अर्घ्य

1 Apr 2011
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पानी से पहला परिचय कब हुआ था? इस सवाल का सटीक जवाब किसी के पास भी मिलना मुश्किल है। इसी तरह मुझे भी याद नहीं कि पानी से मेरा पहला परिचय कैसे हुआ था। स्वाभाविक ही है, जन्म के भी पहले फ्लूइड के रूप में तरलता से पहला नाता बना। जन्म के बाद हुए हर संस्कार में पानी ही रहा हरदम मेरे साथ, जुड़वा की तरह।

बड़ा हुआ तो घर से कुछ दूर बहती नदी की ओर न जाने की चेतावनियाँ कानों में गूंजती लेकिन मुझे तब भी पानी आकर्षित करता ही था, जैसे अब जरा अंतराल हुआ नहीं कि बड़े तालाब का पानी यादों के हरकारे भेज बुला लेता है। इस बीच एक बार मुंबई जाना हुआ तो समंदर को बाहों में भरने का प्रयास कर अपना लगाव जता चुका हूँ। तैराक न होने के बाद भी जब मौका मिला, नदी में पैरों को भीगो कर भीतर तक तरल हो चुका हूँ। कविताओं में पानी के बिम्ब को पढ़ गीला हो चुका हूँ और फिर समाचारों में पानी के सिमटने की दास्तां बता-बता कर कुपित हो चुका हूँ।

कैसा नाता है इस पानी से? जीवन भी पनीले बने रहने की कोशिश में जुटे रहना, जैसे पहला लक्ष्य हो अपना। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का सहधर्मी। मैं कोई ठेकेदार नहीं हूँ कि पानी की कीमत समझाता चलूँ। न मैं कोई व्यवसायी कि पानी से जेब भरता रहूँ। यह तो बस अपने होने की गवाही है। ‘पानी’ के बहाने, अपने होने की गवाही। कभी-कभी सोचता हूँ कि क्या मैं भी पानी के संकट का लाभ उठाने की खातिर लिखता हूँ पानी पर? भीतर से कई जवाब मिले, हर स्वर में एक बात समान थी- पानी की खातिर, पानी की चिंता से पानी की बात।

सच कहूँ तो पानी जब बेवजह बहता है तो मेरा खून खौलता है। व्यक्ति हो या समाज, जब किसी का पानी सूखता है तो मैं खुद को शर्मिंदा पाता हूँ। पानी आने वाली पुश्तों तक पर्याप्त और शुद्ध बचा रहे, मैं पानी की कहानियाँ कहता चलता हूँ। इसी कोशिश में बात बन गई और मेरे अखबार ‘नवदुनिया’ के स्थानीय संपादक श्री गिरीश उपाध्याय ने सहमति जताते हुए 2010 के पूरे ग्रीष्मकाल में पानी पर साप्ताहिक पेज प्रकाशित करने की अनुमति दे दी। इसी उपक्रम के दौरान पानी के कई रूपों से वाकिफ हुआ। फिर विकास संवाद की ओर से श्री सचिन जैन और श्री प्रशांत दुबे ने पहल की और ‘पानी’ को इस रूप में आप तक पहुँचाने का संकल्प पूरा हुआ। मेरी दिली ख्वाहिश थी कि जिस लगाव से मैंने ‘पानी’ को महसूस किया, उतनी ही तरलता से इसका प्रकाशन हो जाये। न मुझे द्रव्य का संकट उठाना पड़े और न इसके लिए जुगत भिड़ाना पड़े। मेरा सौभाग्य कि विकास संवाद ने मुझे इस संकट से उबार लिया।

भाग्य ने साथ दिया और मुझे अनुपम जी का आशीष मिल गया। अनुपम जी को इस किताब के जरिये एक बात कहना चाहता हूँ कि जब मैंने ‘आज भी खरे हैं तालाब’ पढ़ी थी तो यकायक एक तमन्ना ने जन्म ले लिया था कि अनुपम जी से परिचय हो जाए। यह परिचय इस तरह होगा सोचा न था। ख्याल से परे सच का यूँ सामने आना अप्रतिम सुखकर है। यह ठीक वैसा ही जैसा मेरे गुरू रूप संपादक श्री उमेश त्रिवेदी का साथ होना। उमेश जी ने मुझे नई दुनिया में जगह दी और फिर अच्छे लेखन के लिए हमेशा प्रेरित किया। उनके दिए लक्ष्य मुझे सदैव आगे ले गये हैं। इस काम में आमुख चित्र का संकट श्री रवीन्द्र व्यास ने दूर कर दिया। मैं सभी का ऋणी हूँ।

उन सभी का आभार जिन्होंने मुझे तरल और सरस बनाए रखने में मदद की।

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