ऐसे तो नहीं होगा प्रदूषण का खात्मा

3 Nov 2018
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वायु प्रदूषण
वायु प्रदूषण

प्रदूषण आज विश्व की सबसे बड़ी समस्या बनकर उभरा है। हर साल लाखों लोग इसका शिकार हो रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक विश्व के 90 फीसदी बच्चे प्रदूषित हवा में साँस लेने को मजबूर हैं, जिससे उनका शारीरिक एवं मानसिक विकास बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। निम्न एवं मध्यम आय वाले भारत जैसे देशों के बच्चे प्रदूषण से ज्यादा प्रभावित हैं। इन देशों के 98 फीसदी तक बच्चे पीएम 2.5 के बढ़ते स्तर से प्रभावित हैं, जबकि उच्च आय वाले देशों में ऐसे बच्चों का प्रतिशत 52 फीसदी आंका गया है। ये कण उनके फेफड़ों और कार्डियोवेस्कुलर सिस्टम में समा जाते हैं, जिसके चलते दिल का दौरा, फेफड़े की बीमारियाँ और कैंसर जैसी गम्भीर बीमारियाँ होती हैं।

डब्ल्यूएचओ की ही एक रिपोर्ट के मुताबिक, हर साल 70 लाख लोग प्रदूषित वातावरण में मौजूद महीन कणों के सम्पर्क में आने की वजह से मारे जाते हैं। इस समय विश्व में सबसे तेजी से आगे बढ़ रही अर्थव्यवस्था वाला देश भारत भी प्रदूषण की मार झेल रहा है। दुनिया में प्रदूषित हवा से होने वाली हर 4 मौतों में से एक भारत में रिकॉर्ड हो रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि दुनिया के 20 सबसे प्रदूषित शहरों की सूची में 14 भारत के हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि देश की राजधानी दिल्ली इस सूची में सबसे अव्वल है, जबकि कानपुर दूसरे और गुरुग्राम तीसरे नम्बर पर है। सिर्फ भारत में हर साल 20 लाख से ज्यादा लोग प्रदूषित हवा की वजह से मरते हैं। ये तादाद दुनिया में सबसे ज्यादा है।

साल 2016 की बात करें तो घरेलू और आम वायु प्रदूषण की वजह से 15 साल से कम उम्र के तकरीबन 6 लाख बच्चों की मौत हुई, जिसमें से करीब 11,000 बच्चों की मौत अकेले भारत में हुई है। हर साल सितम्बर के बाद से प्रदूषण से कैसे निपटा जाए इसको लेकर विभिन्न स्तरों पर कवायदें शुरू हो जाती हैं और जो काम सरकार को करना है, उसके लिये अदालत को आगे आना पड़ता है। बढ़ते वायु प्रदूषण की वजह क्या है, इसको लेकर ढेर सारी माथा-पच्ची आरोप-प्रत्यारोप और जाँच का सिलसिला शुरू होता है और जब तक रिपोर्ट आती है, तब तक मौसमी बदलाव और तेज हवाओं के बीच प्रदूषण खुद ही थोड़ा कम हो जाता है या बारिश राहत पहुँचा देती है और इस तरह समाधान के लिये हम फिर अगले साल प्रदूषण के आने का इन्तजार करते हैं।

वायु प्रदूषण बढ़ते अनियोजित उपभोक्तावाद तथा जनसंख्या के बढ़ते दबाव का नतीजा है और कहीं-न-कहीं अव्यवस्था और भ्रष्टाचार इसको और विकराल बना देता है। अगर शहरीकरण को जिम्मेदार माना जाए तो यूरोप सबसे अधिक प्रदूषित होता। उपभोक्तावादी सोच को अगर हम कठघरे में खड़ा करें तो अमरीका बहुत पहले प्रदूषित हो चुका होता। अक्सर इस मौसम में दिल्ली में घना कोहरा होता है और वायु तय मानकों से कहीं अधिक खराब हालत में रहती है, ऐसे में हम सीधा पड़ोसी राज्यों में पराली जलाने वालों पर इसका दोषारोपण करते हैं और उनको हतोत्साहित भी करते हैं, जबकि पराली जलाने का सिलसिला आज से नहीं है। हालांकि यह बात सही है कि इसको नहीं जलाना चाहिए लेकिन बढ़ते प्रदूषण का यह अकेला कारक नहीं हो सकता। पराली देशभर के कई राज्यों में जलाई जाती है, लेकिन सब जगह दिल्ली वाला हाल नहीं होता है। ऐसे ही वाहनों को भी बढ़ते प्रदूषण का जिम्मेदार ठहराया जाता है।

यह बात सही है कि कुछ शहरों पर वाहनों का दबाव अधिक है, मगर हम देखें तो पिछले कुछ सालों में सीएनजी से चलने वाले वाहनों की संख्या में लगातार इजाफा हुआ है मगर फिर भी उसका सकारात्मक असर हमारे पर्यावरण पर पड़ता नहीं दिख रहा है। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि दुनिया की तकरीबन 3 अरब आबादी या 40 प्रतिशत से ज्यादा लोगों के पास साफ-सुथरे कुकिंग फ्यूल और तकनीक के इस्तेमाल की सुविधा नहीं है, जो घर के भीतर होने वाले प्रदूषण की प्रमुख वजह है।

यानि प्रदूषण सिर्फ बाहर से ही नहीं, घर के भीतर भी एक बड़ी चुनौती है। बता दें कि भारत की जीडीपी का 8.5 प्रतिशत हिस्सा स्वास्थ्य देखभाल और प्रदूषण की वजह से होने वाले उत्पादकता नुकसान में जाता है और यह एक बड़ी चुनौती भी है। हेल्थ इफेक्ट्स इंस्टीट्यूट के अनुसार, सिर्फ 2015 में ही 1.1 मिलियन से ज्यादा मौतें अस्थमा और दिल की बीमारी की वजह से हुईं।

पिछली बार तो सुप्रीम कोर्ट को दिल्ली को गैस चैम्बर तक कहना पड़ा था और इसके बाद आधी-अधूरी तैयारियों के साथ ऑड-इवन और ऐसे कुछ प्रयास किये गए और लुटियन्स जोन्स में कई स्थानों पर मशीनें लगाई गईं। इस बार दीवाली के मौके पर भी उच्चतम न्यायालय ने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में सिर्फ दो घंटे के लिये सशर्त पटाखे जलाने की अनुमति दी है, जबकि पिछली बार पटाखे जलाने की अनुमति ही नहीं दी थी। यही नहीं, इस बार सिर्फ ऑर्गेनिक पटाखे बेचने की अनुमति ही दी है।

यह बात और है कि इस बार इनका निर्माण ही नहीं हुआ और ज्यादातर व्यापारियों को इसके बारे में ज्यादा जानकारी ही नहीं है। दिल्ली के प्रदूषण में बड़ा योगदान दिल्ली में उद्योग और लैंडफिल साइट का है, जिनके चलते करीब 23 फीसदी प्रदूषण होता है। इसके साथ ही कंस्ट्रक्शन, लोगों के जलाने वाले कूड़े, शवदाह, यानि विभिन्न स्रोतों का भी बड़ा योगदान है। इनसे दिल्ली में करीब 12 फीसदी प्रदूषण होता है, हल्की गाड़ियों से होने वाले प्रदूषण में इसका योगदान तकरीबन 40 प्रतिशत का है, जो कम नहीं है लेकिन इन सबकी वजह कहीं-न-कहीं हमारी जनसंख्या और अनियोजित शहरीकरण है साथ ही हमें माइनिंग और जंगलों की अन्धाधुन्ध हो रही कटाई को भी नहीं भूलना होगा, जिससे हमारे पर्यावरण को बहुत नुकसान उठाना पड़ रहा है। इसका सीधा असर हमारी आबो-हवा पर पड़ता है।

हालांकि डब्ल्यूएचओ की यह रिपोर्ट जिस समय आई है, वह चुनावी तैयारियों का समय है और गनीमत है कि दोनों ही राष्ट्रीय पार्टियाँ इस बार इसको मुद्दा बनाकर उठा रहीं हैं। इससे कुछ अच्छे संकेत मिलते हैं कि आने वाले वर्षों में प्रदूषण को भले ही हम खत्म न कर पाएँ लेकिन कम करने में जरूर सफल होंगे, जब तक सिस्टम से लेकर जनता के स्तर पर पर्यावरण को लेकर जागरुकता नहीं बढ़ेगी, तब तक हम हर साल इस मुद्दे पर सिर्फ बहस ही करते रहेंगे और साल-दर-साल यह समस्या और विकराल होती जाएगी।

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