अध्यात्म की कर्मवीरता

22 May 2015
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यह दुर्भाग्य ही रहा कि सम्पूर्ण दुनिया मृत्यु से इतनी घबराई हुई है कि मृत्यु का परिचय पाने के लिए या उसका रहस्य सुलझाने के लिए जितना चिन्तन-मनन आवश्यक है- मनुष्य जाति ने उतना कभी किया ही नहीं। चिन्तन-मनन का भय और आकर्षण, दोनों आसान तो हैं, पर मृत्यु के निकल जाने के बाद ही मनुष्य इस चिन्तन के योग्य होता है।

बहुत-सी चीजें शरीर के नाश के साथ ही चली जाती हैं। लेकिन आत्मा रहती है। मनुष्य का जैसा कर्म, जैसा उसका ज्ञान और जैसी उसकी प्रज्ञा होती है- वैसा ही जन्म उसे मिलता है। यथाकर्म यथाश्रुतम, यथाप्रज्ञा- नए जन्म में वह अपनी साधना आगे चलाता है। इतना स्पष्ट होते हुए भी यदि मृत्यु के रहस्य को समझना हो तो उसके लिए व्यक्ति को अपनी स्वतन्त्र साधना करनी ही पड़ती है। उस साधना के लिए जीवन की कीमत भी देनी पड़ती है। युवा नचिकेता ने तो प्रत्यक्ष मृत्यु के घर जाकर उसी से मृत्यु का रहस्य पूछ लिया था। यमराज ने भी उसकी श्रद्धा-निष्ठा देखकर अपना सारा रहस्य उसे समझाया था।

जब मनुष्य अपनी जीवन यात्रा पर प्रस्थान करता है, तब वहाँ पगडण्डी बनती ही है। जानवर या गाड़ियाँ जाती हैं, तब भी वहाँ रास्ते बनते हैं, लेकिन जब आकाश में पक्षी और अब आकाशयान, वायुयान जाते हैं, तब कहीं भी रास्ते की निशानी पीछे नहीं छूटती। यही बात अध्यात्म साधना की भी है। इसकी भी पगडण्डी नहीं बनती। हरेक को अपना रास्ता नए सिरे से ही खोजना पड़ता है।

मृत्यु के रहस्य को जानने के लिए भी वैसा ही करना पड़ता है। प्राचीन काल से लेकर माॅरिस मेटरलिंक या बर्ट्रेंड रसेल तक हरेक ने अपने-अपने ढँग से मृत्यु के बारे में सोचा है, उसकी विचिकित्सा की है। सब जानते हैं कि मृत्यु का धर्म अति सूक्ष्म, अणु और अज्ञेय है।

भारतीय समाज की श्रद्धा इस बात पर अटल है कि मृत्यु के साथ जीवन समाप्त नहीं होता। मृत्यु के बाद भी किसी-न-किसी रूप में जीवन चलता ही रहता है। इस चलने वाले स्थाई तत्त्व को हम आत्मा कहते हैं। पर, हम क्यों मानें कि आत्मा अचल और स्थिर तत्त्व है! वह अनन्त है! लेकिन, इसका मतलब यह नहीं कि जिसका अन्त नहीं, वह गति रूप न हो। काल अनन्त है, लेकिन वह बहता ही रहता है। कर्म का कानून सार्वभौम है। इसीलिए उसके लिए आदि-अन्त हो नहीं सकते। कार्य-कारण-भाव चलता ही रहता है। उसके लिए आदि या अन्त की कल्पना हम नहीं कर सकते। इसी तरह जीवन भी सनातन है और मृत्यु ही एक ऐसा तत्त्व है, जो देहली-दीप न्याय से इस ओर भी देख सकता है और उस ओर भी। यही कारण है कि कुदरत ने मनुष्य को जीवन के एक अंक के पूरे होने के बाद मृत्यु का अनुभव करने की सहूलियत दे रखी है। हमारा मानना है कि इसीलिए मृत्यु का दुरुपयोग करना जीवन-साधना में बड़ी बाधा उत्पन्न करना है।

यह दुर्भाग्य ही रहा कि सम्पूर्ण दुनिया मृत्यु से इतनी घबराई हुई है कि मृत्यु का परिचय पाने के लिए या उसका रहस्य सुलझाने के लिए जितना चिन्तन-मनन आवश्यक है- मनुष्य जाति ने उतना कभी किया ही नहीं। चिन्तन-मनन का भय और आकर्षण, दोनों आसान तो हैं, पर मृत्यु के निकल जाने के बाद ही मनुष्य इस चिन्तन के योग्य होता है। भगवान बुद्ध ने मरने की इच्छा को ‘विभव तृष्णा’ कहा है और उसका निषेध किया है। मनु ने मृत्यु के प्रति तटस्थ भाव रखने की नसीहत देते हुए कहा हैः नाभिनन्देत मरणम् नाभिनन्देत जीवितम्

प्राचीन और अर्वाचीन जीवनाचार्यों के वचनों से लाभ उठा कर हमें स्वस्थ चित्त से मरण का रहस्य नचिकेता की श्रद्धा से ढूँढ़ना चाहिए। उसके बाद ही दुनिया में मरणभय से जो महापाप किए जाते हैं और युद्धरूपी ताण्डव लीला चलती है, उन्हें शान्त करने का रास्ता मिलेगा।

हमारी संस्कृति की सर्वोच्च भावना मोक्ष की है और इसमें जितना चिन्तन किया गया है, उतना किसी अन्य चिन्तन-धारा में नहीं हुआ है। हमारी मोक्ष-भावना गहरी है, एकांगी नहीं है और उसे हम आसानी से छोड़ भी नहीं सकते। फिर भी आज हमारे जीवन-दर्शन में इतना परिवर्तन हुआ है कि मोक्ष-भावना को फिर से स्पष्ट और स्थिर करना जरूरी हो गया है।

हम इस दुनिया में आए, क्या यह गलती हुई है? पर, क्या सिर्फ भागने से मुक्ति मिल सकती है? हमारा बन्धन जितना बाह्य है, उतना आन्तरिक भी है। इसलिए जीवन का विस्तार छोड़कर वासना पर विजय पाने की ही कोशिश करनी चाहिए। अलिप्त जीवन ही उत्तम जीवन है।

मनुष्य के रोजमर्रा के जीवन का आदर्श सामान्यतः इतना स्थूल और प्राकृत होता है कि उसकी चाहे जितनी अनिवार्यता सिद्ध हो जाए, पर उसके बारे में आकर्षण सिद्ध नहीं हो सकता। आज मनुष्य का सामान्य जीवन खाने-पीने, रहने के लिए घर बनाने, काम करने के लिए तरह-तरह के औजार तैयार करने, बाल-बच्चों की परवरिश करने या अधिक से अधिक सामाजिक जीवन के वास्ते कुछ नियम तैयार करने और कुटुम्ब, समाज या राज्य-व्यवस्था अथवा पढ़ाई का प्रबन्ध आदि के लिए कुछ मानवी संस्थाएँ चलाने तक सीमित हो गया है। इसमें संघर्ष का तत्त्व भी पाया जाता है और संघर्ष में सफलता पाने की पूर्व-तैयारी भी करनी पड़ती है। साथ ही संघर्ष को टालने की कोशिशें भी करनी पड़ती हैं।

जीवन की सफलता में जो बाधाएँ आती हैं, उनको दूर करने के लिए जो कोशिशें हम करते हैं, उन्हीं को हम मोक्ष-साधना के रूप में स्वीकार करते हैं, लेकिन हमारे ‘तत्त्वज्ञान’ ने संसार को निस्सार बताया और पतन से बचने के लिए ‘मोक्ष’ का रास्ता ढूँढ निकाला है। हमारे मायावाद ने दार्शनिक शुद्धि का उच्चांक भले ही प्राप्त किया हो, पर जीवन के बारे में इस मायावाद ने सामान्य जनता के मन में अनादर और अनुत्साह ही पैदा किया है।

हम इस दुनिया में आए, क्या यह गलती हुई है? पर, क्या सिर्फ भागने से मुक्ति मिल सकती है? हमारा बन्धन जितना बाह्य है, उतना आन्तरिक भी है। इसलिए जीवन का विस्तार छोड़ कर वासना पर विजय पाने की ही कोशिश करनी चाहिए। अलिप्त जीवन ही उत्तम जीवन है। असली अर्थ में हमारी मोक्ष की भावना यही है, पर हमने मान लिया कि मोक्ष और निवृत्ति एक ही चीज है। अथवा निवृत्ति के द्वारा ही मोक्ष मिल सकता है। पर, हम यह क्यों न मानें कि निवृत्ति के मानी यह है कि हम जितना भी काम कर सकते हैं, करें। निवृत्ति और मोक्ष का उपदेश करने वाले लोगों का जीवन देखिए- वह कितना प्रवृत्तिमय था! शंकराचार्य ने थोड़ी-सी उम्र में भाष्य लिखे, प्रकरण लिखे। स्तोत्र लिखे। देश का भ्रमण करके शास्त्रार्थ किए और चार मठों की स्थापना कर दी। सन्यासियों के दसनामी अखाड़े चलाए, चार प्रकार के ब्रह्मचारी बनाए। हिन्दू धर्म को एक नया रूप दिया। पंचायतन-पूजा चलाई और माता की अन्तिम सेवा करके अपनी मातृभक्ति का प्रमाण दिया। एक प्रवृत्तिशील आदमी इससे बढ़ कर क्या कर सकता है? ज्ञानेश्वर, रामदास, कबीर, तुलसीदास आदि सब सन्तों को हम देखें- उन्होंने भी निवृत्तिपरायण प्रवृत्ति के ढेर लगा दिए।

बात सही है, किन्तु इनके शिष्यों में और सारे समाज में कुछ भी न करने की ही बात भी हमारे सामने है। स्वार्थवश और महत्त्वाकांक्षावश लोगों ने चाहे जितने बड़े-बड़े काम किए हों, परन्तु मोक्ष-परायण साधना के फलस्वरूप अकर्मण्यता ही बढ़ी है। अखाड़े चले हैं, खाने-पीने के प्रबन्ध किए जाते हैं, पूजा तथा उत्सव के ताँते लगे हैं, लेकिन उनका जीवन प्रवृत्तिमय, समाज-सेवामय थोड़े ही कहा जा सकता है? उपेक्षा, निरुत्साह और परलोक-परायणता- इन्हीं का वायुमण्डल समाज में फैला है।

मोक्ष की हमारी कल्पना अब बदलनी चाहिए। मोक्ष यानी षडरिपु के आक्रमण से मुक्ति। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर- इस शरीर-प्रस्त, असामाजिक स्वभाव से मन को मुक्त करना। तटस्थ, अनासक्त और निरपेक्ष भाव से समाज की सेवा करते-करते विश्व के साथ, सबके साथ अपनी आत्मीयता का अनुभव करना- यही है मोक्ष-भावना। राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और शिक्षा-विषयक पारतन्त्रय को दूर करने और समाज में फैली हुई असामाजिक प्रवृत्तियों को रोकने, अज्ञान, अन्याय, शोषण और संघर्ष के वायुमण्डल से समाज को मुक्त करना मोक्ष-भावना का ही अंग है। मोक्ष के माने हैं- दोष, एकांगिता, संकुचितता, अकर्मण्यता, विलासिता आदि दोषों से मुक्त बना कर समाज को शुद्ध, समर्थ, स्वायत्त और जीवन-समृद्ध बनाना। मोक्ष की हमारी यह शुद्ध भावना ऐसी है कि वह समाज के मोक्ष के बिना अपूर्ण है।

लेकिन, व्यक्ति को अपना मोक्ष पाने के लिए समाज की सार्वत्रिक मुक्ति की राह देखने की जरूरत नहीं है। किसी भी परिस्थिति में व्यक्ति को अपना मोक्ष तो मिल ही सकता है। अपना मोक्ष पाने के साथ सामाजिक मोक्ष के लिए समाज की सेवा करने की वृत्ति, शक्ति और युक्ति बढ़ती जानी चाहिए। इस अर्थ में यह मुक्ति सद्योमुक्ति भी है और कर्ममुक्ति भी है।

मोक्ष की ऐसी व्यापक और शुद्ध भावना के साथ मोक्ष की साधना व्यापक, उत्कट और सर्वांगीण बने, ऐसा गहरा चिन्तन अभी तक हुआ नहीं है। इसलिए हमारी आध्यात्मिक प्रवृत्ति में ऐसी कर्मवीरता की नितान्त जरूरत है। वह आएगी, अवश्यमेव आएगी- ऐसा हमें मानना चाहिए।

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