आंदोलन की अनोखी मुहिम

1 Jan 2011
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गढ़वाल मंडल के बारह हजार वर्ग किमी वन क्षेत्र में से ४.२ हजार में चीड़ के पेड़ हैं। गर्मियों में जंगल में लगने वाली आग को चीड़ के पेड़ तथा पिरूल बढ़ाने का काम करते हैं और हर साल आठ हजार वर्ग किमी मिश्रित वन क्षेत्र इस आग की चपेट में आ जाता है। चीड़ से सिर्फ यही नुकसान नहीं है, बल्कि इसने यहां के प्राकृतिक जल स्रोतों को भी सुखा दिया है। पहाड़ की जनता चिंतित है पर सरकार इसके समाधान से मुंह फेरे हुए है। ऐसे में चमोली के कर्णप्रयाग विकास खण्ड स्थित नोटी के ग्रामीणों ने चीड़ के जंगल में बांज-बुरांश लगाकर एक मिसाल पेश की है। नौ गांवों के महिला मंगल दलों की इस पहल को अपनाकर पर्यावरण और प्राकृतिक जल स्रोतों को बचाया जा सकता है।

उत्तराखण्ड में चीड़ को यहां के जल, जंगल और जमीन पर नासूर की शक्ल में देखा जाने लगा है। पर्यावरणविद् भी मानते हैं कि यहां के जंगलों में चीड़ के पेड़ों की अधिकता से पहाड़ का पर्यावरण खतरे की जद में है। गर्मियों में तो चीड़ के पेड़ों से निकलने वाला पिरूल वनाग्नि का मुख्य कारण होता है। जिन स्थानों पर चीड़ के पेड़ होते हैं वहां दूसरी प्रजाति के पेड़-पौधों का उगना मुश्किल होता है। पहाड़ों में पेयजल संकट के लिए भी एक हद तक चीड़ जिम्मेदार है। वन पंचायत हो या वन महकमा सभी इस प्रजाति के पेड़ों को लेकर काफी पशोपेश में है। लेकिन इस पर अंकुश लगाने की कार्य योजना अभी तक दिखी नहीं। ग्रामीण क्षेत्रों में लोग चीड़ के इन वनों से इतने आजिज आ गये हैं कि वह इसे अब भष्मासुर ही कहने लगे हैं। पहाड़ की हरियाली को चीड़ से बचाने के लिए कोई पहल होता न देख अब ग्रामीण खुद आगे आ रहे हैं।

सीमांत जनपद चमोली के विकासखण्ड कर्णप्रयाग के नोटी क्षेत्र के नौ गांवों के महिला मंगल दलों ने एक मुहिम शुरू की है। उनकी यह शुरुआत सार्थक भी हो रही है। जिस नन्दा सेंण नोटी क्षेत्र में पहले चीड़ के जंगलों का मानो द्घर सा था वहां अब बांज के हरे-भरे जंगलों का संसार बन गया है। कर्णप्रयाग से ३० किमी की ऊंचाई पर स्थित नंदासेंण नोटी क्षेत्र की भौगोलिक परिस्थितियां काफी कठिन हैं। १९८८ से पूर्व यहां केवल चीड़ के पेड़ ही चारों तरफ दिखायी देते थे। क्षेत्र में चीड़ के पेड़ों की इतनी बड़ी तादाद होने का हश्र यह हुआ कि यहां के न केवल प्राकूतिक पेयजल स्रोतों से पानी का गायब होना शुरू हो गया, बल्कि यहां चारा पत्ती का संकट भी गहराने लगा। लोगों के सामने आजीविका चलाना एक बड़ी चुनौती बन गया। मवेशियों को चारा पत्ती के लिए यहां की महिलाओं को कोसों दूर जाना पड़ता। प्रशासन एवं सरकारी अमला ग्रामीणों की इस त्रासदी को देखकर भी हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा। बाद में यहां की महिलाओं ने १९८८ में चीड़ के पेड़ों के खिलाफ अभियान चलाते हुए स्थानीय निवासी शान्ता देवी के नेतृत्व में नन्दासेंण वन आंदोलन शुरू किया। जिसमें क्षेत्र के मालई, देवल, बेनोली, कपरोडी, भटक्वाली, मलेथी, तोली, नोंटी, सांतोली गांवों की महिलाओं ने भाग लिया।

इस वन आंदोलन में उन्हें प्रख्यात पर्यावरणविद् चंडीप्रसाद भट्ट एवं सुन्दर लाल बहुगुणा सहित कई पर्यावरण प्रेमियों का सहयोग मिला। नंदासेंण वन आंदोलन की खास बात यह थी कि इसमें चीड़ के पेड़ों को काटा नहीं गया बल्कि प्रशासन को यहां के लिए बांज के पेड़ों को अत्यधिक मात्रा में लगाने के लिए विवश करना था। तीन माह तक चले इस आंदोलन की अगुवाई करने वाली महिलाओं ने हिम्मत नहीं हारी। वह इस आंदोलन को चलाती रहीं। शासन प्रशासन पर दबाव बनाने के लिए क्षेत्रवासियों ने २८ जुलाई १९८८ को नंदासेंण में धरना प्रदर्शन भी किया।

मामला इतना आगे बढ़ा कि नंदासेंण वन आंदोलन की यह हुंकार दिल्ली दरबार तक पहुंच गयी। यहां के लोगों ने आंदोलन को नारा दिया 'चीड़ की द्घुसपैठ बंद करो। चीड़ उखाड़ो बांज बचाओ।' आंदोलनकारी महिलाओं का कहना था कि सरकारी नर्सरियों में प्राथमिकता के आधार पर चीड़ के बजाय बांज के पौधों को लगाया जाय। ताकि यहां का जल, जंगल और जमीन सुरक्षित रह सके। महिलाओं को चारा पत्ती के लिए दर-दर न भटकना पड़े। प्रकूति प्रदत्त यहां का स्वरोजगार जिंदा रह सके। आखिरकार महिलाएं सफल हुईं। वन विभाग ने यहां की नर्सरियों में चीड़ के बजाय बांज के पेड़ उगाने शुरू कर दिये। जन दबाव को देखते हुए तत्कालीन डीएफओ चमोली ने इस गांव में बांज के पेड़ लगाने की मुहिम शुरू की। अब इस समूचे क्षेत्र में बांज के जंगल ही जंगल उग आये हैं। यह पहल पूरे पहाड़ के लिए मिसाल बनकर उभरी है। इसे चिपको आंदोलन के बाद अग्रिम पंक्ति के आंदोलन के तौर पर देखा जा रहा है।

नंदा राजजात से जुड़ा यह क्षेत्र पहले ही पर्यटन एवं धार्मिक लिहाज से प्रदेश में खासा महत्व रखता है। ऐसे में इस क्षेत्र के लोगों की इस अनोखी पहल ने इसे और खास बना दिया है। क्षेत्र के जिला पंचायत सदस्य एवं नंदा सेंण वन आंदोलन के संयोजक भुवन नौटियाल का कहना है कि अब इस क्षेत्र में बांज के जंगल उग आने से लोगों की काश्तकारी भी बढ़ी है। मवेशियों के लिए आसानी से चारा मिलने लगा। जल समस्या कम हुई। हमने चीड़ के पेड़ काटे नहीं, बल्कि उन्हीं के साथ बांज के पेड़ लगाये। इन पेड़ों की रखवाली की। आज उसी का परिणाम है कि नोटी क्षेत्र के लोगों ने राज्य में एक मिसाल कायम की।
 
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