आखिर कौन बचाएगा प्राकृतिक आपदाओं से हमें

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इंटरनेशनल नेचुरल डिजास्टर रिडक्शन दिवस, 13 अक्टूबर 2015 पर विशेष


.आपदाएँ कभी कह कर नहीं आतीं। इसलिये उनसे बचाव के प्रयास आपदा के समय सरकारें यथासम्भव करती ही हैं। इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता। फिर भी आपदा से होने वाले नुकसान की भरपाई नहीं की जा सकती। हाँ उसे कुछ हद तक कम जरूर किया जा सकता है। इस कटु सत्य को झुठलाया भी नहीं जा सकता। इसमें दो राय नहीं है। उस स्थिति में जबकि भारत में आपदाओं की आशंका हर समय बनी रहती है।

सबसे बड़ी बात तो यह है कि हमारे देश में खासकर पर्यावरण से जुड़ी आपदाएँ सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और पारिस्थितिकीय क्रियाओं के बीच के दुरूह और जटिल पारम्परिक-पारस्परिक प्रभावों के कारण घटित होती हैं। इनमें प्रमुख हैं बाढ़, ओलावृष्टि, चक्रवाती तूफान, सूखा, भूकम्प, शीत लहर, लू और सुनामी आदि-आदि जो हर साल कमोबेश हजारों-लाखों जिन्दगियों को अनचाहे मौत के मुँह में खींच ले जाती हैं और हम मूकदर्शक बने देखते रहने को विवश हैं।

इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि हमारे यहाँ प्राकृतिक आपदाओं के इतने भयावह खतरों के बावजूद उनसे निपटने की तैयारियाँ आधी-अधूरी है। या इसे यूँ कहें कि उन तैयारियों का पूरी तरह अभाव है, तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। दरअसल इस साल भारत समेत कई देश भयंकर सूखे की चपेट में हैं।

वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि इस साल प्रशान्त महासागर में अलनीनों के विकराल रूप धारण कर लेने के कारण समूचे दक्षिण-पूर्व एशिया की तकरीब एक अरब से ज्यादा आबादी किसी-न-किसी आपदा की शिकार होगी। भारत से लेकर पापुआ न्यूगिनी तक भयंकर सूखा पड़ेगा और पश्चिमी प्रशान्त महासागर क्षेत्र के देशों में सुपर टाइफून भीषण तबाही मचाएँगे, गर्मी अपना विकराल रूप धारण करेगी। मौजूदा हालात वैज्ञानिकों के दावों की जीती-जागती मिसाल है।

असलियत यह है कि मानसून के उत्तरार्द्ध में मध्य और दक्षिण भारत में गंगानदी घाटी के ऊपरी हिस्से में बारिश औसत के नीचे होने के कारण सूखे का संकट गहरा गया है। इसका प्रभाव दक्षिण पूर्व एशिया के भारत, चीन, मलेशिया, इंडोनेशिया और पापुआ न्यूगिनी में विकराल रूप धारण कर लेगा।

नतीजन इसके कुछ इलाकों में पॉम ऑयल, ज्वार, गेहूँ और धान की पैदावार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। अन्तरराष्ट्रीय अमरीकी मौसम विज्ञानी जैसन निकोल्स की मानें तो अलनीनों के कारण इस समय पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी-पूर्वी भारत सूखे की भयंकर चपेट में है।

देश में आज तकरीब 300 जिले सूखे की चपेट में हैं। सरकार द्वारा चलाई जाने वाली बीमा योजनाएँ किसानों के लिये छलावा साबित हो रही हैं। वे तो किसानों के बजाय बीमा कम्पनियों के लिये अधिक लाभ का सौदा साबित हो रही हैं।

किसान खुद को ठगा सा महसूस कर रहा है। एसोचैम स्काइमेट का अध्ययन इसका खुलासा करता है। यह स्थिति की भयावहता का सबूत है। सूखे की मार के चलते देश में किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा। आये-दिन इसमें हो रहा इजाफा चिन्तनीय है। चिन्ता की बात तो यह है कि सरकार और समाज इसका हल ढूँढ पाने में नाकाम रहे हैं। यह विचारणीय है।

पिछले साल अधिक बारिश और ओलावृष्टि के चलते भारी मात्रा में बर्बाद फसल का मुआवजा किसान को आज तक नहीं मिल सका है। उसके ऊपर कपास के किसानों की बदहाली ने तो उनकी कमर ही तोड़ दी है। उनकी बदहाली का जायजा इसी से लग जाता है कि आज से पहले कपास के उत्पादक ये किसान कर्नाटक, तेलंगाना, आन्ध्र, महाराष्ट्र और गुजरात में आत्महत्या करने को विवश थे, लेकिन अब वे तंगहाली में पंजाब में भी आत्महत्या करने को मजबूर हैं।

इसका मुख्य कारण सफेद मक्खी है जिसने उनकी कपास की फसल चौपट कर दी है। विडम्बना यह कि इसके बावजूद किसानों को आपदा से बचाने की दिशा में कोई कारगर प्रयास दिखाई नहीं दे रहे। न ही कोई मुआवजा नीति ही ऐसी है जिससे किसानों को राहत मिल सके। हालत यह है कि इस दिशा में देश में आजादी के छह दशक बाद भी कुछ नहीं बदला।

आधुनिक विज्ञान और तकनीक के जरिए फसल के नुकसान और उसके उचित मूल्यांकन के साथ मुआवजे की ऐसी योजना बनाई जाये जो सभी पक्षों को स्वीकार्य हो। प्राचीनकालीन परम्पराओं का पूर्वजों के अनुभवों के साथ ईमानदारी और सूझ-बूझ से प्रयोग किया जाये जिसके चलते अकाल और सूखे जैसे हालात का देश को सामना न करना पड़े और योजना निर्माण में व्यापक दृष्टिकोण हो तभी कुछ बदलाव की उम्मीद की जा सकती है और आपदा के प्रभाव को कुछ हद तक कम किया जा सकता है।सरकार आज भी अंग्रेजों के नक्शेकदम पर ही चल रही है। किसानों के आगे सरकार चंद कागज के टुकड़े डालकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेती है। दुख की बात यह है कि इन राहत के चन्द टुकड़ों के लिये भी उसे सरकारी दफ्तरों के चक्कर-दर-चक्कर काटने पड़ते हैं। वह भी मिल जाये तो गनीमत समझो। कारण फसल के नुकसान का सही मूल्यांकन भी आसान नहीं होता। इसमें भी सरकारी नियम-कायदे आड़े आ जाते हैं।

नियम के अनुसार प्राकृतिक आपदा का मुआवजा तब तक उस किसान को नहीं मिल सकता जब तक कि उस किसान के आसपास के क्षेत्र में उस आपदा से बड़े पैमाने पर नुकसान न हुआ हो। यह सब पटवारी की इच्छा पर निर्भर करता है। इसके लिये आज तक कोई पैमाना ही नहीं बना। वे तो तैंतीस प्रतिशत से ज्यादा मुआवजे की पर्ची बनाते ही नहीं चाहे किसान का कितना भी बड़ा नुकसान क्यों न हुआ हो।

ऐसा लगता है कि जैसे सरकारी कर्मचारियों-अधिकारियों के दिलोदिमाग का दिवाला निकल गया है। बिना रिश्वत के किसान को मुआवजा मिल पाएगा इसमें सन्देह है। यह स्थिति हरेक आपदा के समय होती है। वह चाहे बाढ़ की स्थिति हो, ओलावृष्टि हो, तूफान हो, शीतलहर हो, भूकम्प हो, सूखा हो या फिर चक्रवाती तूफान या लू वगैरह कोई भी क्यों न हो, सरकारी कर्मचारी-अधिकारी सभी का रवैया एक जैसा ही रहता है। इसे नेता-अफ़सर और मंत्री सब जानते हैं।

सूखा राष्ट्रीय आपदा है, कह देने भर से काम नहीं चलता। उससे निपटने को तो दृढ़ इच्छा और संकल्पशक्ति चाहिए जिसका नेतृत्व में पूर्णतः अभाव दृष्टिगोचर होता है।

वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि देश में पड़े सूखे की भयावहता से नेपाल, दक्षिण-मध्य चीन में तूफान की स्थितियाँ पैदा होंगी। हिमालय क्षेत्र में जल्दी सीजन की शुरुआत होगी। इसके अलावा चीन, कोरिया, ताइवान और जापान में सुपर टाइफून का खतरा अक्टूबर माह के आखिर तक बना रहेगा। दरअसल आज देश का तकरीब 70 फीसदी से अधिक इलाका चक्रवर्ती तूफान और सुनामी की आशंका के साये में रहने को विवश है। जबकि तकरीब 60 फीसदी हिस्सा भूकम्प की आशंका से ग्रस्त रहता है।

इसके अलावा तकरीब 12 फीसदी से अधिक का इलाका बाढ़ की आशंका से घिरा रहता है। बाढ़ से तकरीब देश को 7.8 अरब डालर का नुकसान उठाना पड़ता है। जबकि और आपदाओं को मिलाकर हमारा देश कुल मिलाकर 9.8 अरब डालर का नुकसान उठाता है। यह विचारणीय है। वह बात दीगर है कि हमारी एनडीआरएफ की टीमों ने नेपाल में आये विनाशकारी भूकम्प के दौरान बहुत ही सराहनीय और प्रशंसनीय कार्य किया है लेकिन इस सच्चाई से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि वह कुशल मानव संसाधन, प्रशिक्षण और अतिआधुनिक साजोसामान की कमी का सामना कर रही है।

कैग की रिपोर्ट ने इस तथ्य का खुलासा कर दिया है कि आपदा प्रबन्धन का आपदा न्यूनीकरण योजनाओं में प्रदर्शन बेहद खराब है। असलियत में हमारे यहाँ राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन एजेंसी का दायित्व आपदा प्रबन्धन की खातिर योजनाओं, नीतियों के निर्माण और उसकी दशा-दिशा के निर्धारण का है लेकिन वह अपने दायित्व का सही ढंग से निर्वहन में नाकाम रही है।

ऐसी स्थिति में एक ऐसी आपदा प्रबन्धन एजेंसी की महती आवश्यकता है जिसमें तात्कालिक रूप से निर्णय लेने की क्षमता हो जिसके दूरगामी प्रभाव हों। उसकी स्पष्ट पुनर्वास नीति हो, आधुनिक विज्ञान और तकनीक के जरिए फसल के नुकसान और उसके उचित मूल्यांकन के साथ मुआवजे की ऐसी योजना बनाई जाये जो सभी पक्षों को स्वीकार्य हो।

प्राचीनकालीन परम्पराओं का पूर्वजों के अनुभवों के साथ ईमानदारी और सूझ-बूझ से प्रयोग किया जाये जिसके चलते अकाल और सूखे जैसे हालात का देश को सामना न करना पड़े और योजना निर्माण में व्यापक दृष्टिकोण हो तभी कुछ बदलाव की उम्मीद की जा सकती है और आपदा के प्रभाव को कुछ हद तक कम किया जा सकता है।

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