आदिवासियों को मिटाने की साजिश

आदिवासी समाज के बारे में जितनी गहरी समझ डॉ. रामदयाल मुंडा में थी, शायद वैसी उनसे समकालीन किसी अन्य आदिवासी नेता में नहीं। मृत्यु से कुछ माह पूर्व हमने उनसे नई औद्योगिक नीति और उदारीकरण के चलते आदिवासी समाज के अस्तित्व पर मंडरा रहे संकट को लेकर बातचीत की। बाचतीत एक साक्षात्कार के रूप में शुरू हुई, लेकिन एकाध प्रश्न के बाद सवालों का सिलसिला खत्म हो गया और रामदयाल मुंडा खुद सवाल उठाते और जवाब देते गए। हम उनके आवास के आंगन में आकाश छूटे शाल वृक्षों की छाया में बैठे थे और सन्नाटे में तिर रही थी उनकी आवाज़। प्रस्तुत हैं उनसे बातचीत के प्रमुख अंश)

ओजोन परत में छेद हो गया तो पेड़ लगाना है आदिवासियों को। जंगल बचाने का जिम्मा आदिवासियों का। वातावरण को सबसे अधिक प्रदूषित कर रहे हैं सड़को पर चलने वाले असंख्य वाहन, पर वायुमंडल को शुद्ध करने की जिम्मेदारी आदिवासियों की। आश्चर्यजनक तथ्य यह कि औद्योगिक कचरे से, धूल-धक्कड़ से जेनेवा की टाईन नदी, लंदन की टेम्स या अमेरिका की मिसीसिपी जहरीली नहीं हो रही हैं, जहरीली हो रही हैं हमारी गंगा, दामोदर और सुवर्णरेखा। विश्व बैंक का पैसा वहां नदियों को साफ कर रहा है। और हमारे यहां की नदियों को गंदा।

यहां का आदमी बाबाजी है। कल क्या खाएगा इसकी चिंता नहीं। अब उसका पाला पड़ा है उन लोगों से,जो प्रबंधन, जोड़-तोड़ में माहिर हैं। आदिवासी ने जनतंत्र महाजनतंत्र सब देख लिया, लेकिन बाजार के मामले में एकदम फिसड्डी है। बनिया बनने में उसे हजार-दो हजार साल लगेंगे। जिस इलाके में वह रहता है वह पूरी दुनिया के लिए आर्थिक रूप से आकर्षण का केंद्र हो गया है। इस दबाव के बीच वह कैसे बचा रहे? कैसे खुद ताकतवर हो और उन ताकतों का मुंह बंद कर सके, जो कहते हैं कि वह विकास-विरोधी है। उसके क्षेत्र मे अतिक्रमण हो रहा है, वे कहते हैं कि ऐसा विकास नहीं चाहिए। तो कैसा विकास चाहिए? हम लोगों के प्रस्ताव को वे देख और समझ पाते तो इतना संघर्ष नहीं होता। हमको हजार मेगावाट बिजली वाला कारखाना नहीं चाहिए। ऐसी योजना बनाओ, जिससे जंगल डूब क्षेत्र में न जाए, खेती योग्य ज़मीन न डूबे। छोटे कारखाने बिठाओ। एक की जगह बीस कारखाने, जिससे हमारा गांव भी रोशन हो और तुम्हें भी बिजली मिले।

नेहरू युग के औद्योगिकरण से कोई लाभ नहीं हुआ आदिवासी समाज का। विकल्प तैयार करना होगा, वह भी हमारी संस्कृति और बुद्धिमत्ता के साथ। खेत बनाने में हजार साल लगते हैं, उसको डुबाने की बात करेंगे तो कैसे होगा?

पुनर्वास की कोई नीति नहीं। कटहल के एक विशाल पेड़ की कीमत लगाते हैं दो सौ रुपए। आप यह कर क्या रहे हैं पुनर्वास के नाम पर। आप समुदाय उजाड़ रहे हैं और व्यक्ति को बसा रहे हैं, जबकि इनकी ताकत है सामुदायिक जीवन। इसलिए हम मांग करते हैं सांस्कृतिक पुनर्वास की। हमारा अखाड़ा, हमारे स्कूल, हमारे जाहेर थान सबको एक साथ बसाइए। कोयलकारो पर सब राजी हो गए थे। बस उनकी मांग थी कि पहले दो गांव बसा कर दिखाइए। वे नहीं कर सके। दो गांव भी फिर से खड़ा नहीं कर सके तो सौ गाँवों को नए सिरे से कैसे बसाएंगे?

पूरा देश मरुभूमि बनने के कगार पर है। जहां आदिवासी हैं, वहीं थोड़ा जंगल बचा है। जंगल को बचाना है तो आदिवासियों को बचाना होगा। पहले खेती से आधा पेट भरता था, तो आधा पेट जंगल से। लेकिन जंगल तो वैसे लोगों के हाथ में चला गया, जो जंगल को समूल नष्ट करने पर तुले हैं। जंगल देखते-देखते गायब हो गया। जंगल के आदमी का चेहरा भी उजाड़ हो गया। हम अंडमान निकोबार देखकर आए हैं। देह पर कपड़ा नहीं, लेकिन हृष्ट-पुष्ट हैं वहां के लोग। लेकिन यहां के आदिवासियों को देखिए, लगता है जैसे पूरा सत्व ही निचुड़ गया है। मूल वजह है कि जंगल नहीं रहे।

जंगल का दोहन अंग्रेजों के जमाने से हो रहा है। ईस्ट इंडिया कंपनी को व्यापार के विस्तार के लिए रेल और सड़क मार्ग चाहिए था। जंगल कटने का सिलसिला तभी से शुरू हो गया। फिर उनकी दृष्टि खनिज संपदा पर पड़ी। उसके लिए भी जंगल काटे। आदिवासी खनिज संपदा के बारे में नहीं जानता हो, ऐसी बात नहीं। मौर्य काल से ही लोहे और तांबे का ज्ञान था। आवश्यकता के अनुसार उसे गलाने की प्रवृत्ति भी थी। लेकिन यह समझ नहीं कि उसकी खरीद-बिक्री भी हो सकती है। कोयला जला कर भात रांधने की बात उसे नहीं सूझी कभी। इसलिए खनिज का दोहन नहीं किया। अब दोहन हो रहा है। लेकिन सारा पैसा विदेश चला जाता है। ठेकेदार बाहर का, अभियंता बाहर का। सब मिलकर लूट रहे हैं। नीचे से लेकर ऊपर तक हस्तक्षेप करना होगा।

जंगल नाममात्र को रह गए। मेहनत से तैयार खेती योग्य ज़मीन भी खनन और प्रदूषण से बर्बाद हो रही है। जो कुछ बचा है, उसे भी लूटने की तैयारी हो रही है। निन्यानबे साल का पट्टा, इसका क्या मतलब? एक पीढ़ी तीस साल की होती है। बहुत जरूरी हो तो अधिक से अधिक दस से पंद्रह साल की बात कीजिए। रॉयल्टी का एक हिस्सा खेत के मालिक को भी दीजिए। लेकिन अभी तो ज़मीन से जुड़ी किसान की नाल ही काट देना चाहते हैं।

जरूरत है सो एकड़ की। मांगते हैं हजार एकड़। एचइसी का काम दो हजार एकड़ में चल सकता था। अधिग्रहण किया तेरह हजार एकड़। अब वहां बना रहे हैं केरल एसोसिएशन का क्लब तो बंगाल एसोसिएशन तुपुदाना, कोकर, हरमू कॉलोनी, सब उसी के नाम पर बन गए। बनिया आया। फिर उसका साला आया, फिर उसका ससुर। अब एचइसी बंदी के कगार पर है। तो फालतू ज़मीन लौटा दो उनको, जिनसे ज़मीन ली। लेकिन नहीं। उस ज़मीन को लेकर सरकार और एचइसी में सौदेबाजी हो रही है। सरकार चाहती है कि ज़मीन किसी तरह हथिया लें। वहां नया शहर बसाएंगे। विधायकों-सांसदों को कोऑपरेटिव बनाने के लिए ज़मीन देंगे।

इस तरह उजड़ने वाले आदिवासी कहां गए? एक चला गया असम। फिर उसका भाईबंद भी चला गया। साठ लाख झारखंडी अभी असम में हैं। हमको आश्चर्य हुआ भाषाओं को लेकर। यहां नागपुरी, खोरठा चलाते हैं। वहां सभी भाषाएं मिल कर सदरी हो गई। सभी वही बोलते हैं। वहां भी उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक माना जाता है। देश के अन्य हिस्सों में गए आदिवासियों का भी वही हाल है। जो इलाके उनके कठोर परिश्रम से आबाद हुए, उन इलाकों से भी उन्हें बार-बार खदेड़ा जाता है। अब वे उन इलाकों के लिए बोझ हो गए।

वे भिन्नता में एकता का नारा देते हैं, पर क्या भिन्नता को स्वीकार कर रहे हैं! बांग्ला, उड़िया, पंजाबी की भिन्नता को स्वीकार कर लिया, लेकिन हमारी भिन्नता उन्हें स्वीकार नहीं। मोटे जजमानों ने अपने राज्यों का तो इंतजाम कर लिया लेकिन लगभग दस करोड़ की आदिवासी आबादी को छिन्न-भिन्न करके रखा। भील आबादी लगभग दो करोड़ है। पूर्वी गुजरात उत्तरी महाराष्ट्र, पश्चिमी मध्य प्रदेश, दक्षिणी राजस्थान जहां मिलते हैं, वहीं इस आबादी का निवास है। गोड़ उत्तरी महाराष्ट्र, दक्षिणी मध्य प्रदेश, पश्चिमी आंध्र प्रदेश और ओड़ीशा में बसे हुए हैं। संथाल, असम, बंगाल ओड़ीशा और झारखंड में। सब छिन्न-भिन्न।

सूचीकरण ऐसा किया गया कि जिन राज्यों में आदिवासियों की आबादी कम है, उसे आदिवासी सूची से बाहर कर दिया। बंगाल में अनुसूचित क्षेत्र हैं ही नहीं, जबकि आदिवासियों की बड़ी आबादी पुरुलिया, मिदनापुर में बसी हुई है। कर्नाटक, महाराष्ट्र और राजस्थान में भी वही बात। कुछ को राजनीतिक रूप से आइसोलेट कर दिया। असम में रह रहे साठ लाख आदिवासियों की पहचान आज भी झारखंडियों के रूप में है, जबकि वहां गए आदिवासियों को अब यहां के गांव-घर का नाम भी याद नहीं रह गया है।

योजना ऐसी बनी है कि विकास का सारा दबाव आदिवासी क्षेत्र पर पड़ा है। ओजोन परत में छेद हो गया तो पेड़ लगाना है आदिवासियों को। जंगल बचाने का जिम्मा आदिवासियों का। वातावरण को सबसे अधिक प्रदूषित कर रहे हैं सड़को पर चलने वाले असंख्य वाहन, पर वायुमंडल को शुद्ध करने की जिम्मेदारी आदिवासियों की। आश्चर्यजनक तथ्य यह कि औद्योगिक कचरे से, धूल-धक्कड़ से जेनेवा की टाईन नदी, लंदन की टेम्स या अमेरिका की मिसीसिपी जहरीली नहीं हो रही हैं, जहरीली हो रही हैं हमारी गंगा, दामोदर और सुवर्णरेखा। विश्व बैंक का पैसा वहां नदियों को साफ कर रहा है। और हमारे यहां की नदियों को गंदा।

मैंने अमेरिका के मैनेसोटा में दस वर्ष तक अध्यापन किया। वह कोयला क्षेत्र है, लेकिन अमेरिका का सबसे अच्छा पर्यावरण वाला क्षेत्र। वसंत में सफेद बर्फ की चादर से ढंक जाते है। लेकिन अपने यहाँ रामगढ़ उतरते ही सांस भारी चलने लगती है। ओड़ीशा में एक जगह सैंतीस स्पंज आयरन कारखाने खेले गए हैं। विरोध करो तो आदिवासी चोर हैं, बदमाश हैं, विकास-विरोधी हैं। चार राज्य मिल कर गंवार, जंगली लोगों का विकास करेंगे। इन चारों राज्यों में सबसे बड़ी संख्या में बंद हैं आदिवासी। उस समुदाय को राष्ट्र-विरोधी कहा जा रहा है, जो मानता है कि भारतवर्ष हमारा है, जो हमेशा लड़ा गुलामी के खिलाफ, जंगलों पहाड़ों में।

भारत के संविधान में आदिवासी शब्द नहीं है। सिंधी आठवीं सूची में नेपाली आठवीं सूची में लेकिन जनजातीय भाषा उसमें नहीं। साठ साल बाद संथाली को आठवीं सूची में जगह मिली। बिडंबना देखिए कि आदिवासियों को अल्पसंख्यक भी नहीं माना गया। हमें इंडिजिनस पीपुल कहा गया। अब तो झारखंड में रहने वाला हर समुदाय खुद को आदिवासी घोषित कराने की मांग कर रहा है। हम कहते हैं, ठीक है। सभी आदिवासी हैं, लेकिन हम लोग थोड़े अधिक आदिवासी हैं।

विडंबना यह कि एक तरफ आदिवासी बनने की होड़, दूसरी तरफ आदिवासी को मिटाने की साज़िश। दिल्ली में एक आदिवासी नहीं मिलेगा, लेकिन हैं लाखों। हजारों हरिजन के रूप में। भील बस्ती है, लेकिन आदिवासी नहीं। आदिवासी दस करोड़ हैं। कहते हैं दो करोड़ ईसाई बन गए। शेष आठ करोड़ कहां गए? वे हिंदू हो गए! धार्मिक विश्वासों के आधार पर तो आदिवासी खत्म। हिंदू जैसा बोल कर सबको हिंदू ही घोषित कर दिया। हिंदू जैसा तो मुसलमान भी है। भारत का हिंदू मुसलमान जैसा भी है। लेकिन धार्मिक विश्वासों के हिसाब से सब अलग। फिर आदिवासी धार्मिक विश्वासों में भारी अंतर के बाद भी हिंदू कैसे हो गया? इतिहास गवाह है कि आदिवासियों को हिंदुओं ने कभी स्वीकार नहीं किया उसे मनुष्य नहीं माना।

जमाना कितना बदल गया,लेकिन नजरिया वही। ऊपर से चाहे वोट की राजनीति के लिए प्रेम दिखाएं, लेकिन हमें आदमी से थोड़ा कम माना जाता है। मुझे अनुभव है। बहुत त्रासद अनुभव। जब विद्यार्थी था तो कमर के नीचे एक फोड़ा हो गया। कहा जाता इलाज के लिए। यहीं रांची के सदर अस्पताल में चला गया। डॉक्टर ने टेबल पर लेट जाने को कहा। घाव को चीर कर साफ करना था। कंपाउडर ने घबरा कर बोला- ‘एनेस्थेसिया की सुई नहीं दीजिएगा सर?’ डॉक्टर का जवाब था- ‘क्या जरूरत इन लोगों को दर्द नहीं होता। बड़े सहनशील होते हैं।’ उसके बाद चार लोगों ने कस कर पकड़ लिया और चीर-फाड़ करते रहे। लेकिन धीरे-धीरे जागृति आ रही है। नेपाल से लेकर तेलंगाना तक वही जंगली-वनवासी सत्ता में है। वह अब हार मानने वाला नहीं, मैदान में डटा हुआ है अपने अस्तित्व को बचाने के लिए। यह आपको तय करना है कि आप उससे कैसे संवाद करते हैं।

प्रस्तुति : विनोद कुमार

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading