आधुनिक विकास के दौड़ में खत्म होते जंगल

4 Jun 2012
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प्रकृति ने जिस जंगल को हमें देकर न केवल जंगल में औषधि, पशु-पक्षी आदि को अपने गोद में पाला बल्कि हमें भी अपने ही गोद में पालकर अनेक प्रकार के प्राकृतिक औषधियां, पानी, लकड़ी सभी चीजों को उपलब्ध कराया आज उसी जंगल को हम उजाड़ने में लगे हैं कहीं खनन करके तो कहीं बांध बांधकर अपने आधुनिक सुविधाओं की पूर्ति के लिए इन जंगलों को खत्म करने के होड़ में लगे हैं।

गुजरात और गोवा में पर्यावरण मंजूरी देते समय नियम-कायदों को ताक पर रख दिए जाने के कई उदाहरण हैं। कर्नाटक में अवैध खनन और लौह अयस्क के अंधाधुंध दोहन का सिलसिला अब जाकर एक हद तक थम गया है, पर इसका श्रेय राज्य या केंद्र सरकार को नहीं, बल्कि सुप्रीम कोर्ट को जाता है। पारिस्थितिकी संतुलन की कीमत पर खनन गतिविधियों और औद्योगिक परियोजनाओं को मंजूरी देते जाने की एक वजह यह सरकारी सोच भी है कि अगर रोक लगाई गई तो विकास की रफ्तार थम जाएगी।

पश्चिमी घाट के पारिस्थितिकी संकट को ध्यान में रखते हुए गठित की गई माधव गाडगिल समिति की सिफारिशें आखिरकार पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने सार्वजनिक कर दी हैं। इस रपट को केंद्र सरकार ने काफी समय से दबाए रखा था। छह राज्यों यानी महाराष्ट्र, गोवा, गुजरात, कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु में फैले पश्चिमी घाट में पिछले कुछ सालों से जिस तरह से प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन हो रहा है, उससे इस पूरे इलाके के लिए कई तरह के खतरे पैदा हो गए हैं। मगर राजनीतिकों, भ्रष्ट अफसरों और माफिया के गठजोड़ से चलने वाली इन गतिविधियों पर रोक लगा पाना मुश्किल बना हुआ है। गाडगिल समिति ने कर्नाटक के गुंडिया और केरल की अतिरापल्ली पनबिजली परियोजनाओं को रद्द करने और पारिस्थितिकी की दृष्टि से अति संवेदनशील माने जाने वाले गोवा में चार साल के भीतर सभी तरह के खनन बंद करने का सुझाव दिया है।

इसके अलावा, समिति की सिफारिश है कि पश्चिमी घाट के लिए पारिस्थितिकी प्राधिकरण गठित किया जाए। छहों राज्यों में प्राधिकरण की स्वतंत्र इकाइयां हों, मगर उनके कामकाज का तंत्र संयुक्त हो। इसमें राज्यों और केंद्र दोनों की तरफ से पारिस्थितिकी के विशेषज्ञों के अलावा योजना आयोग, राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के प्रतिनिधियों के अलावा स्थानीय और विभिन्न जनजातीय समूहों के लोगों को भी शामिल किए जाने का सुझाव है। यह प्राधिकरण राज्यों के योजना विभागों, जैव विविधता बोर्डों, प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों के साथ मिल कर काम करेगा। यह अफसोस की बात है कि पर्यावरण मंत्रालय ने अभी तक गाडगिल समिति के सुझावों पर अपना रुख साफ नहीं किया है।

यह छिपी बात नहीं है कि देश में भ्रष्ट राजनीतिकों-अधिकारियों और खनन माफिया का गठजोड़ इतना मजबूत हो चुका है कि वह सरकारी फैसलों को आसानी से प्रभावित कर लेता है। कर्नाटक के पूर्व लोकायुक्त संतोष हेगड़े ने अपनी रिपोर्ट में इस गठजोड़ के बारे में विस्तार से प्रकाश डाला है। और भी दुखद यह है कि सरकारों के स्तर पर भी पर्यावरण से संबंधित कानूनों की अनदेखी आम चलन सी हो गई है। जहां स्थानीय पंचायतें और जनजातीय समूह इन परियोजनाओं के खिलाफ खड़े होते हैं वहां उन्हें बलपूर्वक दूर रखने की कोशिश होती है। राज्य सरकारें भूमि अधिग्रहण संबंधी अपने विशेषाधिकार या इस कानून के आपात प्रावधान का इस्तेमाल करने से भी नहीं हिचकतीं। उड़िसा में पॉस्को परियोजनाओं के मामले में पर्यावरण संबंधी कानूनों की खुली अनदेखी के ढेरों प्रमाण मिलने और विशेषज्ञ समितियों की इस परियोजना के खिलाफ रपट मिलने के बावजूद पर्यावरण मंत्रालय ने उसे हरी झंडी दे दी। यह अलग बात है कि हरित न्यायाधिकरण ने उस पर रोक लगा दी है।

गुजरात और गोवा में भी पर्यावरण मंजूरी देते समय नियम-कायदों को ताक पर रख दिए जाने के कई उदाहरण हैं। कर्नाटक में अवैध खनन और लौह अयस्क के अंधाधुंध दोहन का सिलसिला अब जाकर एक हद तक थम गया है, पर इसका श्रेय राज्य या केंद्र सरकार को नहीं, बल्कि सुप्रीम कोर्ट को जाता है। पारिस्थितिकी संतुलन की कीमत पर खनन गतिविधियों और औद्योगिक परियोजनाओं को मंजूरी देते जाने की एक वजह यह सरकारी सोच भी है कि अगर रोक लगाई गई तो विकास की रफ्तार थम जाएगी। गाडगिल समिति की रपट को ठंडे बस्ते में डाले रखने के पीछे भी यही कारण रहा हो। मगर ऐसा विकास किस काम का, जिसके चलते भविष्य के लिए प्राकृतिक संसाधन और जीविका के पारंपरिक स्रोत ही न बच पाएं।

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