आपदाएँ तो पहुँच जाती हैं पर राहत दूर ही रहती है

Cloudburst
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देश में बादल फटने की घटनाएँ अब आम होती जा रही है। बीती 16 जुलाई की अल-सुबह उत्तराखण्ड के चमोली जिले में बादल फटने से तबाही मच गई। आसमान से बरसे कहर ने दो दर्जन से अधिक मकानों और एक गौशाला को जमींदोज कर दिया। इस कुदरती कहर में 17 पुल, दर्जन भर वाहन, एक शिव मन्दिर और एक पावर हाउस भी बह गये। ठीक उसी दिन हिमाचल प्रदेश में भी बादल फटने की कुछ घटनाएँ हुईं और उन घटनाओं का विस्तृत ब्यौरा भी चमोली की घटनाओं जैसा ही था। हर साल जब बरसात का मौसम आता है, तो पहाड़ों से इस तरह की खबरें आने लगती हैं।

असलियत यह है कि प्राकृतिक आपदाओं का पहाड़ों के साथ चोली-दामन का रिश्ता है। मध्य हिमालय का यह भू-भाग दुनिया की नव विकसित पहाड़ी शृंखलाओं में गिना जाता है। ऐसे में, भू-स्खलन और बादल फटने की घटनाएँ यहाँ आम हैं। कोई साल ही ऐसा रहा हो, जब इस पर्वतीय क्षेत्र में मानसून के मौसम में ऐसे हादसे न हुए हों। इस तरह की घटनाएँ अक्सर हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड और जम्मू-कश्मीर में ज्यादा होती हैं। ऐसे मौकों पर बादल फटने से जल की धारा इतना तेज होती है कि वह कच्चे-पक्के रास्तों तक को अपने साथ बहा ले जाती है। इससे राहतकर्मी और जवानों को कुछ किलोमीटर की दूरी तय कर घटनास्थल तक पहुँचने में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है और समय भी काफी लगता है। अक्सर राहतकर्मियों, बचाव दल के सदस्यों और सेना के जवानों के पहुँचने से पहले स्थानीय लोग ही राहत कार्य में मुख्य भूमिका निभाते हैं।

वातावरण में वायु का दबाव जब कम होता है और एक छोटे दायरे में अचानक भारी मात्रा में बारिश होती है, तो उसे बादल फटने की घटना कहा जाता है। 2,500 से 4,000 मीटर की ऊँचाई पर आमतौर पर बादल फटने की घटना होती है। बादल फटने के दौरान आमतौर पर बिजली चमकने, गरज और तेज आंधी के साथ भारी बारिश होती है। एक साथ भारी मात्रा में पानी गिरने से धरती उसे सोख नहीं पाती और बाढ़ की सी स्थिति पैदा हो जाती है। बादल फटने पर चंद मिनटों में ही दो सेंटीमीटर से ज्यादा बारिश हो जाती है, जिससे भारी तबाही मच जाती है। पानी का बहाव इतना तेज होता है कि वह अपने साथ रास्ते में जो भी आता है, उसे बहा ले जाता है।

आज हमारे देश की 6.88 फीसदी आबादी पर प्राकृतिक आपदा का खतरा मंडरा रहा है। जलवायु परिवर्तन ने इसमें अहम भूमिका निभाई है। भले ही प्राकृतिक आपदा से प्रभावित 171 देशों की सूची में भारत का स्थान 78वाँ है, लेकिन हमें सम्भावित खतरों से निपटने हेतु त्वरित प्रयास तो करने ही होंगे। इन कुदरती आपदाओं को रोका तो नहीं जा सकता, लेकिन रोकथाम के प्रयासों से इन्हें व इनसे होने वाले नुकसान को काफी कम जरूर किया जा सकता है।

वैसे बाढ़, तूफान, भूकम्प, भूस्खलन, बिजली गिरने और सूखे की घटनाएँ हमारे देश में ही नहीं, समूची दुनिया में होती हैं। हाँ, इन आपदाओं से प्रभावित लोगों की जिन्दगियों को बचाने और उन्हें हर सम्भव तत्काल सहायता पहुँचाने के लिये आपदा राहत के प्रबन्ध किये जाते हैं। इन आपदाओं में जन-धन की भीषण हानि होती है, जिसकी भरपाई असम्भव है। इनसे प्रभावित लोगों के लिये ये त्रासदियाँ जीवन भर के दुख का कारण बन जाती हैं। लेकिन इन आपदाओं के पीड़ितों को राहत पहुँचाने के लिये हमारे देश में जो व्यवस्था है, वह बहुत आश्वस्त नहीं करती।

सरकारी व्यवस्था में जिस तरह का भ्रष्टाचार व बेपरवाही होती है, वह आपदा राहत के मामले में कुछ ज्यादा नजर आती है। इन सब पर ध्यान देना इसलिये भी जरूरी है कि पर्यावरण बदलाव के साथ ही आपदाएँ अब आए-दिन की बात हो गई हैं। ऐसा लगता है, जैसे फिलहाल यही लोगों की नियति है। हमारे देश में जागरुकता के प्रसार का अभाव है। आपदाओं के मामले में सरकार की बेरुखी साफ है, लेकिन समझ से परे है। आपदा के समय ही कुछ बेचैनी दिखाई पड़ती है, उसके बाद फिर सब कुछ पहले जैसा ही जाता है। जैसे कुछ हुआ ही न हो। ऐसे में, आपदा से निपटने का सवाल ही बेमानी सा लगता है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)
 

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