलों की सिंचाई का नवीनतम साधन है। इसे एक स्टैंड के सहारे 45 से 180 डिग्री के कोण पर खेत की सिंचाई वाले भाग में खड़ा कर दिया जाता है। इसका दूसरा सिरा पंपसेट की पानी आपूर्ति करने वाली पाइप से जुड़ा होता है। रेनगन में पानी का दबाव बढ़ते ही इसके ऊपरी भाग में लगे फौव्वारे से सौ फीट की परिधि में चारों ओर वर्षा की बूंदों की तरह पानी निकालकर फसल की सिंचाई करता है। सिंचाई के अन्य साधनों की अपेक्षा इसके माध्यम से आधे से भी कम समय एवं पानी से खेत की सिंचाई संभव है। समय कम लगने से डीजल और बिजली की भी बचत होती है। तीन इंच के एक सबर्मसिबल पंप से तीन रेनगन एक साथ चलाई जा सकती है। 1 हेक्टेयर में रेनगन लगाने का खर्च क्षमता के अनुसार 20 से 30 हजार रुपए तक बैठता है जिसमें केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर 50 से 80 प्रतिशत तक का अनुदान देती हैं। जिसे प्राप्त करने के लिए किसान अपनी भूमि के भू-स्वामित्व प्रमाण-पत्र, पहचान-पत्र के साथ उद्यान या कृषि विभाग से संपर्क कर सकते हैं।

जानें, फौव्वारा सिंचाई पद्धति के गुण-दोष


यह कृत्रिम वर्षा चूंकि धीमे-धीमे की जाती है, इसलिए न तो कहीं पर पानी का जमाव होता है और न ही मिट्टी दबती है। इससे जमीन और हवा का सबसे सही अनुपात बना रहता है और बीजों में अंकुर भी जल्दी फूटते हैं। यह एक बहुत ही प्रचलित विधि है जिसके द्वारा पानी की लगभग 30-50 प्रतिशत तक बचत की जा सकती है। यह विधि बालू मिट्टी, या कम पानी वाली ऊंची-नीची जमीन तथा जहां पर पानी कम उपलब्ध है वहां पर प्रयोग की जाती है। इस विधि के द्वारा गेहूं, कपास, मूंगफली, तंबाकू तथा अन्य फसलों में सिंचाई की जा सकती है। इस विधि के द्वारा सिंचाई करने पर पौधों की देख-रेख पर खर्च कम लगता है तथा रोग भी कम लगते हैं। छिड़काव सिंचाई पद्धति के सामान्य नियम के मुताबिक पानी का स्रोत सिंचित क्षेत्रफल के मध्य में स्थित होना चाहिए जिससे की कम से कम पानी खर्च हो। ढलाऊ भूमि पर मुख्य नाली ढलान की दिशा में बनी होनी चाहिए। असमतल भूमि में जल वितरण पूरे क्षेत्रफल पर समान रहना चाहिए, अन्यथा फसल वृद्धि असमान ही रहेगी। सिंचाई के परंपरागत तरीकों के मुकाबले इस विधि से सिंचाई करने पर मात्र 50-70 प्रतिशत पानी की आवश्यकता होती है। जमीन को समतल करने की जरूरत नहीं होती। फौव्वारा पद्धति से उचित समय पर जुताई और पौध रोपाई का काम किया जा सकता है। पाले और अत्यधिक गर्मी से फसल की गुणवत्ता कम हो जाती है। इस सिंचाई से फसल को बचाया जा सकता है। कीड़े-मकोड़े और बीमारियां जैसी समस्याएं कम पैदा होती हैं।

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