अनुपयोगी धूल (क्रेशर से निकली) से आजीविका संवर्धन

ऐसे स्थानों पर जहां प्रकृतिगत विरोध के कारण खेती संभव नहीं हो पा रही है, वहां पर आजीविका के अन्य विकल्पों की तलाश कर लोग उन पर अपनी निर्भरता बना रहे हैं।

संदर्भ


वैसे तो पूरा बुंदेलखंड ही सूखा प्रभावित क्षेत्र है, परंतु जनपद जालौन का विकास खंड कुठौंद कई दृष्टि से विशेष प्रभावित इलाक़ा है। एक तो यहां सिंचाई के बहुत से विकल्प नहीं है, दूसरे क्षेत्र में ईंट-भट्ठों की संख्या अधिक होने के कारण खेती योग्य भूमि अनुपयोगी होती जा रही है। चिमनियों से निकलता धुआँ निरंतर आकाश में छाया रहता है। इसके साथ ही दस्यु प्रभावित इलाक़ा होने के कारण यहां पर रोज़गार के अवसर भी बहुत कम हैं। उपयोगी भूमि होने के बावजूद खेती की लागत अधिक होने के कारण लोग खेतों की मिट्टी ईंट बनाने के लिए बेचने में अधिक फायदा महसूस कर रहे हैं।

इस पूरी प्रक्रिया में लोगों को तात्कालिक लाभ तो हो रहा है, परंतु समयान्तराल में इसके कई नुकसान हैं। जैसे-
खेत खराब हो जायेगा तो उसे ठीक करने के लिए लंबा समय और लंबा खर्च लगेगा।
चिमनियों से निरंतर निकलने वाला धुआं मानव, पशु स्वास्थ्य को हानि पहुंचाने के साथ ही पूरे पर्यावरण को प्रभावित कर रहा है, जिसके दूरगामी परिणाम निश्चित तौर पर बेहद खतरनाक होंगे।

इन सारी स्थितियों के मद्देनज़र यहां लोगों द्वारा स्वंय के स्तर पर सुधार के कई प्रयास किए गए, जिसके तहत् पहला कदम वृक्षारोपण का था। इसके अंतर्गत सामुदायिक रूप से वृक्ष लगाए गए, परंतु यह महसूस किया गया कि वृक्ष खेती और पशुपालन तीनों एक दूसरे के पूरक हैं और खेती से तो यहां के लोगों का मोह भंग हो चुका था। अतः आवश्यकता थी कि आजीविका के ठोस विकल्पों पर विचार किया जाए। इसी कड़ी में एक ऐसी तकनीक विकसित की गई जिसके तहत् पहाड़ों को तोड़ने से क्रेशर के द्वारा निकलने वाली महीन धूल से ईंट, टाइल्स आदि का निर्माण कर लोगों को रोज़गार मुहैया कराया गया।

प्रक्रिया


प्रारम्भ
ग्राम पंचायत नाहली के गांव मदनेपुर के श्री मुरली मनोहर ने अगुवाई कर गांव वालों के साथ एक बैठक की, जिसमें उनकी समस्याओं पर चर्चा करने के साथ ही इस विकल्प को सुझाया। बैठक में मौजूद लोगों ने पैसा लगाने में असमर्थता जाहिर की साथ ही यह भी प्रश्न किया कि ऐसा किस प्रकार किया जा सकता है।

प्रशिक्षण


कई स्थानों पर जानकारी करने के बाद हुडको से सम्पर्क स्थापित कर कम लागत में भवन निर्माण करने हेतु प्रशिक्षण दिलाया गया। इस आठ दिवसीय प्रशिक्षण को शुरुआत में 5 लोगों ने लिया। बाद में रोज़गार सृजित होने पर और लोगों को प्रशिक्षण देने लगे।

इकाई की स्थापना व कच्चा माल


टाइल्स तैयार करने हेतु हुडको के निर्देशन में बंगलौर से मशीन लाकर लगाई गई। उत्पाद बनाने हेतु कच्चे माल के रूप में क्रेशर से निकलने वाली धूल व फ्लाईएश (बिजली संयंत्र में प्रयोग किये जाने वाले कोयले की राख), 0 साइज गिट्टी व सीमेंट का उपयोग किया गया और 5 लोगों को लगाकर ईंट बनाने का कार्य प्रारम्भ किया गया।

उत्पादन का विवरण


शुरूआत में सिर्फ एम.सी.आर. टाइल्स व फिनिशिंग पोल का निर्माण किया गया, जिसमें आशातीत सफलता मिलने के बाद इण्टरलाकिंग ईंट की निर्माण का कार्य प्रारम्भ किया गया है।

बाजार व्यवस्था


इस उद्योग द्वारा निर्मित सामग्री के लिए स्थानीय बाजारों के साथ पंचायत में खड़ंजा निर्माण, नगर पंचायतों में सी.सी. रोड की जगह इण्टरलाकिंग ईंट का उपयोग किया जा रहा है। आस-पास स्थित पेट्रोल टैंक, स्कूल ग्राउण्ड, अस्पताल ग्राउंड तथा अन्य पार्किंग स्थानों पर इस ईंट को बिछाने का काम होता है।

मानक के अनुसार उपरोक्त सामग्री तैयार की जाती है तथा 40 टन के प्रेशर मशीन द्वारा प्रेस कर पानी में पकाया जाता है। कम से कम 6 घंटे बाद यह बिक्री के लिए तैयार हो जाता है। लागत – लाभ विश्लेषण को देखते हुए कहा जा सकता है कि लोगों को रोज़गार मिलने के साथ ही इकाई के खर्चे निकालकर लाभ भी हुआ।

परिणाम


इस उद्योग के निम्नलिखित परिणाम परिलक्षित होते हैं-
एक व्यक्ति द्वारा किए गए प्रयास से गांव के 32 लोगों को अच्छा रोज़गार मिल सका।
सूखे के समय स्वरोजगार का एक स्थाई साधन मिला।
लोगों का पलायन रुका है।
पर्यावरण सुधार संभव हो सका।
उपजाऊ मिट्टी के खनन को रोकने में मदद मिली है।
कम लागत में भवन निर्माण की तकनीक लोगों को स्थानीय स्तर पर ही मिल गई।

इस प्रकार थोड़ी सूझ-बूझ एवं मेहनत से इस बीहड़ क्षेत्र में एक ऐसा उद्योग लगाया जा सका, जिससे पर्यावरण को शुद्ध बनाते हुए लोगों को स्थानीय स्तर पर रोज़गार उपलब्ध कराया गया है।



Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading