ऐसे तो लहलहा चुके वन

बीते दिनों अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के नामुमकिन को मुमकिन करने की कोशिशों पर पानी फेरने के लिये सरकारी गुंडागर्दी और हो-हल्ला के बीच इस साल का विश्व पर्यावरण दिवस हवा हो गया।
साल की शुरुआत से ही सरकार हरित वन योजना के जरिये उजड़ते वन क्षेत्रों को फिर से लहलहाने की तैयारियां कर रही है जबकि देश में वन तस्करों के खतरनाक मंसूबे बढ़ते ही जा रहे हैं। बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, असम, प. बंगाल जैसे कम से कम 7 सूबों की अवाम पर तो हर अपील बेअसर हो रही है। आदिवासी बहुल इन राज्यों में विनाश का मंजर बड़ा भयावह है। उत्तर प्रदेश और बिहार में खैरा, सीसम, सागौन और बेंत की तस्करी में लिप्त डकैतों के अनगिनत गिरोहों के नाम ही जंगल पार्टी है। वीरप्पन नहीं रहा लेकिन कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों में उसके यार, रिश्ते-नातेदार अब भी उसकी कमान संभाले हैं।

हमें कुदरत का एहसानमंद होना चाहिए कि भारत की जमीन दुनिया की महज 4 फीसद है। फिर भी, भारतीय वन सर्वेक्षण की रिपोर्ट 2005 के मुताबिक देश में करीब 677.088 किमी. और बाद में जुड़े 38,475 किमी. को जोड़ कर कुल 39152.008 किमी. वन क्षेत्र है जो कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का करीब 22 फीसद है। पेड़ों से घिरी कुल जमीन करीब 91 हजार 663 किमी. है जो कि कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 2.79 फीसद है। वन मंत्रालय के मुताबिक वर्तमान में 6.9 करोड़ हेक्टेयर वन क्षेत्र हैं, जिसमें करीब 40 फीसद खराब किस्म के हैं। वन मंत्रालय ने इन्हीं हालातों में जाने किस बिना पर, फिलहाल 50 लाख हेक्टेयर बेहतर और 50 लाख हेक्टेयर खराब किस्म के वन क्षेत्र को फिर लहलहाने की बात कही है।

बीते दिनों उत्तर प्रदेश के कुशीनगर जिले में जंगल से लकड़ी काट रहे तस्करों ने मुठभेड़ में निहत्थे फॉरेस्ट गार्ड्स को उसी आरे से रेत डाला जिससे वे पेड़ काट रहे थे। वन तस्करी के मामले में ये घटनाएं इसलिये दुस्साहसिक हैं क्योंकि वन तस्करों की वन कर्मियों से पंगे का मतलब, पानी रह कर मगर से वैर। स्थानीय मीडिया ने जब खबर को तरजीह देते हुए फॉलोऑन किया तो प्रशासन में हर ओर बेबसी और लाचारी ही दिखी। तस्करों के एक्सपर्ट लकड़हारे आम लकड़हारों की अपेक्षा पेड़ बेहद तेजी से काटते हैं। इसके अलावा पेड़ों की जड़ों में छाल को छील कर रिंग बना पोषण के रास्ते बंद कर देते हैं, जिससे पेड़ सूख जाते हैं। जंगलों में रोजाना कटते पेड़ों के मौके पर से निहत्थे वन रक्षकों को जान बचा कर भागना पड़ता है।

वन क्षेत्रों की सुरक्षा के लिये किया गया बंदोबस्त बिल्कुल लचर है। खबर है कि पुरु लिया में दिसम्बर 17-18, 1995 में कथित रूप से आनंदमार्गियों के लिये गिराये गये ए.के.47-56, और रॉकेट लांचर जैसे उन घातक हथियारों का उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में जखीरा है।

कोलकाता के विशेष सत्र न्यायालय को फरवरी 2000 में दी गयी सीबीआई की जानकारी के मुताबिक इनमें 500 ए.के.47 में से पुलिस महज 87 ही ढ़ूंढ पायी है जबकि इनकी 15 लाख से ज्यादा गोलियों में से ज्यादातर का कुछ पता नहीं है। परदेस में बैठे किम डेवी ने आखिर उन्हें किस चतुराई से कैसे और कहां गायब करा दिये जिनकी तलाश में पुलिस के अलावा जांच एजेंसियां भी मारी फिर रही हैं। खबरों के मुताबिक पश्चिम बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों में तस्करों और उनके संबंधियों के पास ये हथियार होने की आशंका है, जिनकी जरिये ये भयादोहन करते हैं।

लोहे को लोहा और विष को विष ही काटता है। लेकिन पुलिस को थाना दरबार से मरने की भी फुरसत नहीं जबकि वन रक्षकों को मिलीं खानदानी राइफलें और बंदूकें उंगलियों पर गिनने भर के लिये हैं। सवाल ढेरों उठते हैं। अहम यह कि बिन हथियार के रक्षक किस बात के रक्षक हुए। वन मंत्रालय अगर चाहे तो गृह मंत्रालय से बात कर वन रक्षकों को भी अत्याधुनिक हथियार फौरन मुहैया करा सकता है लेकिन अफसोस कि अपने उस लंबे-चौड़े हरित भारत मिशन में भी उसने इस दिशा में बंदोबस्त करना अब तक जरूरी नहीं समझा है।

वनों के साथ रक्षकों की आत्मरक्षा की खातिर हथियार मुहैया कराये जाने के बावत विभाग सालों से, सरकार से कोरी आस जगाये बैठा है। देश के अंतर्राज्यीय और अंतर्राष्ट्रीय दोनों सीमावर्ती और दूसरे क्षेत्रों के वनों को बचाने के लिए दर्जन भर विभागों को मिला कर टास्क फोर्स बनायी गयी है। फिर भी जाने कैसे पुलिस का तालमेल वन रक्षकों और अधिकारियों से बेहतर, वन तस्करों से हो जाता है।

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