अच्छे दिनों के इंतजार में पर्यावरण

26 Jul 2014
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पर्यावरण के अच्छे दिन लाने हेतु वायु, जल एवं भूमि में फैले प्रदूषण की रोकथाम के साथ-साथ खेती योग्य भूमि का संरक्षण एवं विस्तार भी करना होगा। पहाड़ी एवं मैदानी भागों में वनों को बचाने के साथ-साथ बड़े पैमाने पर अपने अपने क्षेत्र की स्थानीय प्रजातियों का रोपण कर उन्हें बड़ा करना होगा। अधिक जैवविविधता वाले क्षेत्रों को ज्यादा सुरक्षा देना होगी। पशुओं एवं पक्षियों को बचाने हेतु मांस का निर्यात नियंत्रित करना होगा। देश की जनता को अच्छे दिन दिलाने का आश्वासन देकर नरेेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद हासिल किया था। अच्छे दिन दिखाने हेतु वह लोगों को कुछ कड़वी दवा भी दे रहे हैं। क्या मोदी सरकार पर्यावरण के अच्छे दिनों हेतु भी प्रयास कर रही है? प्रदूषण रूपी बीमारी के कारण वर्तमान में पर्यावरण के बहुत बुरे दिन चल रहे हैं।

पर्यावरण के पांच प्रमुख भाग हैं वायु, जल, भूमि, पेड़-पौधे एवं जंतु जगत। वायु, जल एवं भूमि में भारी प्रदूषण फैल चुका है। जंगल कम होते जा रहे हैं एवं वनस्पतियों तथा जंतुओं की कई प्रजातियां संकटग्रस्त हैं एवं कई विलुप्ति की ओर अग्रसर हैं।

सभी प्राणियों के लिए वायु अनिवार्य है और श्वसन क्रिया के माध्यम से इसकी सर्वाधिक मात्रा ग्रहण की जाती है। अच्छे स्वास्थ्य के लिए वायु का शुद्ध होना जरूरी है। परंतु वर्तमान में देश के महानगरों के साथ-साथ छोटे एवं मध्यम शहरों में भी वायु प्रदूषित हो चुकी है।

देश के 50 से ज्यादा शहरों में वायु प्रदूषण की स्थिति खतरनाक है। देश के 88 में से 85 औद्योगिक क्षेत्र बुरी तरह प्रदूषित हैं। बैंगलुरु तो अस्थमा की राजधानी बन गया है एवं गुजरात का वापी दुनिया का चौथा प्रदूषित शहर है। शहरों की वायु में खतरनाक एवं रोग जन्य श्वसनीय कणीय पदार्थ (आर.एस.पी.एम.) की मात्रा तेजी से बढ़ रही है।

वायु प्रदूषण के कारण भारत तथा चीन के शहरों में फेफड़े तथा त्वचा कैंसर के रोगियों की संख्या बढ़ी है। हमारे देश के लोगों की श्वसन क्षमता यूरोपीय देशों के निवासियों की तुलना में 25 से 30 प्रतिशत तक कम है। वायु प्रदूषण के साथ-साथ ध्वनि प्रदूषण भी महानगरों एवं नगरों में अपनी निर्धारित सीमा से ज्यादा हो गया है।

मुंबई, दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई, लखनऊ, हैदराबाद, कानपुर, जालंधर, फरीदाबाद, भोपाल तथा इंदौर अब ज्यादा शोरगुल वाले शहर बन गए हैं। देशभर में फैले पांच लाख से ज्यादा मोबाइल टावरों से फैले विकिरण के प्रभावों का कोई विस्तृत एवं वैज्ञानिक अध्ययन देश में उपलब्ध नहीं है।

जीवन का आधार माने जाने वाले जल का अपना स्वास्थ्य काफी बिगड़ गया है। देश की लगभग 150 से ज्यादा नदियों में गंदगी मिलने से नालों में बदल गई हैं। देश के तकरीबन 900 से ज्यादा शहरों एवं गांवों का 70 प्रतिशत गंदा पानी बगैर उपचार के नदियों में छोड़ दिया जाता है। इसकी मात्रा लगभग 4 करोड़ लीटर है।

3000 शहरों में से केवल 250 शहरों में ही गंदगी को परिष्कृत करने की आधी-अधूरी व्यवस्था है। महाराष्ट्र में सबसे अधिक 28 नदियां प्रदूषित हैं। केंद्र सरकार ने गंगा को प्रदूषण मुक्त करने की योजना बनाई है, परन्तु ऐसी योजनाएं सभी नदियों हेतु बनाना चाहिए। नदी जोड़ योजना (इंटरलिंकिंग ऑफ रिवर) पर विचार करने के पूर्व नदियों को प्रदूषण मुक्त किया जाना चाहिए।

भूजल के अत्यधिक दोहन से 360 जिलों में भूजल स्तर में काफी गिरावट आई है। प्रदूषण के कारण भूजल में फ्लोराइड, नाइट्रेट एवं आर्सेनिक की मात्रा बढ़ी है। इस कारण दो लाख से ज्यादा गांवों में लोग पेयजल प्रदूषण से पैदा होने वाली बीमारियों के शिकार हैं। बीस नदी घाटी क्षेत्रों में से आठ में जल की कमी पाई गई है।

कृषि प्रधान देश होने के कारण अच्छी भूमि का होना जरूरी है परन्तु हमारे यहां भूमि की हालत भी चिंतनीय है। देश की लगभग 45 प्रतिशत भूमि (14.7 करोड़ हेक्टेयर) अम्लीयता, जल जमाव एवं कटाव आदि के कारण बेकार हो गई है। लगभग 15 करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि में से 12 करोड़ हेक्टेयर में उत्पादन घट गया है।

पिछले 15-20 वर्षों में ही कृषि योग्य भूमि में कई कारणों से 28 से 30 लाख हेक्टर की कमी आई है। देश के कुल भौगोलिक भू-भाग का लगभग चौथाई हिस्सा रेगिस्तान में बदल गया है। फैलता नगरीकरण, वैध अवैध खनन कार्य, औद्योगिकरण एवं बिजलीघरों का निर्माण भी तेजी से भूमि पर अपना साम्राज्य फैला रहे हैं।

वनों का कई कारणों से महत्व होता है परन्तु पर्यावरण सुरक्षा एवं संतुलन सबसे महत्वपूर्ण है। वन नीति के अनुसार पहाड़ी एवं मैदानी क्षेत्रों में तय क्रमशः 66 एवं 33 प्रतिशत वन कहीं नजर नहीं आते हैं। मैदानी भागों में 21 प्रतिशत भाग पर ही वन हैं, जिनमें भी सघन वन तो केवल 10 प्रतिशत ही हैं।

भारत उन 12 देशों में से एक है जहां सर्वाधिक जैवविविधता मौजूद है परंतु वनविनाश, रेगिस्तान फैलाव, अनियंत्रित कटाई एवं बांध योजनाओं के कारण जैव विविधता पर भी गहरा संकट आ चुका है। 20 प्रतिशत से अधिक वनस्पतियां एवं जन्तु संकट में हैं एवं उचित प्रयास के अभाव में इनकी विलुप्ति की संभावना है।

पशुधन खेती की रीढ़ समझे जाते हैं। परंतु यह रीढ़ अब टूटती जा रही है। एक समय देश के 6 लाख गांवों में बीस करोड़ के लगभग गाय बैल थे, परन्तु अब यह संख्या काफी कम हो गई है। देश के कत्लखानों में 1300 लाख पशु एवं 3000 लाख पक्षी प्रतिवर्ष मांस निर्यात के लिए काटे जाते हैं। इतना ही नहीं कई जलीय जीवों व कीट पतंगों आदि पर भी संकट मंडरा रहा है।

पर्यावरण के अच्छे दिन लाने हेतु वायु, जल एवं भूमि में फैले प्रदूषण की रोकथाम के साथ-साथ खेती योग्य भूमि का संरक्षण एवं विस्तार भी करना होगा। पहाड़ी एवं मैदानी भागों में वनों को बचाने के साथ-साथ बड़े पैमाने पर अपने अपने क्षेत्र की स्थानीय प्रजातियों का रोपण कर उन्हें बड़ा करना होगा। अधिक जैवविविधता वाले क्षेत्रों को ज्यादा सुरक्षा देना होगी। पशुओं एवं पक्षियों को बचाने हेतु मांस का निर्यात नियंत्रित करना होगा।

देश में जब प्रदूषण नियंत्रण होगा, हरियाली फैलेगी, लोगों को शुद्ध वायु जल एवं खाद्यान्न मिलेंगे, कृषि की पैदावार बढ़ेगी एवं पशु पक्षियों का संसार भी फैलेगा तो निश्चित ही खुशहाली आएगी एवं वे ही अच्छे दिन होंगे।

डॉ. ओ.पी. जोशी स्वतंत्र लेखक हैं तथा पर्यावरण के मुद्दों पर लिखते रहते हैं।

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