आर्सेनिक - मौत बाँटता पानी

12 Jun 2016
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गर्मी बढ़ गई, पारा आसमान छूने को है, चारों ओर पानी के लिये त्राही-त्राही मची है। लेकिन छत्तीसगढ़ में दो तरफ से लोगों की मौत हो रही है वे बर्बाद हो रहे हैं। पहले तो वे हैं जिनके पास पीने, आजीविका चलाने, सिंचाई करने का पानी नहीं है जैसे की किसान।

धान का कटोरा कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ में 40 से ज्यादा किसानों ने मौत को गले सिर्फ इसलिये लगा लिया क्योंकि उनके पास अपने खेतों को सिंचने के लिये पानी नहीं था। दूसरे ओर वे लोग हैं जिनके पास पानी तो है लेकिन उनके पानी में धीमा जहर है और सेवन के साथ धीरे-धीरे मौत हो जाती है।

पिछले एक दशक से भी अधिक ये मौत का खेल चल रहा है और हुक्मरान बजाय स्थिति सुधारने के लिये ठोस प्रयास करने के कुंडली मार तमाशबीन बने बैठे हुए हैं। कारण आप समझ जाएँगे।

राजधानी रायपुर से करीब 140 किलोमीटर दूर, राजनांदगाँव के चौकी ब्लॉक में स्थित आदिवासी बहुल कौदिकसा गाँव में लोग उठने के साथ खाली पेट पानी पीने को किसी गुनाह से कम नहीं समझते हैं।

बड़े बुजुर्ग कहते हैं कि ऐसा करने से देवी से शाप लग जाता है, बुरी आत्माएँ उस व्यक्ति पर हावी हो जाती है। लेकिन अगर वो ऐसा नहीं भी करता है तब पर भी उस व्यक्ति को उस गाँव में रहने की भारी कीमत चुकानी पड़ती है। यहाँ व्यक्ति जितना पानी पीता है आयु उतनी ही छोटी होती चली जाती है।

यहाँ के पानी में धीमा जहर है। कई लोग इसके चपेट में आकर निर्दोष होते हुए भी अपना जान गवाँ चुके हैं।

1994 में गाँव के सरकारी स्कूल में काम करने वाला आदिवासी पीउन तीजूराम की अचानक से मौत हो गई। उसका शरीर स्याह पड़ चुका था। उसे किसी भी प्रकार की खराब आदतें नहीं थीं। वह सवेरे उठता था और खाली पेट जमकर स्कूल के आगे लगी हैण्डपम्प से पानी पीता था, नहाता था। लोग कहते हैं कि जितना वह नहाते जाता था उतना ही उसके शरीर का रंग काला पड़ता गया और एक दिन उसकी मौत हो गई।

वह हैण्डपम्प जिसके पानी से नहाने के कारण स्कूल पीउन की मौत हुईतीजूराम के बाद केशुराम, कामता प्रसाद, सवाना बाई, देव प्रसाद तारम, डॉ. इन्द्रजीत प्रसाद, जितेंद्र यादव, कामता प्रसाद गुप्ता, सुभाषराम कुंजाम, राम कुंवर सिंह, अवंतिन बाई, सुबहुराम यादव और हाल ही में कृष्णा महाराज की मौत हो गई। गाँव वाले बताते हैं कि पिछले 5 सालों के अन्दर 40 लोगों की मौत जहरीला पानी पीने की वजह से हो चुकी है।

स्वास्थ पर पड़ता हानिकारक प्रभाव


जो बच गए हैं उनकी स्थिति बहुत ही खराब है। 1700 से ज्यादा की आबादी वाले इस गाँव में सैकड़ों लोग आज भी मौत के मुहाने पर खड़े हैं।

55 वर्षीय युवराज सिंह तारम के हाथों में काफी संख्या में घाव हैं जो भरता ही नहीं और हाथ का चमड़ा इतना सख्त हो जाता है कि कई बार उंगलियाँ मुड़ ही नहीं पातीं। तारम बताते हैं कि मजबूरी में उन्हें अपने हाथों की चमड़े छीलने पड़ते हैं। पानी में हाथ डालने के बाद वह फूल जाता है फिर जानलेवा टीस उठती है।

पूर्व सरम्पच युवराज सिंह तारम कहते हैं कि पहले उनके मोहल्ले में सरकार द्वारा प्रदत्त एक ही हैण्डपम्प था जो स्कूल के आगे गाड़ी गई थी। सब लोग उसी से पानी पीते थे। जब तक उन्हें पानी में आर्सेनिक होने का पता चला तब तक काफी देर हो चुकी थी।

हेयर ड्रेसर की दुकान चलाने वाले रोहित कौशिक अपने शरीर पर बने चकत्ते और पाँव में मछली के तरह पड़ते फफोलों को दिखाते हुए कहते हैं कि पहले तो उन्हें भी लगा की सामान्य लोगों की तरह पाँव फटने की बीमारी है लेकिन धीरे-धीरे उनका यह भ्रम दूर हो गया। तलवे चमड़ा सूखने से पड़े स्केल्स को रोहित कई बार ब्लेड से काटकर निकाल चुके हैं। रोहित बताते हैं कि जब वे ऐसा करते हैं तो काफी खून आता है लेकिन अगर वे चमड़े के पूरी परत को नहीं निकालते तो वे चल भी नहीं पाते।

60वें बसन्त पार कर चुकी जगदीश देवी अपने शरीर में बने सफेद दाग जैसे चकत्तों को देखकर बताती हैं कि वे काफी डॉक्टरों को दिखा चुकी हैं पर कोई ठोस समाधान नहीं निकला। लेकिन जब रायपुर के एम्स में दिखलाया तो डाक्टरों के इलाज से थोड़ा सा आराम है पर कुपच और पेट में गैस की समस्या अभी बरकार है। जगदीश बताती है कि उन्हें अभी भी रात को चक्कर आते हैं। आर्सेनिक के कारण से उन्होंने अपना बेटा और पति खो चुकी हैं। पर उन्हें खुद की चिन्ता नहीं है।

वे कहती हैं कि काफी संख्या में लड़कियाँ इस जहरीली आर्सेनिक की चपेट में आ गई हैं। ज्यादातर लड़कियों को असामान्य महावारी, चक्कर आना, कमजोरी, और त्वचा रोग का शिकार होना पड़ रहा है। काफी सारी महिलाओं को रक्त की कमी और गर्भवती होने पर दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। वे कहती हैं कि हमारी पूरी-की-पूरी पीढ़ी इस जानलेवा बीमारी की चपेट में है।

.गाँव के ही रहने वाला हितेंद्र कुमार ने बताया कि उनको लगाकर कुल छह लोगों ने मूत्र सम्बन्धी रोग से ग्रसित होकर आपरेशन करवाया है। उन्हें इसके लिये रायपुर से लेकर हैदराबाद तक के चक्कर लगाने पड़े। काफी कर्ज हो गया है। डॉक्टरों ने तो गाँव को ही छोड़ने की नसीहत दे दी। अब ना ही ज्यादा पैसे बचे हैं ना ही ज्यादा जमीनें ऐसे में अब परिवार के साथ जाएँ कहाँ।

भारतीय जनता पार्टी से जुड़े नेता एवं स्थानीय पत्रकार दिगंबर शांडिल्य कहते हैं कि अगर आप पीड़ितों की लिस्ट लेकर उनके नाम लिखना चालू करेंगे तो सैकड़ों नाम सिर्फ इसी गाँव से निकल जाएँगे। क्योंकि इस गाँव में करीब 70-80 प्रतिशत लोग किसी-ना-किसी तरह से इस बीमारी के चपेट में है।

आर्सेनिक की वजह से 25 गाँव के लोग पीड़ित हैं जिसमें कौदिकसा, कुंदेराटोला, मुलहेटीटोला, बोदल, तारामटोला, गोटुल मुंडा, देरवारसुर, ‌भर्रीटोला, मेटापार, नीचेकाटोला, भगवानटोला, मेरागाँव, बिहारीकला, खुर्सीतीकुल, अर्जकुंड, कुम्हाली, पिपरगढ़, गौलिटीटोला, गोपालिन छुआ, परसाटोला, पंडरीतराई, कालकसा, सांगली, सोनसाय टोला, तेली टोला शामिल है। लेकिन जो कहर कौदिकसा, सोनसाय टोला एवं सांगली ग्राम पंचायत के कुछेक गाँव में देखने को आज भी मिल रहा है, वैसा दूसरे गाँवों से फिलहाल सुनने को नहीं मिला।

प्रभावित होती शिक्षा और अर्थव्यवस्था


ऐसा नहीं है कि आर्सेनिक का प्रभाव केवल लोगों के स्वास्थ्य तक सिमट के रह गया है। इसके दूसरे प्रभाव इतने भयानक हैं कि लोगों की रुह काँप जाती है। इससे दुधारू गाय से लेकर मवेशी यहाँ तक पेड़-पौधे और फसल सभी प्रभावित हुए हैं। माखन तारम बताते हैं कि उनकी खेतों की फसल की उत्पादकता लगातार कम होते जा रही है और भैंस ने दूध देना कम कर दिया है। फसल स्वास्थ नहीं रहने से खेती घाटे का सौदा बन गई है।

दूसरी ओर गाँव के कई बच्चे, जवान से लेकर बुजुर्ग तक आर्सेनिक जनित बीमारियों के चपेट में आने से भयावह हो गई है। स्कूल टीचर शान्ति बताती है कि आये दिन कक्षाओं में छात्र-छात्राओं की उपस्थिति में कटौती होते रहती है।

शांडिल्य बताते हैं कि जब मौतों का सिलसिला चालू हुआ तब तक काफी संख्या में कई वैज्ञानिक कोलकाता, दिल्ली, अमेरिका नाइजीरिया जैसे जगहों से आ चुके थे। लोगों ने शोध करना चालू कर दिया।

वैज्ञानिकों ने गाँव, गली, गोठान, तालाब, कुआँ, चापाकल, झरीया सभी जगहों से मिट्टी और पानी के सैम्पल इकट्ठा किया और शोध करने के लिये अपने साथ ले गए। शोध-पर-शोध किये गए। जब परिणाम आना था तब तक तीजूराम का मामला मीडिया में जमकर उछल चुका था। तब तक लोगों के मन में ये बात घर कर गई की गाँव शापित हो चुका है। यहाँ के पानी पर जरूर किसी बुरी आत्मा का प्रवेश हो चुका है, यज्ञ, ओझा गुणी के साथ तमाम तरह की टोटके अपनाए गए। पर परिणाम ढाक के तीन पात ही रहा।

.उधर लगातार हो रहे मौतों से दबाव में आई सरकार ने पीएचई विभाग की ओर से इस पर शोध करने के लिये पहल कर दी। यूनिसेफ के साथ करार भी किया गया।

क्या कहते हैं वैज्ञानिक एवं उनकी खोज


आर्सेनिक प्वॉइजनिंग का केस 1978-80 के मध्य पश्चिम बंगाल में देखने को मिला था। इस पर स्कूल ऑफ ट्रापिकल मेडिसन के प्रोफेसर केसी साहा ने काफी कार्य किया था। साहा ने अपने रिपोर्ट में कौदिकसा के बारे जिक्र करते हुए कहा कि 70 के दशक के पूर्व में ही कौदिकसा नामक जगह पर आर्सेनिक प्वॉइजनिंग के मामले के बारे में ज्ञात हुआ उसके बाद भी वहाँ काफी देरी से शुरुआत की गई।

वैज्ञानिकों ने 800 से भी ज्यादा के सैंपल इकट्ठा किया और उस पर जो अपनी रिपोर्ट सौंपी। उसमें बंगाल में 0.01-.05 आर्सेनिक मिलीग्राम प्रति लीटर में पाया गया जबकि कौदिकसा में प्रति लीटर यह 0.52 मिलीग्राम तक पाया गया। कहीं-कहीं पर तो .92 मिग्रा प्रति लीटर तक है। वैज्ञानिक ये भी बताते हैं जिस व्यक्ति कि उनके सामने मौत हुई थी उसका शरीर इसलिये काला पड़ गया था क्योंकि आर्सेनिक प्वॉइजनिंग के कारण स्किन कैंसर के चपेट में आ गया था। इसके अलावा उसे किडनी एवं अन्य बीमारियाँ भी हो गई थीं। प्रतिदिन वो करीब 6 लीटर तक पानी पीता था। उसके घर के बहु बेटी से लेकर सभी लोग आर्सेनिक से पीड़ित थे।

वैज्ञानिकों का मानना है कि राजनांदगाँव का चौकी ब्लॉक खासकर कौदिकसा से जुड़े हुए एक लम्बा-चौड़ा भूभाग आग्नेय चट्टानों से भरा हुआ इलाका है। जिसमें खनिजों का मिश्रण काफी प्रचुर मात्रा में है। मौसम के मार और वर्षा से लगातार ये चट्टानें घुलती रही हैं। लेकिन पिछले कुछेक वर्षों में जब यहाँ पर मानवीय गतिविधियाँ तेज हुईं तो इसके घुलने एवं चट्टानों की टूटने की प्रकियाएँ काफी तेज हो गई।

1988-89 में कौदिकसा से करीब 5 किलोमीटर दूरी पर बोदल माइन्स से नेशनल एटॉमिक कमीशन के अनुशंसा से यूरेनियम निकाला जाने लगा। वहाँ पर अभी भी उस दौरान खदान के अन्दर से रासायनिक मिश्रण के ढेर पड़े हुए हैं। इसमें आर्सेनिक कितनी मात्रा में है यह फिलहाल शोध की वस्तु है। लेकिन लोगों का मानना है कि जबसे बोदल के यूरेनियम माइन्स चालू हुआ तब से उस इलाके में आर्सेनिक प्रभावित लोगों की संख्या बढ़ने लगी।

पंडित रवि शंकर शुक्ल यूनिवर्सिटी के रसायन विभाग में कार्य करने वाले प्रोफेसर के एस पटेल जिन्होंने अपने टीम के साथ कौदिकसा एवं अन्य ग्रामों में जाकर लम्बे समय तक रिसर्च किया बताते हैं कि वहाँ की स्थिति बहुत ही भयावह है और आने वाले समय में काफी संख्या में लोगों की मौतें होंगी। क्योंकि आर्सेनिक नामक जहर सिर्फ पानी में ही नहीं, वहाँ की जमीन, आबोहवा, फल, सब्जी, अनाज सभी में घुल रही है। नदी, नाले, जंगल सभी प्रदूषित हो रहे हैं। कुछ लोगों के शरीर में 15 मिग्रा तक आर्सेनिक पाया गया है। इंसान के खात्मे के लिये 1 मिग्रा काफी है।

गाँव का वह स्कूल जहाँ सबसे पहले लोगों को आर्सेनिक प्वॉइजनिंग नामक बीमारी के बारे में पता चलाइसके प्रदूषण से आने वाली पीढ़ियाँ पीड़ित होंगी। इसलिये सरकार को चाहिए कि बजाय दिखावा के इस पर गम्भीरता से विचार करे पहले ये पता लगाए कि उस क्षेत्र में कितनी और कहाँ पर आर्सेनिक का प्रभाव है। आपको बता दूँ उस क्षेत्र में लोग आर्सेनिक से ही नहीं बल्कि फ्लोराइड से भी पीड़ित है वहाँ के पानी में आर्सेनिक के साथ साथ फ्लोराइड भी जबरदस्त मात्रा में घुली हुई है।

पटेल के मुताबिक कौदिकसा के जल से लेकर जमीन आबोहवा में आर्सेनिक का पाया जाना एक प्राकृतिक आपदा है उसके प्रभाव को कम करने की कोशिश की जा सकती है इसके लिये दृढ़ इच्छाशक्ति की जरूरत है।

वैज्ञानिकों का यहाँ तक मानना है कि पानी में आर्सेनिक के प्रभाव को निर्मूल करने के लिये सरकार को विस्तृत शोध करवाना चाहिए। समय रहते इसका इलाज, बचाव के उपाय के साथ-साथ पीने योग्य स्वच्छ पानी की व्यवस्था नहीं की जाती है तो काफी संख्या में लोग इस धीमा जहर का शिकार हो सकते हैं और उनकी जानें जा सकती है।

सरकारी दृष्टिकोण


अब चूँकि गेंद सरकारी पाले में थी इसलिये हुआ भी ऐसा ही जैसा की अन्देशा था। सरकार ने करोड़ों रुपए फूँक दिया। नेशनल एनवायरनमेंटल इंजिनियरिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट (नीरी) संस्था ने सरकार से अनुमति लेकर तीन जगह पानी को आर्सेनिक मुक्त करने के लिये प्रायोगिक तौर पर प्लांट लगाए। इन मशीनों को लगाने में सरकार का कितना पैसा खर्च हुआ फिलहाल कोई बताने को तैयार नहीं है। लेकिन लोग बताते हैं कि उनको इसका फायदा नहीं मिला। कुछ दिनों तक मशीन चली, कांट्रेक्ट पर लोग रखे थे, पानी जो निकला उस पर शोध ही होते रहे। स्वच्छ पानी का सपना सपना ही रह गया।

पीएचई के एक्जिक्यूटिव इंजीनियर पांडे बताते हैं कि ऐसा नहीं है कि सरकार ने काम नहीं किया। सरकार की ओर से पूरे प्रयास किये गए। पीएचई विभाग ने करोड़ों रुपए की लागत से पानी से आर्सेनिक हटाने वाली संयंत्र की स्थापना की। नलजल योजना के लिये भी प्रयास किये जा रहे हैं।

राजनांदगाँव जिला कलेक्टर मुकेश बंसल कहते हैं कि चौकी ब्लॉक के कौदिकसा में लोगों के सामने पानी की समस्या है इसको दूर करने के लिये सरकार 28 करोड़ की लागत से स्वच्छ पानी के लिये संयंत्र लगा रही है पानी पाइपों के जरिए पहुँचाया जाएगा। इसमें करीब एक से डेढ़ साल का वक्त लगेगा। लेकिन जिस गम्भीरता से आप समस्या का जिक्र कर रहे हैं वैसी सूचना मुझे नहीं है, ना ही आज तक मेरे सामने गाँव वाले या गाँव का कोई समूह इस समस्या को लेकर मेरे पास आया है। मेरे पास किसी ने मुआवजे की भी माँग नहीं रखी, ना ही मुझे आर्सेनिक से लोगों के मरने के बारे में सूचना है। चूँकि आपने इस मुद्दे को मेरे सामने उठाया है तो मैं अपने स्तर पर इसकी जाँच करवा लूँगा।

क्या कहती है विपक्ष


स्कूल में पसरता सन्नाटाआर्सेनिक के मामले को जब विपक्ष के सामने उठाया गया तो विपक्ष का रवैया काफी आक्रमक था। कांग्रेस के प्रवक्ता शैलेश निति त्रिवेदी का कहना है कि कौदिकसा, राजनांदगाँव के चौकी ब्लॉक में पड़ता है और राजनांदगाँव मुख्यमंत्री रमन सिंह एवं उनके सुपुत्र युवा सांसद अभिषेक सिंह का जिला है। यहाँ पर रहने वाले ज्यादातर आदिवासी और किसान इसके चपेट में हैं। उनको यह नहीं मालूम है कि वे इस बीमारी से कैसे बचें। हाल ही में इसे हमारे ओर से विधानसभा में उठाया गया था। लेकिन जिस संवेदनशीलता और गम्भीरता की आशा हमें सरकार से थी वैसा जवाब हमें नहीं मिला। क्योंकि मुख्यमंत्री और उनके सांसद सुपुत्र को जनता की गाढ़ी कमाई को भ्रष्टाचार के माध्यम से विदेशों में जमा करने की चिन्ता ज्यादा है। हाल ही में पनामा लीक हुआ है उनमें मुख्यमंत्री के सांसद सुपुत्र का नाम आया है। ऐसे गैर जिम्मेदार और भ्रष्टाचारी सरकार से आप क्या उम्मीद कर सकते हैं। जनता के सामने इनकी पोल खुल चुकी है। अब जनता की बारी आने वाली है इन्हें सबक सीखाएगी। हमारी सरकार जब सत्ता में आएगी तो हम आर्सेनिक पीड़ित जनता के लिये अवश्य ही आवश्यक पहल करेंगे।

वास्तविक स्थिति


गाँव के मोहन बताते हैं कि भवन और मशीन आज भी हैं। आर्सेनिक रहित नल की टोंटियाँ तो लगा दी गई लेकिन उसमें से पानी निकलते आज तक मैंने नहीं देखा।

गाँववालों की इन आरोपों पर भरोसा किया जा सकता है क्योंकि जहाँ टोटियाँ लगी हैं वहाँ पहले कभी पानी आता होगा यह कहना काफी मुश्किल सा प्रतीत होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो सरकार ने स्वच्छ आर्सेनिक रहित पानी के लिये करोड़ों रुपए पानी के तरह बहा दिये, पर हकीकत यह है कि इन क्षेत्रों में लोग आज भी पानी के लिये तरसते हैं।

सही मायनों में कहें तो गाँव वालों को स्वच्छ पीने का पानी जिला प्रशासन एवं सरकार मुहैया कराने में नाकाम रही है। जिसका प्रभाव लोगों के स्वास्थ्य पर बड़ा ही भयंकर तरीके से पड़ा है। ऐसा नहीं है कि मीडिया ने इस मुद्दे को नहीं उठाया।

स्थानीय बाशिन्दों के मुताबिक कौदिकसा गाँव में एक समय ऐसा भी आया कि मीडिया ने मौतों के इस सिलसिला को जबरदस्त तरीके से उठाया। लेकिन जैसा कि सरकारी कामों में होता है जब तक वो सुर्खियाँ बनी रही तब तक सरकारी अधिकारियों ने भी इस ओर पहल करने की बात कही लेकिन जैसे ही सुर्खियाँ बननी बन्द हुई एक-एक करके सबने आँखें फेर ली। स्थितियाँ बद-से-बदतर हो गई।

गाँव के स्थानीय लोग बताते हैं कि मीडिया में जो रिपोर्ट छपी उससे गाँव की जबरदस्त बदनामी हुई। दूसरे गाँव के लोगों ने हमारे यहाँ से रोटी-बेटी का चलन ही करीब-करीब बन्द सा कर दिया था। गाँव के लड़के-लड़कियों की शादियाँ अन्य गाँव में होना करीब-करीब बन्द जैसे ही हो गया था। 90 के दशक में बदनामी मीडिया रिपोर्टों से हुई थी। इसलिये पत्रकार निशाने पर थे, लोग पत्रकारों के नाम सुनने के साथ ही नाक भौं सिकोड़ लेते थे। अब जाकर पत्रकारों के पक्ष में परिस्थितियाँ थोड़ी से बदली है।

आज भी इस तालाब में जहरीले आर्सेनिक पाये जाते हैंआर्सेनिक प्वॉइजनिंग पर रिपोर्ट नहीं के बराबर ही छपती है लेकिन लाख टके का सवाल यहाँ यह है कि क्या पत्रकारों को प्रतिबन्धित कर देने से स्थिति सुधरेगी

आर्सेनिक प्वॉइजनिंग से सम्बन्धित कुछेक रोचक तथ्य


आर्सेनिक प्वॉइजनिंग एवं वैश्विक परिप्रेक्ष्य


आर्सेनिक प्वॉइजनिंग क्या है


यह एक मेडिकल स्थिति है जिसमें अकार्बनिक आर्सेनिक की मात्रा शरीर में पाये जाने वाले आर्सेनिक से कई गुणा ज्यादा बढ़ जाती है। ये आमतौर पर पीने के पानी में आर्सेनिक की मात्रा ज्यादा होने के कारण से हो जाती है।

सन 2007 में जब वैश्विक स्तर पर इसके सम्बन्ध में जानकारी इकट्ठा की गई तो पाया गया है कि विश्व के 70 से भी अधिक देश आर्सेनिक प्वॉइजनिंग से ग्रसित हैं और 13 करोड़ 70 लाख लोग इससे पीड़ित हैं। लाखों की संख्या में प्रतिवर्ष इसके कारण जानें चली जाती हैं। इतिहास बताता है कि आर्सेनिक प्वॉइजनिंग से सर्वाधिक मौतें बांग्लादेश में हुईं।

आर्सेनिक अधिकतर पानी में आर्सेनिक साल्ट के रूप में घुला हुआ रहता है। वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन के मुताबिक पीने के पानी में आर्सेनिक अगर 0.01 मिग्रा/ली. है तो भी व्यक्ति के स्वास्थ पर ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ता है। लेकिन हालिया के जो शोध हुए हैं वे बताते हैं कि अगर पीने के पानी में आर्सेनिक 0.00017 मिग्रा/ली. तक भी है और व्यक्ति अगर उसे लम्बे समय तक प्रयोग करता है तो भी वह आर्सेनिकोसिस नामक बीमारी से पीड़ित हो सकता है।

1988 में एक अमेरिकी सुरक्षा एजेंसी द्वारा चीन में किये गए शोध के दौरान मिला और पाया गया कि जितना ज्यादा आर्सेनिक की मात्रा पानी में बढ़ती जाएगी उसी मुताबिक स्किन कैंसर की सम्भावना बढ़ जाएगी। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जो पीने का पानी की परमिसिबल लिमिट फिक्स की है 0.01 मिग्रा/ली. है, वैसी स्थिति में भी पाया गया कि 10,000 में से 6 लोग स्किन कैंसर के चपेट में आ गए। शोध में यह भी पाया गया कि आर्सेनिक प्वॉइजनिंग इन कारणों से आता है।

पीएचई द्वारा लगाए गए करोड़ों का संयंत्र को दिखाते हुए जिससे आज गाँव वालों ने साफ पानी निकलते हुए नहीं देखा

1-खनिज युक्त चट्टानों को ड्रीलिंग के जरिए तोड़ने,
2-मिथेन के बढ़ते प्रभाव से
3- फर्टिलाइजर युक्त आर्सेनिक का इस्तेमाल करने से
4- पानी में आर्सेनिक के मौजूद होने से
5- खाद्य पदार्थ जैसे की चावल, या फल जो आर्सेनिक युक्त मृदा में उपजाए गए हो
6- आर्सेनिक युक्त दूषित दूध से
7- पॉल्ट्री वाले मुर्गे को ज्यादा वजनी बनाने के लिये उन्हें आर्सेनिक युक्त चारा खिलाया जाता है

आर्सेनिक प्वॉइजनिंग के उपचार


ऐसा नहीं है कि आर्सेनिक प्वॉइजनिंग से बचा नहीं जा सकता है। आर्सेनिक प्वॉइजनिंग से खुद को सुरक्षित रखने के लिये उपचार के तौर पर विदेशों में Dimercaprol नामक chelating agents का इस्तेमाल किया जाता है। डॉक्टर मरीज के स्थिति के मुताबिक उसका उपचार करते हैं। दूसरा उपाय यह है कि मरीज के खुराक में पोटैशियम की मात्रा बढ़ा दी जाये। तीसरा आर्सेनिक हटाने के लिये आर्सेनिक रिमूवल प्लांट्स की स्थापना किया जाये जिसमें कि एक्टिवेटेड कार्बन, एल्यूमिनियम ऑक्साइड, जैसे एबजार्बेंट्स इस्तेमाल किया गया है।

आर्सेनिक प्वॉइजनिंग एवं इसके ऐतिहासिक राजनीतिक महत्त्व


ऐतिहासिक आलेखों में आर्सेनिक का दवा के रूप में इस्तेमाल चाइनिज वैध 2400 साल पहले से करते आ रहे थे। पश्चिम में पेनिसिलिन के खोज से पहले सिफलिस नामक बीमारी का इलाज इसी के जरिए किया जाता था। ऐलिजाबेथिक समय में आर्सेनिक का इस्तेमाल सुन्दरियों द्वारा वीनेगार, चाक के मिश्रण के साथ रंग को गोरा किये जाने का भी प्रमाण है।

कई बार आवश्यकता से अधिक मात्रा में इसका इस्तेमाल से कई कलाकारों की मौत भी हो जाती थी। 19वीं शताब्दी तक इसका इस्तेमाल राजनीतिक हत्या तक भी होने लगा। कोरिया के राजवंश में षड़यंत्रकारी इसे मदीरा एवं पेय पदार्थों में अन्य मिश्रणों के साथ मिला देते थे और आर्सेनिक युक्त मदीरा या पेय पदार्थ का सेवन करने के बाद व्यक्ति की मौत हो जाती थी।

नीरी द्वारा लगाए गए लाखों के संयंत्र जिससे लोगों को कभी लाभ नहीं हुआ आज कबाड़ में तब्दील हैआर्सेनिक प्वॉइजनिंग के कारण राजनितिक षड़यंत्र के तहत मारे जाने वाले लोगों की संख्या इस प्रकार हैं। फ्रांस के ग्रांड ड्यूक, ब्रिटेन के जार्ज -3, थियोडोर एवं नेपोलियन बोनापार्ट इत्यादी।


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