आपदा सहायता तथा फसल बीमा पर आफत

12 Dec 2018
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Disaster
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सरकार किसान और उसके लिये बनाए गए कानूनी प्रावधानों और किसानों के संकट को दूर करने के प्रति गम्भीर नहीं है। महज भाषण और कागजी खानापूर्ति से किसानों की पीड़ा दूर नहीं होगी। स्वाभाविक है किसान अब गाँव छोड़ राज्य की राजधानी और दिल्ली पर बार-बार दस्तक दे रहा है। सरकार को देश की बड़ी आबादी किसानों की संख्या के अनुपात में बजट प्रावधान करने के साथ उसकी पीड़ा को दूर करने को प्राथमिकता में लाने की जरूरत है। हमें खेती के प्रति जो सम्मान का भाव था, उसे वापस लाना होगा, जिससे खेती के प्रति किसानों में निराशा का भाव समाप्त हो सके।

देश के विभिन्न प्रान्तों में किसानों की अलग-अलग समस्याओं के लिये संघर्षरत 210 किसान संगठनों ने 29-30 नवम्बर को भारत की राजधानी दिल्ली में आयोजित किसान मुक्ति मार्च को न केवल यादगार बनाया बल्कि किसान आन्दोलन को ऐतिहासिक बना दिया। ऐतिहासिक इस मामले मे भी बना, जहाँ देश के अधिकांश राजनीतिक दलों के नेता सरकार में रहते किसानों का काम भले नहीं किया हो परन्तु अब किसानों की पीड़ा को महसूस किया है और किसानों की सभा में आकर उनके दोनों बिल किसान कर्ज मुक्ति विधेयक 2018 और कृषि उत्पाद पर गारंटीशुदा लाभकारी न्यूनतम समर्थन मूल्य का अधिकार विधेयक 2018 के प्रति पूर्ण समर्थन व्यक्त कर किसानों के सवालों को मजबूती प्रदान किया। इस मौके पर अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति ने अपने दोनों बिलों के अतिरिक्त भी एक किसान घोषणा पत्र का मसौदा किसानों की सभा से पास कराया।

इसमें सरकार से यह भी माँग किया गया है कि यह सुनिश्चित हो कि प्राकृतिक आपदा से फसल को हुए नुकसान की भरपाई पर्याप्त समय पर और कारगर तरीके से होगी। ऐसी फसल बीमा अमल में आए, जो किसानों को लाभ पहुँचाए ना कि सिर्फ बीमा कम्पनियों को और इसमें हर किसान को सभी फसल के हर किस्म के जोखिम से कवर प्रदान किया जाए। इस फसल बीमा में नुकसान के आकलन के लिये हर खेत को ईकाई माना जाए, सूखा प्रबन्धन से सम्बन्धित नियमावली में हुए किसान विरोधी परिवर्तनों को वापस लिया जाए और किसानों के सवालों और स्वामीनाथन आयोग की अनुशंसा पर संसद का विशेष सत्र बुलाकर बहस कराया जाए। जब जीएसटी पर रात्रि में संसद का सत्र बुलाया जा सकता है तो किसानों के सवालों पर क्यों नहीं?

फसल नुकसान पर संजीदा नहीं सरकार

यह महत्त्वपूर्ण सवाल है कि हमारी खेती पूरे देश में लगातार प्राकृतिक आपदा से प्रभावित होती रहती है। कहीं सूखा, कहीं बाढ़, कहीं कीटों का प्रकोप किसानों को तबाह करती है और न केवल फसल की क्षति बल्कि मानव जीवन की भी क्षति करती है और यह क्रम जारी है। कतिपय बिन्दुओं पर सहाय्य के सरकारी प्रावधान भी कारगर नहीं दिखते हैं। भारत सरकार द्वारा समय-समय पर सहाय्य प्रावधानों से सम्बन्धित अधिसूचना जारी की जाती है।

पिछले दिनों 2015-20 के लिये नेशनल डिजास्टर रिस्पॉन्स फंड और राज्य आपदा रिस्पॉन्स फंड से अधिसूचित प्राकृतिक आपदा और राज्य सरकार द्वारा अधिसूचना के अनुसार स्थानीय आपदाओं से प्रभावित लोगों के बीच सहाय्य वितरण के लिये मानदर तय किया है, जिसमें मानव जीवन की क्षति, घायलों, गम्भीर चोट, गृह क्षति, वस्त्रों, घरेलू सामान के दहने-बहने, मलबा निकासी, जल निकासी, भू-स्खलन, बर्फ का पहाड़ से खिसकना, नदियों के मार्ग परिवर्तन से भूमि के बड़े हिस्से की क्षति। इसके अतिरिक्त फसल क्षति पर इनपुट सब्सिडी (जहाँ फसल 33 फीसद या उससे अधिक बर्बाद होता है) रोपने वाले फसल और वार्षिक फसल, शाश्वत फसल, सेरीकल्चर, पशु क्षति, मछली जीरा इत्यादि के लिये सहाय्य का प्रावधान किया है। इसके अलावा फसल क्षति के लिये फसल बीमा का भी प्रावधान किया गया है।

इन सारे प्रावधानों के बावजूद खेती का संकट बढ़ता जा रहा है, किसान असुरक्षित महसूस कर रहा है, किसान आन्दोलन-संघर्ष करता है और दुख की पराकाष्ठा तब होती है, जब किसान आत्महत्या करने को मजबूर होता है। यही साबित करने को काफी है कि किसान की पीड़ा कितनी गम्भीर है कि समाज के अन्य तबकों में कहीं से भी आत्महत्या जैसी पीड़ादायक, दुखद स्थिति की चर्चा नहीं होती। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार 1995-2015 के बीच 3 लाख 10 हजार किसानों के आत्महत्या का आंकड़ा है। सरकार दो वर्षों से आत्महत्या का आँकड़ा जारी भी नहीं कर रही है। जबकि सालाना करीब 12 हजार आत्महत्या की बात चर्चा में है। पिछले बीस साल से प्रतिदिन 2000 किसान खेती छोड़ रहे हैं।

खेती छोड़ रहे हैं किसान

सीएसडीएस के सर्वे में 76 फीसद किसान खेती छोड़कर दूसरा काम करने के पक्ष में हैं। प्राकृतिक आपदा में बाढ़ की त्रासदी उत्तर भारत की ही नहीं देश के अन्य प्रदेशों की भी समस्या बन गई है। पर्यावरणीय असन्तुलन के चलते बेमौसम वर्षा, ओला, तूफान से भी खेती को भारी नुकसान होता है। बाढ़ जैसी आपदा में अरबों की सरकारी-गैर सरकारी सम्पत्ति की क्षति के अलावा मानव जीवन और पशुधन की भी क्षति होती है परन्तु उसके लिये बने नियम और सहाय्य प्रावधानों पर भी अमल नहीं होता।

सरकार और सरकारी अमला आपदा को मानवीय दृष्टिकोण से नहीं देखते बल्कि अपने पॉकेट से दिया हुआ खैरात का धन समझते हैं। उन्हें यह नहीं पता कि सहाय्य की राशि आमजन के गाढ़ी कमाई का पैसा है और उनका वेतन और ऐशो-आराम भी आमजन की कमाई से ही आता है। बाढ़ प्रभावित होने और मानव-जीवन की क्षति होने पर भी पीड़ितों को ही साक्ष्य जुटाने पड़ते हैं और कभी-कभी सड़कों पर उतरने पर ही सहाय्य भी मिल पाता है। वर्ष 2017 के बाढ़ के समय बिहार में पाया गया कि फसल क्षति अनुदान के भुगतान में अड़ंगा लगाते हुए जिला पदाधिकारी ने ऐलान कर दिया कि वैसे किसानों को फसल क्षतिपूर्ति नहीं मिलेगा, जिनका प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में नाम है। उन्हें सीधे 25 हजार बीमा राशि का लाभ खाते में आ जाएगा। परिणाम यह हुआ कि बड़ी संख्या में किसान बाढ़ क्षतिपूर्ति अनुदान से वंचित हो गए और बीमा की 25 हजार की राशि भी नहीं मिली।

नुकसान-आकलन का तरीका बदले

किसान विरोधी इस कार्रवाई से सरकार अपने को अलग नहीं रख सकती क्योंकि सरकार रोज-रोज आपदा की क्या समीक्षा करती थी? इस सन्दर्भ में अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति का प्रस्ताव कि हर खेत की फसल क्षति का आकलन अलग-अलग होना चाहिए, ज्यादा उपयुक्त है। इसी प्रकार ओलावृष्टि में गेहूँ के साथ आम और सब्जी की भी भारी क्षति हुई। किसी किसान को सरकारी प्रावधान का लाभ नहीं मिला। खरीफ 2018 में अन्तिम समय में वर्षा नहीं होने से कुछ अगात फसल छोड़कर खरीफ फसल की भारी बर्बादी हुई। प्रदेश के कुछ चुनिन्दा पंचायतों को छोड़ पूरे प्रदेश का किसान इनपुट अनुदान से वंचित रहा। सारे प्रावधानों के बावजूद उत्तर बिहार के कुछ इलाकों में नदी की धारा बदलने से बड़े क्षेत्र में 12 वर्षों से जल-जमाव से त्रस्त किसानों को 12 वर्ष बाद भी निर्धारित अनुदान नहीं मिला। सरकारी अमला किसानों को उच्च न्यायालय जाने की सलाह दे रहे हैं।

इसी प्रकार, देश में विभिन्न नदियों पर तटबन्ध बना तटबन्ध के बाहर पानी नहीं जाने से किसानों को तो सिंचाई की क्षति हुई ही भीतर की जमीन बंजर हो गई। सारे प्रावधान होने के बावजूद किसान परेशान हैं। उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है। नदियों के जल प्रबन्धन के ऊपर सरकार की कोई कार्य योजना नहीं होने से गाद भरने से नदियाँ मर रही है। नदियों की जिन्दगी बचाने के लिये हिमालय क्षेत्र से भारतीय क्षेत्र तक वृक्षारोपण, नदियों के गाद निष्कासन पर कोई काम नहीं हो रहा है। इस कदम से नदियों को जिन्दा रखने के साथ पर्यावरण की सुरक्षा और जल-स्तर कायम रखने में भी मदद मिलती, सिंचाई का विस्तार होता, नदियों का पानी गंगा और समुद्र में बेकार नहीं जाता बल्कि उसका इस्तेमाल होता। इन बिन्दुओं पर कागजी काम सरकार जो करती हो; जमीनी काम कुछ नहीं नजर आता है।

सरकारी नीतियाँ फिसड्डी साबित

किसान हित में लाई गई प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना किसानों से ज्यादा कॉर्पोरेट के हित में है। प्रसिद्ध पत्रकार पी. साईंनाथ ने महाराष्ट्र के सोया किसानों का हवाला देते हुए बताया है कि सरकार और किसानों द्वारा प्रीमियम जमा कराने के बाद किसानों को 30 करोड़ का बीमा मिला और कॉर्पोरेट को 143 करोड़ का लाभ मिला। यह महाराष्ट्र के एक जिले का आंकड़ा है। इसी प्रकार पूरे देश के किसान फसल बीमा से वंचित हो रहे है। सुखाड़ की भी स्थिति देश में भयावह है। मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र की बात दूर बिहार, उत्तर प्रदेश भी सूखे से परेशान रहता है। उसका परिणाम अन्न के उत्पादन घटने के साथ मवेशियों के चारे की समस्या होती है।

नदियों के प्रदेश में भी सुखाड़ से सामना करने की तकनीक हमारे पास नहीं है। यहाँ तक की पीने के पानी के लिये भी देश के बड़े हिस्सों में भारी तबाही रहती है। किसानों को कम-से-कम न्यूनतम समर्थन मूल्य भी मिल सके, इसके लिये भी बनी एमएसपी नीतियाँ देश में असफल हैं। एमएसपी से कम खरीद पर कानूनी कार्रवाई का प्रावधान होने से बिचौलियों की मनमानी बन्द होगी और किसानों को एमएसपी मिलेगा। अभी उत्तर प्रदेश में आलू की कीमत गिरने से हाहाकार है, वहीं मध्य प्रदेश में प्याज 70 पैसे और 4 रुपये में बिकने से किसान तबाह हैं। बिहार में धान की खरीद नहीं हो रही है।

किसान 1750 की जगह 1200 रुपया क्विंटल धान बेचने को विवश हैं। इसी प्रकार गन्ना किसानों के समक्ष गन्ना के वाजिब दाम नहीं मिलने से परेशानी है। डीजल, मजदूरी, उर्वरक, कृषि यंत्र के मूल्यों में भारी वृद्धि के बावजूद नए पेराई सत्र में केन्द्र सरकार ने उचित और लाभकारी मूल्य के नाम पर बीस रुपया क्विंटल की वृद्धि की है, जबकि उत्तर प्रदेश और बिहार की सरकार ने अभी तक परामर्शी मूल्य तय ही नहीं किये हैं। पिछले वर्षो का गन्ना मूल्य अभी करीब 12 हजार करोड़ भुगतान नहीं हुआ है। 14 दिनों में गन्ना मूल्य के भुगतान के कानून की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं।

इस प्रकार सरकार के सारे प्रावधान, नियम-कानून धरे के धरे हैं-किसानों का शोषण और तबाही बढ़ती जा रही है। यह स्पष्ट करता है कि सरकार किसान और उसके लिये बनाए गए कानूनी प्रावधानों और किसानों के संकट को दूर करने के प्रति गम्भीर नहीं है। महज भाषण और कागजी खानापूरी से किसानों की पीड़ा दूर नहीं होगी। स्वाभाविक है किसान अब गाँव छोड़ राज्य की राजधानी और दिल्ली पर बार-बार दस्तक दे रहा है। सरकार को देश की बड़ी आबादी किसानों की संख्या के अनुपात में बजट प्रावधान करने के साथ उसकी पीड़ा को दूर करने को प्राथमिकता में लाने की जरूरत है। हमें खेती के प्रति जो सम्मान का भाव था, उसे वापस लाना होगा, जिससे खेती के प्रति किसानों में निराशा का भाव समाप्त हो सके।

(लेखक संयोजक, उत्तर बिहार संयुक्त किसान संघर्ष मोर्चा के अध्यक्ष हैं)


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