अपराध का विस्तार

20 Jun 2018
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लालच के लिये जीव हत्या
लालच के लिये जीव हत्या

भारत में वन्यजीव अपराधों की दर में तेजी से वृद्धि हो रही है। आज पर्यावरणीय अपराधों के मामले इतने अधिक हो गए हैं कि इन मामलों की सुनवाई के लिये आठ साल (2010) पहले राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) का गठन किया गया। देश के 15 राज्यों में 2015-16 वर्ष के दौरान पर्यावरणीय अपराधों की संख्या में तेजी से इजाफा हुआ है। अकेले 2016 में 4,732 पर्यावरणीय सम्बन्धी अपराध के मामले पंजीकृत किये गये। इनमें से 1,143 मामलों में पुलिस जाँच बाकी है। इस समय देश में कुल 21,145 पर्यावरणीय अपराध के मामले विचाराधीन हैं।

ध्यान रहे कि स्वतंत्रता के बाद वन्यजीवों की सुरक्षा के लिये सर्वप्रथम कानून 1972 में एनवायरनमेंट एक्ट व वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट लागू किया गया। स्वतंत्रता पूर्व 1927 से ही वन्य अधिनियम है। 1974 में वाटर एक्ट और 1981 में एयर एक्ट लागू किया गया। वन्य अधिनियम कानून 1927 से लागू है और इस कानून का उल्लंघन करने के मामले में पहले नम्बर पर राजस्थान, दूसरे पर उत्तर प्रदेश और तीसरे स्थान पर हिमाचल प्रदेश आता है। राजस्थान में इस कानून के उल्लंघन के 1,191 मामले दर्ज हैं, वहीं उत्तर प्रदेश में 1,815 और हिमाचल प्रदेश में 157 मामले दर्ज हैं। 2016 में औसतन प्रतिदिन 9.3 मुकदमे निपटाए जाने की जरूरत है ताकि लम्बित मामलों को खत्म किया जा सके। अन्यथा यदि अदालत इसी दर से मुकदमें निपटाती रही तो वर्तमान में लम्बित मुकदमों को निपटाने में 6 साल लगेंगे।

केन्द्रीय पर्यावरण द्वारा संसद में जानकारी दी गई है कि पिछले 4 सालों में 274 बाघों की मौत हो चुकी है। इनमें से प्राकृतिक कारणों से केवल 82 बाघों की मृत्यु हुई है। शेष 70 प्रतिशत से अधिक बाघ की मौत शिकार या अन्य कोई कारण से हुई है यह अभी तक वन विभाग नहीं बता पाया है। 2014 में नेरोबी में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण सभा (यूएनईए) की पहली बैठक में 100 से अधिक पर्यावरण मंत्री एकत्रित हुए। संयुक्त राष्ट्र ने कहा कि पर्यावरण से जुड़े अपराधों में उच्च मुनाफा और इस अपराध के बाद पकड़े जाने की कम सम्भावना ने इसके तेजी से बढ़ने का मुख्य कारण है।

पर्यावरण के मुकद्मे

पर्यावरण से जुड़े मामलों को तेजी से निपटाने के लिये साल 2010 में राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) का गठन किया गया। आठ साल बाद जहाँ पर्यावरण से सम्बन्धित पुलिस मामलों में कमी आई है, वहीं अदालतों में इनकी संख्या बढ़ती जा रही है।

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