आखिर क्या है हिमालय पर संकट की हकीकत

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हिमालय दिवस 9 सितम्बर 2015 पर विशेष


आज समूचा हिमालय क्षेत्र संकट में है। इसका प्रमुख कारण इस समूचे क्षेत्र में विकास के नाम पर अन्धाधुन्ध बन रहे अनगिनत बाँध हैं। दुख इस बात का है कि हमारे नीति-नियन्ताओं ने कभी भी इसके दुष्परिणामों के बारे में सोचा तक नहीं। वे आँख बन्द कर इस क्षेत्र में पनबिजली परियोजनाओं को ही विकास का प्रतीक मानकर उनको स्वीकृति-दर-स्वीकृति प्रदान करते रहे, बिना यह जाने-समझे कि इससे पारिस्थितिकी तंत्र को कितना नुकसान उठाना पड़ेगा।

पर्यावरण प्रभावित होगा वह अलग जिसकी भरपाई असम्भव होगी। उस स्थिति में जबकि दुनिया के वैज्ञानिकों ने इस बात को साबित कर दिया है कि बाँध पर्यावरण के लिये भीषण खतरा हैं और दुनिया के दूसरे देश अपने यहाँ से धीरे-धीरे बाँधों को कम करते जा रहे हैं। अब सवाल यह उठता है कि यदि यह सिलसिला इसी तरह जारी रहा तो इस पूरे हिमालयी क्षेत्र का पर्यावरण कैसे बचेगा।

सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि हमारी सरकार और देश के नीति-नियन्ता, योजनाकार यह कदापि नहीं सोचते-विचारते कि हिमालय पूरे देश का दायित्व है। वह देश का भाल है, गौरव है, स्वाभिमान है। प्राण है। जीवन के सारे आधार यथा- जल, वायु, मृदा सभी हिमालय की देन हैं। देश की तकरीब 65 फीसदी आबादी का आधार हिमालय ही है क्योंकि उसी के प्रताप से वह फलीभूत होती है। और यदि उसी हिमालय की पारिस्थितिकी प्रभावित होती है तो देश प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगा।

इस सच्चाई कों झुठलाया नहीं जा सकता। ऐसे हालात में आज जरूरत इस बात की है और वैज्ञानिक, पर्यावरणविद और समाजविज्ञानी सभी मानते हैं कि हिमालय की सुरक्षा के लिये सरकार को इस क्षेत्र में जल, जंगल और ज़मीन को बचाने के लिये पर्वतीय क्षेत्र के विकास के मौजूदा मॉडल को बदलना होगा। यही नहीं उसे बाँधों के विस्तार की नीति भी बदलनी होगी। क्योंकि बाँधों से नदियाँ तो सूखने लगती ही हैं, इसके पारिस्थितिकीय खतरों से निपटना भी आसान नहीं होता।

यदि एक बार नदियाँ सूखने लगती हैं तो फिर वे हमेशा के लिये खत्म हो जाएँगी। परिणामतः मानव अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। शायद इसी खतरे को भाँपते हुए देश के राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने बीते 20 मई को राष्ट्रपति भवन में आयोजित दुनिया की सबसे ऊँची चोटी माउंट एवरेस्ट पर पहले भारतीय पर्वतारोही दल की ऐतिहासिक जीत की स्वर्ण जयंती समारोह के अवसर पर कहा कि हिमालय को प्रदूषण से बचाना आज की सबसे बड़ी चुनौती बन गया है।

इसलिये इस क्षेत्र में पारिस्थितिकी संरक्षण के लिये काम करने की महती आवश्यकता है। कारण हिमालय पर पारिस्थितिकी का खतरा बढ़ गया है। इस स्थिति में हिमालय पर पर्यावरण संरक्षण के लिये काम करना सबसे बड़ी सेवा है।

विडम्बना यह कि इस बात को सरकार और उसके कार-कुरान मानने को कतई तैयार नहीं हैं। ऐसा लगता है कि वे विकास के फोबिया से ग्रस्त हैं। उन्हें न तो पर्यावरण की चिन्ता है और न मानव जीवन की। उनके लिये तो नदी मात्र जल की बहती धारा है, इसके सिवाय कुछ नहीं।

उन्होंने हिमालय से निकलने वाली नदी की उस जल धारा को केवल-और-केवल बिजली पैदा करने का स्रोत माना। इसी स्वार्थी प्रवृत्ति ने हिमालय का सर्वनाश किया। वह चाहे हिमालय के उत्तर-पूर्व हों या पश्चिमी राज्य सभी ने पर्यावरण के सवाल को महत्ता नहीं दी बल्कि उसे दरकिनार करने में ही अपनी भलाई समझी। नतीजन इसी सोच के चलते हिमालय के अंग-भंग होने का सिलसिला आज भी थमा नहीं है और उसकी तबाही बेरोकटोक जारी है। इसमें हिमालयी राज्यों ने अहम् भूमिका निभाई है।

उत्तराखण्ड के रूप में अलग राज्य बनने के बाद इसमें और बढ़ोत्तरी हुई। इसे नकारा नहीं जा सकता। इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण काम यह हुआ कि पर्यावरण का सवाल पृष्ठभूमि में धकेल दिया गया। यानी उसको पूरी तरह नजरअन्दाज कर दिया गया। असलियत में वर्तमान में सरकारों का एकमात्र लक्ष्य विकास होकर रह गया है, पर्यावरण संरक्षण नाम का शब्द तो उनके शब्दकोश में अब है ही नहीं। वह तो विकास का सबसे बड़ा विरोधी है या यूँ कहें कि वह विकास के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है।

उनकी दृष्टि में नदी का मानव जीवन और औद्योगिक हित में दोहन ही उसका सही मायने में उपयोग है अन्यथा नहीं यानी फिर तो वह निरर्थक है। उस स्थिति में जबकि यह पूरा-का-पूरा क्षेत्र भूकम्प के लिहाज से अति संवेदनशील है। तात्पर्य यह कि सिस्मिक जोन पाँच में होेने के कारण इस क्षेत्र में भूकम्प का हमेशा खतरा बना ही रहता है। फिर जल-विद्युत परियोजनाओं की खातिर सुरंग बनाने हेतु किये जाने वाले विस्फोट के परिणामस्वरूप वहाँ रहने-बसने वालों के घर तो तबाह होते ही हैं, वहाँ के जल स्रोत भी खतरे में पड़ जाते हैं।

विशेषज्ञ मानते हैं कि हिमालयी क्षेत्र से निकलने वाली नदियों और वनों को यदि समय रहते नहीं बचाया गया तो इसका दुष्प्रभाव पूरे देश पर पड़े बिना नहीं रहेगा। यदि हिमालय बचेगा, तभी नदियाँ बचेंगी और तभी इस क्षेत्र में रहने-बसने वाली आबादी का जीवन भी सुरक्षित रह पाएगा। असलियत यह है कि विकास के ढेरों दावों के बावजूद अभी भी हिमालय क्षेत्र में रहने वाली तकरीब 80 फीसदी आबादी सरकारी योजनाओं के लाभ से वंचित है। उनके जीवन में आज भी सुधार नहीं आ पाया है जिसकी वजह से वह पलायन को विवश हैं।

इतिहास गवाह है कि कोई भी अपनी ज़मीन छोड़ना नहीं चाहता। यानी अपनी जड़ों से अलग होना नहीं चाहता लेकिन भूख उन्हें इसके लिये विवश कर देती है। यह सच है कि यदि विकास का लाभ उन्हें मिला होता तो वे किसी भी कीमत पर अपनी जड़ों को छोड़ना, उससे अलग होना कतई पसन्द नहीं करते। देखा जाये तो हिमालय का देश से सीधा सम्बन्ध है।

हिमालय से निकली नदियों की हमारे देश में हरित और श्वेत क्रान्ति में महती भूमिका है। सभ्यता का विकास भी इन्हीं नदियों के किनारे हुआ है जिन पर हम गर्व का अनुभव करते हैं। इन्हीं नदियों पर बने बाँध देश की उर्जा सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति की दिशा में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं। लेकिन विडम्बना देखिए कि उसी हिमालय क्षेत्र के तकरीब 40 से 50 फीसदी गाँव आज भी अंधेरे में रहने को विवश हैं।

यही नहीं तकरीब 60-65 फीसदी देश के लोगों की प्यास बुझाने वाला हिमालय अपने ही लोगों की प्यास बुझाने में असमर्थ है। समूचे हिमालयी क्षेत्र में पीने के पानी की समस्या है। वहाँ की खेती तक मानसून पर निर्भर है। और यदि मानसून समय पर नहीं आया तो खेती पानी के लिये तरसती है। जो हिमालय पूरे देश को प्राणवायु प्रदान करता है, उसके हिस्से में मात्र वह तीन फीसदी ही आती है। जाहिर है कि यह सब यहाँ के वनों के कारण ही सम्भव हुआ है। लेकिन वह उससे भी वंचित है।

सरकार हिमालय से निकलने वाली नदी की उस जल धारा को केवल-और-केवल बिजली पैदा करने का स्रोत माना। इसी स्वार्थी प्रवृत्ति ने हिमालय का सर्वनाश किया। वह चाहे हिमालय के उत्तर-पूर्व हों या पश्चिमी राज्य सभी ने पर्यावरण के सवाल को महत्ता नहीं दी बल्कि उसे दरकिनार करने में ही अपनी भलाई समझी। नतीजन इसी सोच के चलते हिमालय के अंग-भंग होने का सिलसिला आज भी थमा नहीं है और उसकी तबाही बेरोकटोक जारी है। इसमें हिमालयी राज्यों ने अहम् भूमिका निभाई है। गौरतलब है कि पर्यावरण विनाश का सबसे ज्यादा प्रभाव सबसे पहले हिमालय पर ही पड़ता है। कारण इसका अत्यन्त संवेदनशील होना है जिसके चलते सबसे पहले पर्यावरण से की गई छेड़छाड़ का सीधा असर यहीं पर होता है जिसके कारण हिमालय हिलता है। भूकम्प, बाढ़ आदि आपदाएँ इसका जीता-जागता प्रमाण हैं। उत्तराखण्ड की भीषण त्रासदी भी इसी का प्रतीक है। ऐसा लगता है कि ये आपदाएँ हिमालयी क्षेत्र की नियति बन चुकी हैं।

इसमें दो राय नहीं कि देश के पूर्वोत्तर राज्यों नेपाल और चीन से लगे सीमावर्ती इलाके का समूचा हिमालयी क्षेत्र लम्बे समय से विनाशकारी भूकम्पों की तबाही झेलता रहा है। दरअसल यह पूरा-का-पूरा हिमालयी क्षेत्र भारतीय और यूरेशियन प्लेटों के टकराहट वाले भूगर्भीय क्षेत्र में आता है। भूगर्भ में यूरेशियन प्लेटों की टक्कर से भारतीय प्लेटें हर साल 45 मिलीमीटर की दर से उसके नीचे खिसक रही हैं। प्लेटों में टकराहट के दौरान दबाव से बनी उर्जा भूकम्प के रूप में बाहर निकलती हैं।

जब लम्बे समय तक उर्जा बाहर नहीं निकल पाती, तो सीस्मिक गैप यानी भूकम्पीय अन्तराल पैदा हो जाता है। नतीजन बड़े प्रभावशाली भूकम्प का खतरा बढ़ जाता है। बीते दिनों नेपाल में आया विनाशकारी भूकम्प इसका प्रमाण है।

इसके अलावा 01 सितम्बर 1805 को गढ़वाल में चमोली और उत्तरकाशी के बीच आया भूकम्प, 26 अगस्त 1833 को पश्चिम काठमांडू में आया भूकम्प, 12 जून 1897 को शिलांग में आया भूकम्प, 4 अप्रैल 1905 को कांगड़ा घाटी में आया भूकम्प, 03 जुलाई 1930 को धुबरी में आया भूकम्प, 15 जनवरी 1934 को नेपाल-बिहार सीमा पर आया भूकम्प, 29 जुलाई 1947 को ऊपरी असम, अरुणाचल और तिब्बत में आया भूकम्प, 15 अगस्त 1950 को असम, अरुणाचल, तिब्बत और सिक्किम-भूटान में आया भूकम्प, 30 मई 1985 को बारामूला, श्रीनगर में आया भूकम्प और 8 अक्टूबर 2005 को पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में आये भूकम्प इस बात के प्रमाण हैं कि हिमालय क्षेत्र में भूगर्भीय अन्तराल के चलते भूकम्प आते रहते हैं जो महाविनाश के कारण बने हैं।

ये भूकम्प यह साबित करते हैं कि इस हिमालयी क्षेत्र में भूकम्प का खतरा हमेशा बना ही रहता है। इसलिये अब आवश्यकता इस बात की है कि सत्ता प्रतिष्ठान इस हिमालयी क्षेत्र की पारिस्थितिकी की वजहों के हल तलाशें और ऐसे विकास को तरजीह दें ताकि पर्यावरण की बुनियाद मजबूत हो और उसे व्यापक बनाने की दिशा में अनवरत प्रयास किये जाते रहें। तभी कुछ बदलाव की उम्मीद की जा सकती है।

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