आपदा प्रबंधन: अनुभवों से कुछ नहीं सीखा

Disaster management
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एक अरब की आबादी वाला देश, जिसकी विज्ञान-तकनीक, स्वास्थ्य, शिक्षा और सेना के मामले में दुनिया में तूती बोलती है, वह एक क्षेत्रीय विपदा के सामने असहाय-सा नजर आता है।

देश के कई हिस्सों में आज बाढ़ की विभीषिका है और न प्रशासन, न ही मीडिया का ध्यान उसकी तरफ है। बिहार, असम व कुछ अन्य राज्यों के आधा दर्जन जिलों में हर साल पहले बाढ़ और फिर सूखे की त्रासदी होती है। पानी में फंसे लोगों को निकालना शुरू किया जाता है, तो लोगों की भूख-प्यास सामने खड़ी दिखती है। पानी उतरता है, तो बीमारियां सामने होती हैं। बीमारियों से जैसे-तैसे जूझते हैं, तो पुनर्वास का संकट सामने दिखता है। एक अरब की आबादी वाला देश, जिसकी विज्ञान-तकनीक, स्वास्थ्य, शिक्षा और सेना के मामले में दुनिया में तूती बोलती है, वह एक क्षेत्रीय विपदा के सामने असहाय-सा नजर आता है। भले ही प्रधानमंत्री बाढ़ को राष्ट्रीय आपदा घोषित करें, लेकिन राहत के कार्य ठीक उसी तरह चलते हैं, जैसे आज से 50 साल पहले होते थे।

यों स्कूलों व कॉलेजों में आपदा प्रबंधन बाकायदा एक विषय है। लेकिन व्यावहारिक स्तर पर ऐसी विभीषिकाओं से निपटने की कोई व्यवस्था नहीं दिखाई देती। बिहार की बाढ़ या तूफान तो अचानक आ गए, लेकिन बुंदेलखंड सहित देश के कई हिस्सों में सूखे की विपदा से हर साल करोड़ों लोग प्रभावित होते हैं। सूखा एक प्राकृतिक आपदा है और इसका अंदेशा तो पहले से हो जाता है, इसके बावजूद आपदा प्रबंधन का महकमा कहीं भी तैयारी करता नहीं दिखता। हमने अपने अनुभवों से भी नहीं सीखा। कोई पांच साल पहले आंध्र प्रदेश के तटवर्ती जिलों में आए जल-विप्लव के दौरान वहां के प्रशासन ने सबसे पहले और तत्काल जिस राहत सामग्री की व्यवस्था की थी, उनमें बोतलबंद सुरक्षित पेयजल और ओरआरएस के पैकेट थे। जहां कहीं भी बाढ़ या तूफान आता है, कुछ लोग रोटी- खिचड़ी बांटकर खुद को धर्मात्मा के रूप में प्रसिद्ध करने को घूमने लगते हैं, जबकि वहां पानी-जनित बीमारियों का तेजी से फैलना शुरू हो चुका होता है।

पिछले साल ही यूनेस्को ने भारत में आपदा प्रबंधन के संदर्भ में जागरूकता फैलाने के उद्देश्य से कई पुस्तकों का प्रकाशन किया। यूनेस्को ने दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया में एक कार्यशाला का आयोजन कर तीन विपदाओं- बाढ़, सूखे और भूकंप पर ऐसी सामग्री तैयार करवाई थी, जो कि समाज और सरकार, दोनों के लिए मार्गदर्शक हो। सवाल यह है कि ये निर्देश वास्तविकता के धरातल पर धराशायी क्यों हो जाते हैं।

आज सबसे बड़ी जरूरत इस बात की है कि देश भर के इंजीनियरों, डॉक्टरों, प्रशासनिक अधिकारियों और जन प्रतिनिधियों को ऐसी विषम परिस्थितियों से निपटने की बाकायदा ट्रेनिंग दी जाए। इसके साथ ही होमगार्ड, एनसीसी, एनएसएस तथा स्वयंसेवी संस्थाओं को ऐसे हालात में विशेषाधिकार देकर दूरगामी योजनाओं पर काम करने के लिए सक्षम बनाया जाए।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)
 

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