आ अब लौट चलें जड़ों की ओर

इस समय भारत में हर कोई यह समझता है कि हम एक गम्भीर जल संकट का सामना कर रहे हैं। हमारी ज्यादातर नदियाँ प्रदूषित हैं, अवरुद्ध हैं या फिर मृतप्राय हैं। वर्षा का चक्र लगातार अनियमित होता जा रहा है और आगे इसके बढ़ते रहने का अन्देशा है। हमारा भूजल स्तर निरन्तर कम हो रहा है। झीलें या तो सूख रही हैं या गन्दे पानी से भर रही हैं।

खासतौर पर शहरी इलाकों में। जल और सफाई का हमारा ढाँचा पुराना पड़ चुका है। कई जगहों पर वह चरमरा रहा है तो बाकी जगहों पर उसका अस्तित्व ही नहीं बचा। कृषि, उद्योग और शहरी बस्तियाँ-सभी उसी सीमित जल संसाधन का दोहन करने के लिये होड़ लगाती रहती हैं। अब यह ऐसी समस्या भी नहीं, जिस पर बगैर कोई समाधान सुझाए चर्चा की जाये। गरीब और अमीर, यह संकट इस समय सबको प्रभावित कर रहा है।

अगर हमें तात्कालिक कार्रवाई के लिये किसी क्षेत्र को चुनना है तो वह है भूजल। भूजल ही शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में भारत के विकास को सिंचित कर रहा है। लेकिन इसका नतीजा गम्भीर कमी और गुणवत्ता के संकट के तौर पर हुआ है, खासतौर पर उच्च विकास दर वाले इलाकों में।

भारत हमेशा से भूजल सभ्यता वाला रहा है। हजारों साल तक विभिन्न इलाकों में बेहद सुरुचिपूर्ण तरीके से डिजाइन किये हुए खुले कुएँ रहे हैं, जो छिछले जलस्रोतों से पानी लेते रहते थे। लोग उन तमाम कायदों का पालन किया करते थे, जिनके जरिए वे अच्छे मानसून और सूखे के चक्र में पानी का किफायत से इस्तेमाल करते थे। लेकिन सत्तर के दशक में गहरे रिंग्स और बोरवेल के आगमन ने भारत में भूजल के इस्तेमाल की प्रवृत्तियों को पूरी तरह बदल दिया।

इसका सबसे बड़ा संकेत यह है कि सिंचाई में भूजल की हिस्सेदारी 1960-61 में महज 1 फीसदी से बढ़कर 2006-07 में 60 फीसदी तक पहुँच गई।

भारत इस समय दुनिया में भूजल का सबसे ज्यादा इस्तेमाल करने वाला देश है। हम दुनिया की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं- अमेरिका और चीन से भी ज्यादा भूजल का दोहन करते हैं। हमारे यहाँ नए बोरवेल और पुराने खुले कुओं को मिलाकर यह संख्या अनुमानतः तीन करोड़ है, जो लगभग 250 क्यूबिक किमी पानी का दोहन करते हैं। भारत की पेयजल सुरक्षा का 85 फीसदी, कृषि जल जरूरत का 60 फीसदी और शहरी जल की जरूरत का 50 फीसदी भूजल से आता है।

विडम्बना यह है कि इसके बावजूद भारत के सार्वजनिक निवेश का ज्यादातर हिस्सा सतही पानी के खाते में जाता है-सिंचाई के लिये बाँध और नहरें, पेयजल के लिये बड़ी पाइप लाइनें और उद्योगों के लिये लगातार बढ़ती आपूर्ति। खासतौर पर ऊर्जा क्षेत्र से जुड़े उद्योगों के लिये।

भारत में भूजल के दोहन का काम निजी हाथों में है। ज्यादातर कुएँ और बोरवेल निजी स्वामित्व में हैं। तेजी से आ रही खुदाई की नई-नई तकनीक के आगमन के जवाब में सरकार की प्रतिक्रिया बहुत धीमी रही है। भूजल का नियमन बेतरतीब है। यह प्रक्रिया भी दुनिया में अनूठी ही है। कई देशों ने ज़मीन के स्वामित्व को उसके नीचे के भूजल के स्वामित्व से अलग कर दिया है। उनके यहाँ जल अधिकारों, कीमत और सख्त नियमन की एक जटिल प्रणाली है।

भारत में जल राज्य का विषय है। केन्द्र और राज्य, दोनों ने कोशिश तो की, लेकिन इन सवालों का जवाब ढूँढने में नाकाम रहे कि आखिरकार भूजल पर किसका अधिकार है, उसका मानचित्र कैसे बनाया जाए, दोहन कैसे हो और उसकी भरपाई कैसे की जाए।

ऐसे में अज्ञानता और दण्ड के भय के बगैर किसान, सरकारें, उद्योग और आम नागरिक, हर कहीं गहरी-से-गहरी खुदाई करते जा रहे हैं, जिसके डरावने नतीजे सामने आने वाले हैं। एक अध्ययन के अनुसार भारत के 60 फीसदी जिले जल की क्षीणता या प्रदूषण जैसे गम्भीर संकट का सामना कर रहे हैं।

धरती की परत उधेड़ने के कारण फ्लोराइड और आर्सेनिक जैसे कई भू-जनित रसायन हमारे पेयजल में मिलते जा रहे हैं। चूँकि ज्यादातर जगहों पर प्रामाणिक परीक्षण का अभाव है, इसलिये हमें अभी तक यह भी नहीं पता कि हम क्या किये जा रहे हैं और आगे हमें किस चीज का सामना करना है।

यादवपुर यूनिवर्सिटी के किये गए एक अध्ययन के अनुसार गंगा-मेघना-ब्रह्मपुत्र के मैदानों में कम-से-कम 6.6 करोड़ लोग फ्लोरोसिस और लगभग 50 करोड़ लोग आर्सेनिक जनित बीमारियों के जोखिम का सामना कर रहे हैं। साथ ही खराब सफाई प्रवृत्तियों की वजह से मैले का प्रदूषण भी है। करोड़ों लोग खुले में शौच जाते हैं और करोड़ों अन्य मैले के गड्ढों से दोहन करके अनजाने में भूजल को भी प्रदूषित कर रहे हैं।

भारत हमेशा से भूजल सभ्यता वाला रहा है। हजारों साल तक विभिन्न इलाकों में बेहद सुरुचिपूर्ण तरीके से डिजाइन किये हुए खुले कुएँ रहे हैं, जो छिछले जलस्रोतों से पानी लेते रहते थे। लोग उन तमाम कायदों का पालन किया करते थे, जिनके जरिए वे अच्छे मानसून और सूखे के चक्र में पानी का किफायत से इस्तेमाल करते थे। लेकिन सत्तर के दशक में गहरे रिंग्स और बोरवेल के आगमन ने भारत में भूजल के इस्तेमाल की प्रवृत्तियों को पूरी तरह बदल दिया।वाटरएड की एक रिपोर्ट के अनुसार, इसका सीधा असर जलजनित बीमारियों के रूप में सालाना 3.7 करोड़ भारतीयों पर पड़ता है। जरूरी यह है कि इस पर ध्यान दिया जाए कि करना क्या है। वे पाँच चीजें कौन-सी हैं, जो सरकार, सिविल सोसाइटी संगठनों और नागरिकों को करनी चाहिए ताकि हम अपनी भूजल सभ्यता को ज्यादा टिकाऊ बना सकें?

 

 

भूजल की मैपिंग सार्वजनिक किस्म की हो


अभी उपलब्ध सूचनाओं में कोई तारतम्य नहीं है, हमें इसे बदलना होगा और जलदाय स्रोतों के आँकड़ों को सार्वजनिक दायरे में लाना होगा। अदृश्य भूजल को सबके लिये दृश्य बनाना होगा ताकि लोग उसका दुरुपयोग रोक सकें। सरकार के पास जलदाय स्रोतों के मानचित्रण का कार्यक्रम है, लेकिन उसे मजबूत बनाने और फिर से संयोजित करने की जरूरत है।

यह ऊपर से नीचे प्रवाहित होने वाली प्रक्रिया है, लेकिन ऐसा ही हो, यह जरूरी नहीं। लोगों को पानी के मामले में समझदार बनाने के लिये गहरी जानकारी चाहिए। कुशल लोगों से जुटाई गई ज़मीनी जानकारी के जरिए जलदाय स्रोतों का मानचित्रण किया जा सकता है और इसमें उपाग्रहीय आँकड़ों जैसी प्रौद्योगिकी की मदद ली जा सकती है।

 

 

 

 

माँग को व्यवस्थित करना


यह बात पहले बिन्दु से जुड़ी है और हमें याद दिलाती है कि केवल आपूर्ति के पक्ष को ध्यान में रखना कारगर नहीं होगा। हमें पानी का कुशलतापूर्वक इस्तेमाल करना होगा और इसके लिये बाजार के बेहतर संकेतकों की जरूरत होगी। भारत में भूजल निजी और अनियमित बाजार में है और उसके पास एक पारदर्शी बाजार व्यवस्था के फायदे भी नहीं हैं।

भूजल और ऊर्जा में भी एक गहरी साँठगाँठ है। अगर हम पानी की कीमत नहीं चुकाएँगे तो हमें ऊर्जा की कीमत चुकानी होगी। देर-सवेर आर्थिक प्रोत्साहनों को तो पेश करना ही होगा। इसका विरोध भी उससे कम ही होगा, जिसकी आशंका राजनैतिक तबके को लगी रहती है। गुजरात में ज्योतिग्राम जैसी कुछ उम्दा मिसालें पहले ही देश में मौजूद हैं।

 

 

 

 

भूजल के इस्तेमाल को तर्कसंगत बनाना


यह भी शुरुआती बिन्दुओं से जुड़ा है। चावल उगाने के लिये पंजाब के जलस्रोतों या गन्ना उगाने के लिये कच्छ के जलस्रोतों को सोख लेने में कोई समझदारी नहीं है। ये ऐसे सवाल नहीं हैं, जिन्हें अर्थशास्त्री बड़ी तसल्ली के साथ समझ सकते हों। हमें उत्पादन को कम जल दोहन की तरफ ले जाने के लिये प्रोत्साहित करना होगा।

 

 

 

 

सिविल सोसाइटी की भागीदारी सुनिश्चित करें


निजी और फैले हुए भूजल तक लोकतांत्रिक पहुँच के मौजूदा मॉडल में एक समझदारीपूर्ण गवर्नेंस सिस्टम जोड़ना सरकार के लिये बहुत मुश्किल काम होगा। लोगों की भागीदारी का काम एनजीओ बेहतर तरीके से कर सकते हैं। वे अतिदोहन की बजाय प्रबन्धन को प्रोत्साहित करते हैं। अच्छी सार्वजनिक नीति और क़ानूनों से मदद मिलती है, लेकिन हमें वाकई नई व्यवहारगत प्रतिक्रियाओं की जरूरत है, जिसमें हम पानी का सम्मान करना सीखें।

 

 

 

 

रीचार्ज और पानी का पुनः इस्तेमाल


अपने जलस्रोतों को रीचार्ज करने के लिये हमें एक व्यापक राष्ट्रीय प्रयास की जरूरत है। इसके लिये उपयुक्त संस्थाओं के गठन की जरूरत है, जो हमें एक समाज के तौर पर भूजल से नया रिश्ता कायम करने का तरीका सिखाएँ। कुछ संस्थागत ढाँचे खड़े करने की कोशिश की गई है, जैसे केन्द्रीय भूजल बोर्ड और राज्यों में उसकी अनुकृतियाँ। लेकिन ये सभी कम संसाधनों वाले दन्तहीन निकाय हैं।

भारत में पेयजल की उपलब्धताहमें संस्थानों को दुरुस्त करने की जरूरत है। मसलन, हमें ऐसे नए निकाय बनाने होंगे, जो शहरी भूजल को बेहतर रूप से समझकर प्रबन्धित कर सकें। समाज के रूप में हमारे सामने बड़े सख्त विकल्प हैं। हमारे लिये भूजल पर बड़ा दाँव खेलना ज्यादा उपयोगी होगा, जो हमें वास्तव में जल सुरक्षा की राह पर ले जा सकता है। तब हम एक बार फिर से परिपक्व भूजल सभ्यता बन जाएँगे।

लेखिका रोहिणी नीलेकणी अर्घ्यम की अध्यक्षा हैं। अर्ध्यम जलप्रबन्धन में लोगों की आर्थिक संसाधन जुटाने में सहयोग करता है। वे ‘स्टिलबॉर्न और अनकॉमन ग्राउण्ड’ की लेखिका भी हैं।

साथ में अयन बिस्वास और अर्घ्यम

 

 

 

 

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