आर्थिक संकट, आश्वासन और राजनीति

बागमती घाटी में सिंचाई के नाम पर विभिन्न सरकारों द्वारा बरगलाये जाने का सिलसिला अभी तक खत्म नहीं हुआ है। बागमती नदी द्वारा बाढ़ नियंत्रण और सिंचाई की जो भी मांगे उन दिनों उठती थीं उनके केन्द्र में कहीं न कहीं एम. पी. मथरानी द्वारा 1956 में तैयार की गयी परियोजना रिपोर्ट ही रहा करती थी क्योंकि वही एक उपलब्ध आधारपत्र था। आधिकारिक रूप से इस योजना को सरकार की स्वीकृति के लिए 1969 में प्रस्तुत किया गया और बिहार सरकार द्वारा इसकी प्रशासनिक स्वीकृति दिसम्बर 1970 में दी गयी।

1957 में बिहार में राज्य-व्यापी सूखा पड़ा था और उससे मुजफ्फरपुर जिला भी प्रभावित हुआ था जिसकी वजह से सिंचाई की मांग में स्वाभाविक रूप से तेजी आयी और आमतौर पर धारणा यह बनी कि दूसरी पंचवर्षीय योजना में बागमती परियोजना को हाथ में लेने का समय बीत चुका है मगर तीसरी पंचवर्षीय योजना में इसे क्रियान्वयन के लिए जरूर शामिल कर लिया जायेगा। ऐसा मगर हुआ नहीं। अर्थाभाव के कारण यह योजना खटाई में पड़ गयी। सरकार द्वारा बागमती घाटी में सिंचाई की कोई व्यवस्था नहीं किये जाने की शिकायत करते हुए गिरिजा नन्दन सिंह ने एक बार फिर सरकार को चेताया, ‘‘... बागमती क्षेत्र की जमीन अत्यधिक उर्वर है। बागमती द्वारा लायी गयी मिट्टी की खाद से यह पटी है। धान तथा रबी इस क्षेत्र की मुख्य फसलें हैं परन्तु यह क्षेत्र बराबर बाढ़ और सूखे का शिकार होता रहा है जिसके परिणामस्वरूप यहाँ के लोग भूखों मर रहे हैं। यद्यपि इस क्षेत्र से होकर अत्यधिक पानी बहता है, फिर भी कुछ छोटे-छोटे इलाकों को छोड़ कर यहाँ की खेती केवल स्थानीय वर्षा पर ही निर्भर है और जब वर्षा नहीं होती है तब अकाल की सी स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

सम्पूर्ण भू-भाग में वर्षा अनिश्चित तथा अनियमित रूप से होती है। इतना बड़ा तथा उर्वर भू-भाग देश में और कोई नहीं है जो इस प्रकार सूखे का बराबर शिकार होता है।’’ मुजफ्फरपुर जिले के सीतामढ़ी अनुमण्डल में बाढ़ से लगातार होने वाले नुकसान का हवाला देते हुए उन्होंने केन्द्र तथा राज्य-सरकार से अपील की कि वह क्षेत्र की समस्याओं पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करें और तीसरी पंचवर्षीय योजना में बागमती योजना को शामिल करें। इधर 1962 के चीन युद्ध की आशंका ने इस तरह की सारी योजनाओं पर प्रश्न चिह्न लगा दिये थे और उसका शिकार बागमती भी हुई। आशा की किरण एक बार फिर फूटी जब 11 नवम्बर 1963 को केन्द्रीय सिंचाई मंत्री डॉ. के. एल. राव सीतामढ़ी आये।

सीतामढ़ी में 12 नवम्बर 1963 को डॉ. राव ने बागमती-अधवारा सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए कहा कि बागमती क्षेत्र की धरती बहुत उपजाऊ है और अगर इसकी बाढ़ से रक्षा की जा सके तो अन्न के उत्पादन में बहुत बढ़ोतरी हो सकेगी। विद्युत उत्पादन तथा अन्न उत्पादन करने वाली योजनाओं का हमेशा स्वागत होना चाहिये। उन्होंने बागमती पर बराज बना कर उसके दोनों किनारों पर नहरें निकालने का प्रस्ताव किया जिससे किसानों को सिंचाई की सुविधा मिल सके। नदी के किनारे तटबन्ध बनाये जाने के बारे में उनका कहना था कि यह योजना बहुत मंहगी होगी। इस सम्मेलन में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री कृष्ण बल्लभ सहाय तथा सिंचाई मंत्री महेश प्रसाद सिन्हा भी मौजूद थे। इस सम्मेलन को संबोधित करते हुए मुख्यमंत्री कृष्ण बल्लभ सहाय ने संसाधनों की कमी को पूरा करने के लिए बागमती बांड जारी करने का सुझाव दिया जबकि केन्द्रीय मंत्री डा. राम सुभग सिंह ने आश्वासन दिया कि केन्द्र उत्तर बिहार में जूट तथा गन्ने का उत्पादन बढ़ाने के लिए हर संभव सहायता करेगा।

लेकिन केन्द्र द्वारा राज्य को आर्थिक सहायता देने के लिए जो कुछ भी कहा जाता रहा हो, सच यह था कि चीन से 1962 के युद्ध के बाद देश की आर्थिक स्थिति खराब थी और ऊपर से पाकिस्तान से लगी सीमाओं पर भी तनाव बढ़ रहा था। ऐसे में निर्माण कार्यों के लिए संसाधनों की भीषण कमी थी और सरकार कुछ विशेष कर सकने की स्थिति में नहीं थी। बिहार के सिंचाई मंत्री का कहना था, ‘‘...आज हमारे लिए आर्थिक संकट है और हमारे जनरल स्कीम के लिए सिर्फ 2 करोड़ 50 लाख रुपये का इस बजट में प्रोवीजन किया गया है। आप देखेंगे कि हमने कितनी स्कीमों को पूरा किया है और कितनी रनिंग स्कीम हैं जो योजना चल रही है उसमें हमारे कितने पैसे लगेंगे। ...सब से पहला काम सदन का है कि हम लोगों को परेशानी से बचावें और इसके लिए हमको पैसा दिला दें। आज बागमती का तकाजा है और यह नदी (बूढ़ी) गंडक में मिलना चाहती है।’’

इसके अलावा एक कड़वी सच्चाई यह है कि बिहार में बाढ़ का मुद्दा, भले ही वह थोड़े समय के लिए ही क्यों न हो, एकाएक इतनी तेजी से उभरता है कि उसके सामने सिंचाई का सारा मसला ही गौण हो जाता है। ऐसा कई बार हुआ है कि बिहार विधान सभा में सूखे और अनावृष्टि पर चर्चा होनी थी मगर ऐन मौके पर इतनी बारिश हो गयी कि स्थिति बाढ़ की बन गयी और सारी बहस का रुख दूसरी तरफ मुड़ गया। आज भी कोसी और गंडक परियोजनाओं में सिंचाई की बदहाली पर चर्चा इसलिए नहीं हो पाती है क्योंकि सारी बहस के बीच बाढ़ का मुद्दा छाया रहता है। वैसे भी सिंचाई की मांग में कभी उस आपातस्थिति का दर्शन नहीं होता जो बाढ़ के समय सहज भाव से बन जाती है। इसलिए सिंचाई का प्रश्न उठाने या उसे लेकर पार्टियों को राजनीति करने का भी मौका मिल जाता है। ऐसी ही शिकायत विधायक त्रिपुरारी प्रसाद सिंह को व्यवस्था से थी जिसकी अभिव्यक्ति उनके बिहार विधान सभा में दिये गए बयान (1968) से होती है, ‘‘...अभी तक सिंचाई के मामले में 20 साल से कांग्रेस सरकार का जो आधार रहा, वह तो राजनैतिक दृष्टिकोण था एवं वह तो राजनैतिक आधार था।

उनके निकट जो लोग थे, जिनको वे प्रश्रय देना चाहते थे, वहाँ तो स्कीम ली गई, लेकिन ऐसे क्षेत्र जिनकी मंत्री के यहाँ पहुँच नहीं थी उनका क्षेत्र उपेक्षित रहा, ध्यान नहीं दिया गया। जब संविद की सरकार बनी तो हमारा विश्वास था कि बिना किसी राजनैतिक दृष्टि के तमाम क्षेत्रों में, जिन क्षेत्रों में कि पटवन के अभाव में हर साल मारा पड़ता है, दो-दो, तीन-तीन वर्ष में अकाल की लपेट में आना पड़ता है उसकी तरफ सरकार का ध्यान अवश्य जायेगा, लेकिन बहुत दुःख के साथ कहना पड़ता है कि उस संविद सरकार का भी दृष्टिकोण, जो 20 साल की कांग्रेसी सरकार का जैसा रहा वही दृष्टिकोण उनका भी रहा। सरकार बार-बार कहती है कि भारत सरकार हमारे रास्ते में बाधक है। यह कह कर बिहार की जनता को बरगलाया नहीं जा सकता है।’’

बागमती घाटी में सिंचाई के नाम पर विभिन्न सरकारों द्वारा बरगलाये जाने का सिलसिला अभी तक खत्म नहीं हुआ है। बागमती नदी द्वारा बाढ़ नियंत्रण और सिंचाई की जो भी मांगे उन दिनों उठती थीं उनके केन्द्र में कहीं न कहीं एम. पी. मथरानी द्वारा 1956 में तैयार की गयी परियोजना रिपोर्ट ही रहा करती थी क्योंकि वही एक उपलब्ध आधारपत्र था। आधिकारिक रूप से इस योजना को सरकार की स्वीकृति के लिए 1969 में प्रस्तुत किया गया और बिहार सरकार द्वारा इसकी प्रशासनिक स्वीकृति दिसम्बर 1970 में दी गयी। इस योजना के अनुसार बागमती नदी की जो धारा देवापुर, लहसुनियाँ, मकसूदपुर, कनौजर घाट, जठमलपुर और हायाघाट होकर बहती थी, उसके दोनों किनारों पर तटबन्धों का निर्माण करके 397 वर्गमील (1016 वर्ग किलोमीटर) क्षेत्र को बाढ़ से सुरक्षा प्रदान करने का लक्ष्य रखा गया था।

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