आज भी अनसुलझा है गंगा की प्रदूषण मुक्ति का सवाल

गंगा नदी
गंगा नदी


आज गंगा की प्रदूषण मुक्ति का सवाल उलझ कर रह गया है। 2014 में राजग सरकार के अस्तित्व में आने के बाद से ही गंगा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की प्राथमिकताओं में सर्वोपरि है। नमामि गंगे मिशन उसी की परिणति है। आज राजग सरकार अपने कार्यकाल के तीन साल पूरे कर चुकी है लेकिन हालात इसके गवाह हैं कि गंगा बीते तीन सालों में सरकार की लाख कोशिशों के बाद भी प्रदूषण से मुक्त नहीं हो पाई है।

वह बात दीगर है कि गंगा की सफाई को लेकर सरकार के मंत्रियों ने बयानों के मामले में कीर्तिमान बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। इस मामले में केन्द्रीय जल संसाधन, गंगा संरक्षण एवं नदी विकास मंत्री उमा भारती शीर्ष पर हैं। जबकि हकीकत यह है कि गंगा की सफाई को लेकर सरकार की हर कोशिश बेकार रही है। रही बात एनजीटी की, गंगा एवं देश की अन्य नदियों की बदहाली, उनके अस्तित्व और उनके उज्जवल भविष्य को लेकर जितनी चिन्ता और दुख एनजीटी ने व्यक्त किया है, सरकारों को चेतावनियाँ दी हैं, निर्देश दिये हैं, उसकी जितनी भी प्रशंसा की जाये, वह कम है। लेकिन सबसे बड़े दुख की बात यह है कि बीते दो सालों में एनजीटी की लाख कोशिशों और सरकार द्वारा 7000 करोड़ रुपए की राशि गंगा सफाई की इस परियोजना पर खर्च किये जाने के बावजूद गंगा सफाई के मामले में लेशमात्र भी सुधार नहीं हुआ है। इसमें दो राय नहीं कि गंगा आज भी मैली है।

सरकार दावे भले कुछ भी करे असलियत में गंगा अपने मायके उत्तराखण्ड में ही मैली है। धर्मनगरी हरिद्वार में शहर का तकरीब आधे से ज्यादा सीवेज बिना शोधन सीधे गंगा में गिर रहा है। घाटों पर जगह-जगह कूड़े के ढेर दिखाई देते हैं। हर की पैड़ी सहित तमाम घाटों से गन्दगी सीधे गंगा में गिराई जाती है। यह कटु सत्य है कि गंगा में आज भी रोजाना 12 हजार एमएलडी सीवेज गिर रहा है। गंगा में आर्सेनिक, जस्ता सहित जानलेवा प्रदूषकों का स्तर लगातार बढ़ रहा है।

गंगा में क्रोमियम का स्तर तो तय मानक से 70 गुणा ज्यादा है। रही बात पारे की तो उसके स्तर में दिनोंदिन हो रही बढ़ोत्तरी के चलते जलजीवों के अस्तित्व पर ही संकट मँडराने लगा है। उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों से गंगा में तकरीब 760 औद्योगिक इकाइयों का रसायनयुक्त कचरा सीधे प्रवाहित किया जा रहा है। अकेले उत्तर प्रदेश में गंगा किनारे की तकरीब 6000 हेक्टेयर की जमीन पर अतिक्रमण कर अवैध निर्माण किया गया है। नतीजन वहाँ बने घरों का कचरा और मलयुक्त गन्दगी गंगा में बहाई जा रही है। वह चाहे बिजनौर हो, हस्तिनापुर हो, ब्रजघाट हो, अमरोहा हो, संभल हो, बुलन्दशहर का स्याना इलाका हो, कछला हो, कानपुर हो, बलिया हो, गाजीपुर हो, चन्दौली हो या मिर्जापुर, या फिर प्रधानमंत्री का चुनाव क्षेत्र बनारस हो, या पटना, बक्सर, खगड़िया, कटिहार, मुंगेर, भागलपुर या गंगा किनारे बसा कोई भी शहर ही क्यों न हो, कहीं भी सीवर की गन्दगी, कचरा गंगा में गिरने से रोकने का इन्तजाम नहीं है।

बनारस में गंगा किनारे के घाट भले ही साफ दिखाई देते हों, लेकिन वहाँ घाटों पर बने शौचालयों की गन्दगी, कुंतलों पूजन सामग्री, नौ नालों के जरिए दो सौ एमएलडी सीवेज सीधे गंगा में गिराया जा रहा है। नतीजन गंगा का पानी दूषित है। वह जानलेवा है। वह पुण्य नहीं, मौत का सबब है। ऐसी हालत में गंगा की शुद्धि की आशा बेमानी सी प्रतीत होती है।

इन हालातों के बीच बीते दिनों एनजीटी ने अपने अहम और कड़े फैसले में कहा है कि गंगा में यदि किसी भी तरह का कचरा फेंका जाता है तो, कचरा फेंकने वाले पर 50 हजार रुपए का पर्यावरण हर्जाना कहें या जुर्माना लगाया जाएगा। यही नहीं उसने हरिद्वार और उन्नाव के बीच के तकरीब 500 किलोमीटर के दायरे में गंगा नदी के किनारे के 100 मीटर की दूरी तक के इलाके को ‘गैर निर्माण जोन’ घोषित किया है। उसके अनुसार गंगा तट के 100 मीटर के दायरे में कोई निर्माण या विकास कार्य नहीं किया जा सकेगा। ऐसा करने वाले के खिलाफ सख्त कार्यवाही की जाएगी।

जस्टिस स्वतंत्र कुमार की अध्यक्षता वाली एनजीटी की पीठ ने पर्यावरणविद एम सी मेहता द्वारा 1985 में सुप्रीम कोर्ट में दायर एक याचिका पर जो 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने एनजीटी को सौंपी, उस पर दिये अपने 543 पृष्ठ के ऐतिहासिक फैसले में कहा है कि उसके फैसले के पालन की निगरानी करने के लिये इस बाबत रिपोर्ट पेश करने के लिये पर्यवेक्षक समिति का गठन किया है। यह समिति नियमित अन्तराल पर रिपोर्ट पेश करेगी। साथ ही कचरा निस्तारण संयंत्र के निर्माण और दो वर्ष के भीतर नालियों की सफाई सहित सम्बन्धित विभागों से विभिन्न परियोजनाओं को पूरा करने के निर्देश दिये।

गौरतलब है कि एनजीटी ने इससे पूर्व गंगा बेसिन में कचरा फेंक रहे बिजली संयंत्रों से पूछा था कि उन्होंने नदी को प्रदूषित होने से रोकने के लिये क्या उपाय किये हैं। साथ ही एनजीटी की जस्टिस स्वतंत्र कुमार की पीठ ने पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन और बिजली मंत्रालय से कहा था कि वे इस बाबत बैठक करें और अपनी टिप्पणियों के साथ हलफनामा दाखिल करें।

एनजीटी के इस फैसले से कोई अभूतपूर्व बदलाव आएगा, इसमें सन्देह है। कारण एनजीटी के अनुसार गंगा तट के 100 मीटर की दूरी तक कोई विकास कार्य या निर्माण कार्य नहीं हो सकेगा। लेकिन उसके बाद न तो किसी निर्माण या विकास कार्य पर पाबन्दी है, उस दशा में वहाँ किसी भी तरह का निर्माण किया जा सकेगा, उस पर कोई रोक नहीं होगी और उस पर जुर्माना भी नहीं किया जा सकेगा। लेकिन वहाँ की गन्दगी, कचरा कहाँ जाएगा। वहाँ औद्योगिक प्रतिष्ठान की स्थापना के बारे में भी कोई रोक नहीं है। उसके विषाक्त अवशेष के निस्तारण की व्यवस्था कौन करेगा, इसकी जिम्मेवारी किसकी होगी। इसका इस फैसले में कोई जिक्र नहीं है।

स्वाभाविक है प्रदूषण में बढोत्तरी होगी। वहाँ का कचरा कहाँ जाएगा, इसका कहीं भी उल्लेख नहीं है। फिर सर्वविदित है कि जब नदियों में बाढ़ आती है तो वह अपने बहाव क्षेत्र के साथ-साथ मीलों दूर तक के इलाके को अपनी चपेट में ले लेती हैं। उस दशा में वह उस समूचे इलाके की गन्दगी को बहा ले जाती हैं। नतीजन नदी तो गन्दी ही रहेगी। ऐसी स्थिति में इस फैसले से कोई बड़ा बदलाव तो आने वाला नहीं है। इस तरह के फैसले पहले भी आते रहे हैं। इस बाबत बहुतेरे कदम भी पहले उठाए गए हैं। लेकिन गंगा साफ नहीं हुई। हाँ इस फैसले से सरकार की गंगा किनारे सौन्दर्यीकरण की योजना पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। जाहिर है सौन्दर्यीकरण की इस योजना से भी गंगा तट क्रंक्रीट के जंगल में बदल जाता। इससे गंगा की सफाई का दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है। फिर गंगा के मायके यानी उत्तराखण्ड में गंगा पर तकरीब 350 बाँधों के निर्माण की योजना से गंगा न तो अविरल रह पाएगी और न ही शुद्ध। उसमें धीरे-धीरे पानी कम होता जाएगा और एक दिन वह मर जाएगी। जबकि पर्यावरण की दृष्टि से बाँध विकास नहीं, विनाश के प्रतीक हैं।

हालात गवाह हैं कि सरकार विकास रथ पर आरूढ़ है। उसे न पर्यावरण की चिन्ता है और न गंगा के जीवन की। असल में एनजीटी के इस ‘गैर निर्माण जोन’ के फैसले से कोई खास फर्क नहीं पड़ने वाला। असल मुद्दा तो प्रदूषण का है, वह चाहे रसायनयुक्त औद्योगिक अपशिष्ट हो, सीवेज का मसला हो या फिर गन्दगी या कूड़ा कचरे का हो, नालों की गन्दगी का हो, जब तक इनका गंगा में गिरना बन्द नहीं किया जाएगा, गंगा की शुद्धि का सवाल अनसुलझा ही रहेगा। यदि यही हाल रहा तो इसमें दो राय नहीं कि देश के 11 राज्यों की तकरीब 40 फीसदी आबादी की जीवनदायिनी गंगा दिन-ब-दिन मरती चली जाएगी।
 

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