अंतः सलिला

26 Aug 2013
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रेत का विस्तार
नदी जिसमें खो गई
कृश-धार :
झरा मेरे आँसुओं का भार
-मेरा दु:ख धन,
मेरे समीप अगाध पारावार-
उसने सोख सहसा लिया
जैसे लूट ले बटमार।
और फिर आक्षितिज
लहरीला मगर बेट्ट
सूखी रेत का विस्तार-
नदी जिसमें खो गई
कृश-धार

किंतु जब-जब जहां भी जिसने कुरेदा
नमी पाई : और खोदा-
हुआ रस-संचार :
रिसता हुआ गड्ढा भर गया।
यों अजाना पांथ
जो भी क्लांत आया, रुका लेकर आस,
स्वल्पायास से ही शांत
अपनी प्यास
इससे कर गया :
खींच लंबी साँस
पार उतर गया।

अरे, अंतः सलिल है रेत:
अनगिनत पैरों तले रौंदी हुई अविराम
फिर भी घाव अपने आप भरती,
पड़ी सज्जाहीन,
धूसर-गौर,
निरीह और उदार!

इलाहाबाद-दिल्ली (रेल में), 20 फरवरी, 1959

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