बच्चों को लेकर हमारा समाज और हमारा राज्य किस कदर उदासीन हो गया है जो झोपड़पट्टियों में रहते हैं और जो बालश्रम निरोधक कानून पारित होने के बावजूद बन्धुआ मजदूर की तरह काम करते हैं।फीचर फिल्में डॉक्यूमेंट्री नहीं होतीं। दोनों की बनावट और व्याकरण अलग होते हैं। लेकिन कभी कभार ऐसा भी होता है कि कोई-कोई फीचर फिल्म किसी डॉक्यूमेंट्री फिल्म की तरह किसी खास समस्या को भी रेखांकित कर जाती है। हाल ही में प्रदर्शित हुई फिल्म ‘हवा हवाई’ (निर्देशक-अमोल गुप्ते) एक ऐसी ही फिल्म है जो महानगरों की झोपड़पट्टियों में रहनेवाले बच्चों की बाहरी जिंदगी और भीतरी मन में प्रवेश करती है। वैसे तो ये फिल्म स्केटिंग के खेल के बहाने जीवन में कर्मठता, कल्पनाशीलता और जिजीविषा की कहानी है, पर साथ ही भीतर एक ध्वनि ये भी गूंजती रहती है कि उन बच्चों को लेकर हमारा समाज और हमारा राज्य किस कदर उदासीन हो गया है जो झोपड़पट्टियों में रहते हैं और जो बालश्रम निरोधक कानून पारित होने के बावजूद बन्धुआ मजदूर की तरह काम करते हैं।
ये पांच बच्चों की कहानी है जो मुंबई की धारावी में रहते हैं। इनमें से एक चाय की दुकान पर रात में चाय बेचता है। दूसरा अपनी मां के साथ कूड़ा बटोरने का धंधा करता है। तीसरा ऑटो वर्कशाप में मैकेनिक है। चौथा गजरा बेचता है और पांचवां सिलाई का काम करता है। जो चाय बेचता है उसे स्केटिंग का शौक है लेकिन पास में इतने पैसे नहीं हैं कि हजारों रुपये की कीमतवाले स्केटिंग के जूते खरीद सके। इसलिए उसके बाकी के चारों दोस्त मिलकर कूड़े कचरे में मिली चीजों के सहारे स्केंटिग का जूता बनाते हैं जिसका नाम वे ‘हवा हवाई’ रखते हैं। अपने दोस्तों से मिले सहयोग के सहारे चाय बेचने वाला लड़का अन्ततः स्केटिंग की प्रतियोगिता में विजयी होता है।
हमारे यहां विषमता की खाई इतनी गहरी हो गयी है कि भारतीय समाज के एक बड़े हिस्से के बच्चों का बचपन का अर्थ ही बदल गया है।हालांकि प्रतियोगिता में विजयी होना इस फिल्म के विषय-वस्तु का एक अलग पक्ष है लेकिन जो बात यहां प्रासांगिक है वो ये कि हमारे यहां विषमता की खाई इतनी गहरी हो गयी है कि भारतीय समाज के एक बड़े हिस्से के बच्चों का बचपन का अर्थ ही बदल गया है।
फिल्म में लगभग दस से पन्द्रह सेकेंड का एक दृश्य है जिसे कोई भूल नहीं जाएगा। होता ये है कि जब चाय बेचने वाले लड़के के लिए स्केंटिग का जूता कहां से लाया जाये इस बात पर चर्चा होनी होती है तो कूड़ा बटोरनेवाला लड़का कूड़े के विशाल ढेर पर अपनी मां और दूसरी औरतों के साथ बैठा हुआ है। ये औरतें आपस में बतिया रही हैं। जब बाकी लड़के कूड़े बटोरने वाले लड़के को बुलाने जाते हैं तो वो कूड़े के पहाड़काय ढेर से फिसलते हुए इस तरह उतरता है, गोया उसे गहरे आनन्द की अनुभूति हो रही हो। उसके चेहरे पर एक अनिर्वचनीय आनन्द की अनुभूति है।
ये एक छोटा-सा दृश्य इस बात का बड़ा वक्तव्य बन जाता है कि हमारे समाज में आनन्द की अनुभूति के अलग-अलग मायने हो गये हैं। विषमता और गरीबी ने आनन्द की एक ऐसी ‘समानान्तर परिभाषा’ गढ़ दी है जो पारम्परिक परिभाषा से न सिर्फ अलग है बल्कि हृदयविदारक और क्रूर भी है। क्या जो बच्चा कूड़े के पर्वतनुमा ढेर से खुशी का इजहार करते हुए फिसलते हुए उतर रहा है कभी इस बात का एहसास कर पाएगा कि किसी फूलों की घाटी से फिसलते हुए उतरने का आनन्द क्या है? और अगर कहीं उसे अपनी भावी जिन्दगी में सचमुच ही किसी फूलों की घाटी में फिसलते हुए उतरने का आनन्द मिला, तो वो अपनी उस अनुभूति को कैसा याद करेगा जब उसका कर्मस्थल कूड़े का हिमालय (या कूड़ालय) हुआ करता था?
बात सिर्फ पर्यावरणीय असन्तुलन की नहीं हैं। हमारे बड़े-बड़े शहरों में रोजाना इतना कूड़ा इकट्ठा हो रहा है कि उससे कई उत्तुंग शिखर बन जाएं। इसीलिए हमारे शहरों में दो या कई केन्द्र हो गये हैं। एक वो जो चकाचक इलाके का होता है और दूसरा वो जहां कूड़ा इकट्ठा किया जाता है। विकास और बेतहासा आर्थिक वृद्धि की दौड़ में हम न सिर्फ प्रकृति को बल्कि मानव जीवन को हो प्रदूषित कर रहे हैं।
और बाकी चीजों को फिलहाल छोड़ दें और सिर्फ बच्चों के बारे में सोचें तो हर शहर, चाहे वो बड़ा हो या छोटा अपने भीतर दो तरह के संसारों को बना रहा है। एक संसार वो है जिसमें बच्चे सुबह स्कूलों में जाते हैं, साफ-सुथरे रहते हैं और शाम को स्केटिंग, बैडमिंटन या टेनिस जैसे खेल खेलते हैं। दूसरी तरफ वे बच्चे हैं जो सुबह से ही इस जुगाड़ में घर छोड़ देते हैं कि शाम तक अधिक से अधिक कूड़ा बटोरा जाए (या इसी तरह का कोई और काम किया जाए) ताकि घर का खर्च निकल सके या रोटी का जुगाड़ हो सके।
कूड़ा बटोरते-बटोरते वो उसमें आनन्द भी लेने लगता है। आखिर वो करे भी क्या? जीवन तो जीना है। फिर उमंग के साथ क्यों न जिया जाए? मगर इस उमंग या आंनद को क्या नाम दिया जाए? क्या वो वही उमंग है जो टेनिस या बैडमिंटन खेलने वाले बच्चों की जिन्दगी में दिखती है? या फिर शब्दकोशकारों, साहित्यकारों और अंततः समाज को ऐसी कोटियां बनानी पड़ेंगी हम आंनद और उमंग जैसी अनुभूतियों के अलग-अलग स्तरों को देख सकें।
कूड़े के ढेर से हंसते और फिसलते हुए बच्चे का आंनद वही नहीं है जो अभिजात या मध्यवर्गीय बच्चे का आंनद है। गरीबी का पर्यावरण से क्या रिश्ता है इस पर अब गहराई से विचार होना चाहिए।
साहित्यिक व सांस्कृतिक पत्रकारिता के क्षेत्र में चर्चित। मोः 9813196343.
ये पांच बच्चों की कहानी है जो मुंबई की धारावी में रहते हैं। इनमें से एक चाय की दुकान पर रात में चाय बेचता है। दूसरा अपनी मां के साथ कूड़ा बटोरने का धंधा करता है। तीसरा ऑटो वर्कशाप में मैकेनिक है। चौथा गजरा बेचता है और पांचवां सिलाई का काम करता है। जो चाय बेचता है उसे स्केटिंग का शौक है लेकिन पास में इतने पैसे नहीं हैं कि हजारों रुपये की कीमतवाले स्केटिंग के जूते खरीद सके। इसलिए उसके बाकी के चारों दोस्त मिलकर कूड़े कचरे में मिली चीजों के सहारे स्केंटिग का जूता बनाते हैं जिसका नाम वे ‘हवा हवाई’ रखते हैं। अपने दोस्तों से मिले सहयोग के सहारे चाय बेचने वाला लड़का अन्ततः स्केटिंग की प्रतियोगिता में विजयी होता है।
हमारे यहां विषमता की खाई इतनी गहरी हो गयी है कि भारतीय समाज के एक बड़े हिस्से के बच्चों का बचपन का अर्थ ही बदल गया है।हालांकि प्रतियोगिता में विजयी होना इस फिल्म के विषय-वस्तु का एक अलग पक्ष है लेकिन जो बात यहां प्रासांगिक है वो ये कि हमारे यहां विषमता की खाई इतनी गहरी हो गयी है कि भारतीय समाज के एक बड़े हिस्से के बच्चों का बचपन का अर्थ ही बदल गया है।
फिल्म में लगभग दस से पन्द्रह सेकेंड का एक दृश्य है जिसे कोई भूल नहीं जाएगा। होता ये है कि जब चाय बेचने वाले लड़के के लिए स्केंटिग का जूता कहां से लाया जाये इस बात पर चर्चा होनी होती है तो कूड़ा बटोरनेवाला लड़का कूड़े के विशाल ढेर पर अपनी मां और दूसरी औरतों के साथ बैठा हुआ है। ये औरतें आपस में बतिया रही हैं। जब बाकी लड़के कूड़े बटोरने वाले लड़के को बुलाने जाते हैं तो वो कूड़े के पहाड़काय ढेर से फिसलते हुए इस तरह उतरता है, गोया उसे गहरे आनन्द की अनुभूति हो रही हो। उसके चेहरे पर एक अनिर्वचनीय आनन्द की अनुभूति है।
ये एक छोटा-सा दृश्य इस बात का बड़ा वक्तव्य बन जाता है कि हमारे समाज में आनन्द की अनुभूति के अलग-अलग मायने हो गये हैं। विषमता और गरीबी ने आनन्द की एक ऐसी ‘समानान्तर परिभाषा’ गढ़ दी है जो पारम्परिक परिभाषा से न सिर्फ अलग है बल्कि हृदयविदारक और क्रूर भी है। क्या जो बच्चा कूड़े के पर्वतनुमा ढेर से खुशी का इजहार करते हुए फिसलते हुए उतर रहा है कभी इस बात का एहसास कर पाएगा कि किसी फूलों की घाटी से फिसलते हुए उतरने का आनन्द क्या है? और अगर कहीं उसे अपनी भावी जिन्दगी में सचमुच ही किसी फूलों की घाटी में फिसलते हुए उतरने का आनन्द मिला, तो वो अपनी उस अनुभूति को कैसा याद करेगा जब उसका कर्मस्थल कूड़े का हिमालय (या कूड़ालय) हुआ करता था?
बात सिर्फ पर्यावरणीय असन्तुलन की नहीं हैं। हमारे बड़े-बड़े शहरों में रोजाना इतना कूड़ा इकट्ठा हो रहा है कि उससे कई उत्तुंग शिखर बन जाएं। इसीलिए हमारे शहरों में दो या कई केन्द्र हो गये हैं। एक वो जो चकाचक इलाके का होता है और दूसरा वो जहां कूड़ा इकट्ठा किया जाता है। विकास और बेतहासा आर्थिक वृद्धि की दौड़ में हम न सिर्फ प्रकृति को बल्कि मानव जीवन को हो प्रदूषित कर रहे हैं।
और बाकी चीजों को फिलहाल छोड़ दें और सिर्फ बच्चों के बारे में सोचें तो हर शहर, चाहे वो बड़ा हो या छोटा अपने भीतर दो तरह के संसारों को बना रहा है। एक संसार वो है जिसमें बच्चे सुबह स्कूलों में जाते हैं, साफ-सुथरे रहते हैं और शाम को स्केटिंग, बैडमिंटन या टेनिस जैसे खेल खेलते हैं। दूसरी तरफ वे बच्चे हैं जो सुबह से ही इस जुगाड़ में घर छोड़ देते हैं कि शाम तक अधिक से अधिक कूड़ा बटोरा जाए (या इसी तरह का कोई और काम किया जाए) ताकि घर का खर्च निकल सके या रोटी का जुगाड़ हो सके।
कूड़ा बटोरते-बटोरते वो उसमें आनन्द भी लेने लगता है। आखिर वो करे भी क्या? जीवन तो जीना है। फिर उमंग के साथ क्यों न जिया जाए? मगर इस उमंग या आंनद को क्या नाम दिया जाए? क्या वो वही उमंग है जो टेनिस या बैडमिंटन खेलने वाले बच्चों की जिन्दगी में दिखती है? या फिर शब्दकोशकारों, साहित्यकारों और अंततः समाज को ऐसी कोटियां बनानी पड़ेंगी हम आंनद और उमंग जैसी अनुभूतियों के अलग-अलग स्तरों को देख सकें।
कूड़े के ढेर से हंसते और फिसलते हुए बच्चे का आंनद वही नहीं है जो अभिजात या मध्यवर्गीय बच्चे का आंनद है। गरीबी का पर्यावरण से क्या रिश्ता है इस पर अब गहराई से विचार होना चाहिए।
साहित्यिक व सांस्कृतिक पत्रकारिता के क्षेत्र में चर्चित। मोः 9813196343.
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