अरुणाचल यात्रा

पहले सुवर्णसीरी वर्षा में भी पारदर्शी रहती थी। अब शायद सड़क आदि के कारण मिट्टी आने लगी है। बाढ़ भी आने लगी है। ज्यादा वर्षा से कभी-कभी भूस्खलन भी होता है। पर बहुत कम। मैदानी हिस्सा कम है, बाकी पहाड़ ही पहाड़ हैं। टोक्सिंग क्षेत्र में 12-13 हजार फीट ऊंचाई तक पहाड़ हैं। इधर बदलाव आ रहे हैं। लोगों की अपेक्षाएं बढ़ी हैं। अब घर भी अच्छा चाहते हैं। पुराने गांव ज्यादा आत्मनिर्भर थे। नमक पहले तिब्बत से लाते थे। पहले झूम में सिर्फ औजारों से काम चलता था। भेड़ की ऊन से कपड़े और कम्बल बनाते थे। अब तो हल बैल भी आ गए हैं। कहीं-कहीं खाद भी आ गई है।

ब्रह्मपुत्र की सहायक धारा कामेंग के दर्शन मैने जनवरी 1989 में किए थे। इस समय मुझे कामेंग के अलावा बोमडिला, सेला पास, जसवंत गढ़ और जंग तक जाने का अवसर मिला था। लेकिन ब्रह्मपुत्र की अनेकों धाराओं को, जो कि अरुणाचल प्रदेश के पूर्वी भाग से उद्गमित होकर ब्रह्मपुत्र में समाहित होती है, को देखने की तमन्ना भी थी। पहले तो मैं यह समझता था कि ब्रह्मपुत्र स्वयं में उद्गम से ही एक धारा है, जिसमें उसकी सहायक धराएं समाहित होती हैं और अपने अस्तित्व को उसमें विलीन कर देती हैं। लेकिन मेरी यह धारणा गलत निकली। ठीक उसी तरह जैसे भागीरथी गौमुख से उद्गमित होकर तथा अलकनंदा अलकापुरी बांक से निकल कर अनेकों जल धाराओं को समेट कर देवप्रयाग में भागीरथी में समाहित होकर गंगा कहलायी है। यद्यपि पश्चिमी कामेंग तथा तवांग जिले के एक छोटे से भाग की यात्रा के बाद हम यह बात तो समझ रहे थे कि हमारा पूर्वोत्तर के प्रांतों के हर नदी के पनढाल, यहां तक कि सूक्ष्म से सूक्ष्मतर पनढाल में जितने प्राकृतिक या मौसमी क्षेत्र हैं उतनी ही जीवन पद्धतियां, बोलियां, रहन-सहन आदि की विविधता है।

यह क्षेत्र हिमालय का महत्वपूर्ण भाग तो है ही। साथ ही देश में हर वर्ष बाढ़, भूस्खलन के लिए जानी जाने वाली ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियों का क्षेत्र भी है। प्राकृतिक विशिष्टता के विभिन्न पक्ष भी यहां हैं। इसी प्रकार वर्ष 1897 तथा 1950 के प्रलयंकारी भूकंप, जिनकी तीव्रता 8.7 तथा 8.6 रिएक्टर स्केल पर थी, के कारण यह भूभाग अत्यंत संवेदनशील है। इसे भी समझना था। क्योंकि उत्तराखंड के 1991 भूकंप, जो 6.6 रिएक्टर स्केल पर आया था, के बाद इस क्षेत्र के भूकंपों की मारकता को भी देखना था। इन्हीं बातों को ध्यान में रख कर दशोली ग्राम स्वराज्य मंडल तथा पहाड़ के सदस्यों ने अरुणाचल प्रदेश के पूर्वी-भाग की यात्रा की। इस यात्रा में मेरे अलावा अन्य सदस्य डॉ. शेखर पाठक, डॉ. गौतम भट्टाचार्य, डॉ. ललित पंत, भुवनेश भट्ट, अब्बल सिंह नेगी, ओम प्रकाश तथा डॉ. गिरिजा पांडे थे।

इस यात्रा के लिए हम 4 फरवरी 1992 को गुवाहाटी पहुंचे। यहां पर हम राष्ट्रीय ग्रामीण विकास संस्थान के डॉ. भगवती प्रसाद मैठाणी, असम पुलिस के आई.जी. बी.डी. खरकवाल तथा सचिव पिपर सैनिया को मिले। इन लोगों से प्रस्तावित यात्रा के कार्यक्रम के बारे में बात की तथा गुवाहाटी एवं उसके आस-पास बह रही ब्रह्मपुत्र के दर्शन किए।

05 फरवरी को हम गुवाहाटी से लीलावाड़ी होते हुए नार्थ लखीमपुर में रुके। रास्ते में ब्रह्मपुत्र पौरूषपन और मनमाने गुस्से से भरी लगती है। निगरगंड और अनियंत्रित। अन्य नदियां इतनी मनमानी करती नहीं दिखती हैं। हमारे इलाके की नदियां भी इतनी मनमानी करती नहीं दिखती हैं। अपने यहां की नदियां दोनों ओर के पहाड़ों के अनुशासन में बहती हैं। गंगा-यमुना के मैदान में भी अनुशासन बनाए रखती हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में दियारा के दृश्य जरूर हैं। इतनी दूर-दूर तक वहां भी नदी का फैलाव नहीं है। जैसे ब्रह्मपुत्र सम्पूर्ण घाटी में अपना अधिकार चाहती हो। इसलिए वह अपने क्षेत्र में फैल कर अपने स्वामित्व की सीमा बताती है। साथ ही उपजाऊपन और मछली भी साथ लाती है।

यहां पर हमें उत्तराखंड के कई सिपाही मिले। हमें इतनी दूर देखकर उन्हें भी अच्छा लगा। हम कुमाऊं राइफल्स के कर्नल जोशी को भी मिले। हमारे लिए यहां से जिस गाड़ी का प्रबंध किया गया था, उसके समय पर न पहुंचने से रात को लखीमपुर ही रूकना पड़ा। उत्तरी लखीमपुर के वनाधिकारी बोसोमुतरी मिलने आए थे। उन्होंने बताया कि अरुणाचल प्रदेश की सीमा से लगे हुए असम के कई गांवों में अभी भी झूम खेती हो रही है। अरुणाचल प्रदेश के लोग भी तेजपुर असम की जमीन में झूम करते हैं। जब हम हटाते हैं तो वे अरुणाचल में राहत पाते हैं। असम में चारों और समस्या ही समस्या है। नागालैंड के साथ भी बढ़ रही है। इधर भूक्षरण बढ़ रहा है। अरुणाचल के पुराने जंगल, जो सीमा पर हैं, समाप्त प्रायः है। प्लाईवुड के कारखाने सीमा पर हैं। होलोक तथा मैगार्ड लकड़ी से प्लाई बनता है। दूसरी हाथी की समस्या भी है। वह आदमी को मारता है।

6 फरवरी को हमने अरुणाचल के किमिंग में प्रवेश किया। यहां से हमारी अरुणाचल यात्रा आरंभ हुई। दो स्थानों पर अरुणाचल की सीमा में पुलिस ने चैकिंग किया। एक जगह सेना वालों ने भी चैक किया। आगे याजुली के आस-पास भी झूम खेती देखी गई। इसके पास ही रंगा नदी पर नेपको (NAPCO) द्वारा विद्युत परियोजना का कार्य चल रहा है। जहां पर बिजली के सर्वेक्षण का कार्य भी चल रहा है। रंगा नदी का जल नीला है। रंगा नदी के किनारे-किनारे आगे बढ़े पहले तो चौड़ी पत्ती के जंगल मिले। बीच में झूम खेती भी दिखाई दी। आगे नंगी पहाड़ियां दिखाई दी। लोगों ने बताया कि ये पहाड़ियां पहले से ऐसी ही थी। नंगे पहाड़ लाल और काले दिखाई दिए। जीरो के आस-पास बहुत बड़े इलाके में वनीकरण हैं। इसके आगे नदी बह रही है। आगे हम हाफुली पहुंचे। हाफुली काफी फैला है। यह जीरो जिले का मुख्यालय है। इसके आस-पास पाईन का वृक्षारोपण हुआ है। बताया गया कि यह स्थानीय प्रजाति का है। इस क्षेत्र में खासी पाईन भी है। बांस का प्लान्टेशन भी किया गया है, जो काफी फैल गया है। इधर आपतानी जनजाति के लोग हैं। उन्हें संपन्न माना जाता है। यहां पर संपन्नता की तीन निशानी मानी जाती है। जिसका सड़क पर घर हो, चीड़ और बांस के पेड़ों का स्वामित्व हो और धान के खेत हों। पहले तो कुछ इलाकों में मिथुन आदि कि संख्या पर भी निर्भर था।

जनवरी में जो उत्सव होता है, उसमें एक पेड़ काटा जाता है और वृक्षारोपण भी होता है। आपतानी जाति के लोग लोअर सुवर्णसीरी जिले में हैं। जनवरी में ही मौरंग नामक उत्सव होता है। इस इलाके में स्थायी खेती पर इधर खूब जोर है। बताते हैं कि यह प्रचलन 10-15 सालों से शुरू हुआ। एक ही फसल उगाते हैं। सब्जी का उत्पादन नहीं के बराबर है। जीरो एवं धारोली के आस-पास के गांवों के ऊपरी भाग में चीड़ का वनीकरण है। नीचे के भाग में खेत हैं। मकान पुरानी एवं परंपरागत शैली के बने हुए हैं। मकानों का निर्माण पूर्णतः लकड़ी और बांस पर आधारित है लेकिन छतों पर टिन हैं, जो परंपरा और परिवर्तन की निशानी हैं। हाफुली और जीरों के आगे सात आठ किलोमीटर के बाद घना प्राकृतिक जंगल मिला। रास्ते में सुवर्णसीरी की सहायक नदी कमला भी मिली। यह इलाका ढालदार छोटी-छोटी पहाड़ियों से घिरा है। इस इलाके में जगह-जगह बोरी बुथ उत्सव मनाया जा रहा था। मुख्यमंत्री एवं दो अन्य मंत्री भी इस उत्सव में भाग लेने के लिए आए थे। हम इस दिन जगह-जगह रुकने के कारण 12 बजे रात दपजीरो पहुंचे।

7 फरवरी को मैं 5 बजे जाग गया था। आसमान में बादल छाए थे। रात को हमको पता ही नहीं चला कि हम किस तरफ हैं। बाहर आने के बाद मैंने देखा कि हम एक ऊंची पहाड़ी के मैदान में हैं। नीचे ढाल फिर मैदान, इसी में दपजीरो शहर फैला है। सुवर्णसीरी एवं सैगिरू नदी के संगम से कुछ ही दूरी पर यह नगर बसा है। यह नगर अब प्राचीन परंपरागत शैली से बने आवासों के अलावा यहां पर इधर सीमेंट-सरिया से निर्मित लेंटर वाले मकानों की शुरुआत भी हो गई है। दपजीरो लगभग एक हजार फीट की ऊंचाई पर बसा है। विश्राम गृह के नीचले भाग में स्थित सड़क पर हम आगे बढ़े तो ग्राम डुलम निमा और येकर के लोगों द्वारा पेड़ पर नोटिस पढ़ने को मिला। उसमें लिखा था कि “इस जंगल से पेड़ काटने वालों को सावधान किया जाता है कि उन्हें ऐसा करने पर दंड दिया जाएगा।” शायद यहां शहर के फैलाव के कारण जंगल पर दबाव बढ़ने लगा होगा। यहां पर हमें दो लड़के युमसे और नगूकी मिले। इन्होंने बताया कि जंगल की सुरक्षा के लिए यह बोर्ड टांका गया है। यदि किसी ने पेड़ काटने का प्रयास किया तो से पकड़ कर दंडित किया जाता है। यहां से घाटी का उत्तर-पश्चिमी इलाका दिखता है। जिसमें सभी पारंपरिक मकान हैं। इसके पीछे जंगल है। गमरी और अनार के पेड़ भी बहुतायत में हैं।

यहां पर हमें गांव के एक बुजुर्ग व्यक्ति मिले। इनका नाम डोलम निर्गोम था। वे परंपरागत वस्त्रों में थे। गले में दाव लटकी थी। बांस की डोरी पर बिनाई कर रहे थे। उन्होंने भी जंगल की सुरक्षा की बात बताई। वे हमसे हिन्दी में ही बतियाए। हमारी ए.के. दास डिप्टी कमिश्नर से भेंट हुई। अनुभवी व्यक्ति हैं, प्रांतीय सेवा के अधिकारी हैं। उन्होंने बताया कि कामेंग जिले में झूम से ज्यादा स्थाई खेती होने लगी है। याने सूखी खेती। वे लोग खाद का प्रयोग करते हैं। सुवर्णसीरी घाटी में यह सब नहीं हुआ है। दपजीरों की घाटी में खेत पुराने हैं। झूम कम हो गई है। उसका कारण नौकरी तथा अन्य रोजगार का मिल जाना है। पब्लिक डिस्ट्रिव्यूशन सिस्टम से भी सहयोग लिया जा रहा है तथा संतरे अवं अनानास के बागानों के लिए मदद दी जा रही है। यहां इस साल 350 मैट्रिक टन संतरा की पैदावार हुई। फलों को ग्रेडिंग करके बेचते हैं। विपणन में 50 प्रतिशत अनुदान दिया जाता है। झूम को स्थायी कृषि करने में मदद करते हैं। मिर्च तथा बिना रेशे के अदरक की पैदावार भी बढ़ी है। अब इन्होंने झूम का स्थान लिया है। जिले में 250 से ज्यादा गांव हैं।

दास कहते हैं कि सुवर्णसीरी में साद की मात्रा कम है। इसलिए इसका जल नीला एवं साफ है। सुवर्णसीरी के ऊपरी भाग में जंगल सुरक्षित हैं। नीचे की तरफ जंगल कटे हैं। दपजीरो की आबादी 20 हजार के लगभग है। यहां पर एल.पी.जी. गैस नहीं है। सबके चूल्हे लकड़ी से ही जलते हैं। इसका दबाव भी जंगलों पर पड़ रहा है। बताया गया कि सुवर्णसीरी में पहले सोने के कण मिलते थे। यह नदी तिब्बत की सीमा से उद्गमित होती है। इसमें टकसिंग, कुडिक, मेगथर आदि नदियां मिलती हैं। इस घाटी में नाचू तक मोटर सड़क बनी है। बताते हैं कि उसके बाद साद की मात्रा बढ़ गई है। डूलम जी बताते हैं कि मोटर सड़क आई तो जंगल गए। पहले सुवर्णसीरी वर्षा में भी पारदर्शी रहती थी। अब शायद सड़क आदि के कारण मिट्टी आने लगी है। बाढ़ भी आने लगी है। ज्यादा वर्षा से कभी-कभी भूस्खलन भी होता है। पर बहुत कम। मैदानी हिस्सा कम है, बाकी पहाड़ ही पहाड़ हैं। टोक्सिंग क्षेत्र में 12-13 हजार फीट ऊंचाई तक पहाड़ हैं। इधर बदलाव आ रहे हैं। लोगों की अपेक्षाएं बढ़ी हैं। अब घर भी अच्छा चाहते हैं। पुराने गांव ज्यादा आत्मनिर्भर थे। नमक पहले तिब्बत से लाते थे। पहले झूम में सिर्फ औजारों से काम चलता था। भेड़ की ऊन से कपड़े और कम्बल बनाते थे। अब तो हल बैल भी आ गए हैं। कहीं-कहीं खाद भी आ गई है।

आलोंग के पास सिओम नदी में सिपू नदी समाहित होती है। सुबह ए.के.चटर्जी तथा आलोंग अंचल समिति के सदस्य के.लोमी मिलने आए। उन्होंने चर्चा में बताया कि झूम के स्थान पर पाइन एप्पल तथा संतरे के बागों का विकास हो रहा है। स्थायी खेती की ओर बढ़ रहे हैं। 25 से 30 प्रतिशत झूम नियंत्रण में है। झूम से खेत बनाने के लिए 6 हजार रुपया प्रति हेक्टेयर देते हैं। इस कार्य में ग्रामीण विकास विभाग सहयोग कर रहा है। उन्होंने बताया कि आपतानी (जिरो) में धान के साथ मछली पालन भी होता है। धान नई प्रजाति का है। इसे पकने में 6 माह लगता है। इधर गोभी, पालक, टमाटर, गाजर भी होता है। इस सबसे झूम घट रहा है।

दिन के 12 बजे हमने दपजीरो से प्रस्थान किया। पुल पार करने के बाद दस किलोमीटर तक नदी के किनारे-किनारे चले। रास्ते में गाई नदी भी पार की। तासी नदी भी मिली। ये दोनों नदियां छोटी हैं। इसके बाद झूम खेती का क्षेत्र बढ़ता जा रहा था। झूम सिलसिलेवार होता है। पता चला कि जनवरी के महीने में झूम वाले इलाके से पेड़ काटकर साफ किया जाता है। मार्च के महीने में आग लगाते हैं और अप्रैल से बुवाई करते हैं। आगे हम सुवर्णसीरी के बाएं तट की ओर चले। हम रोन्या गांव में रुके। यहां पर झूम को देखा। समझने का प्रयास किया। गांव में मिथुन के साथ ही सुअर भी पाले जाते हैं। घर तीन मंजिला बना हुआ है। घर पूरी तरह से लकड़ी का बना हुआ है। बड़े-बड़े स्लीपर और बल्लियों से निर्मित घर के नीचे मात्र बल्लियां ही खड़ी की हैं। चारों ओर से तख्तों से ढका गया है। यहां सुअर रहते हैं। ऊपर की मंजिल पर एक कोठरी में शौचालय है। उसमें से मल सीधे नीचे गिरता है। जहां सुअर इसे मिनटों में चट कर जाते हैं। इसलिए नीचे मानव मल की समस्या नहीं है। किंतु सुअरों की गंदगी तो रहेगी ही। बाकी ऊपर की मंजिल में कमरे बने हैं। ये साफ-सुथरे तो हैं ही।

इस गांव का एक युवा के रौया पुलिस में सब-इंस्पेक्टर है। हम उसके घर में गए। उनकी माता जी ने बड़े सद्भाव से हमें बिठाया। कुछ देर में गिलास में पेय लाईं। पूछने पर कि यह पेय कैसा है तो पता चला कि यह अपांग है। एक तरफ से घरेलू शराब जैसा है। मेरे मना करने पर औरों ने भी मना कर दिया। एक दो साथी जिनको परहेज नहीं था, उन्हें भी हमारे कारण अपना मन मारना पड़ा। जब सबने मना किया तो वे बहुत उत्तेजित हुईं। अपनी बोली में बुरा भला कहने लगीं। हमारे साथ चल रहे सहायक वन अधिकारी आर.के.देउरी, जो कि अरुणाचल प्रदेश के ही रहने वाले थे, ने उन्हें अपनी बोली में समझाया। हमने कहा कि हमको चाय पिलाएंगी तो अवश्य पिएंगे। नमकीन पहले ही परोस दिया था। आखिर में पानी पीकर उन्हें संतुष्ट करना चाहा, किंतु वे हमारे ऊपर तमतमाती रही कि यहां चाय कोई नहीं पीता।

सन् 1989 में, मैं अरुणाचल प्रदेश की यात्रा से पूर्व कल्याण कृष्णन जी को मिला था। वे उस समय भारत के गृह सचिव थे। उन्हें जब मैंने अरुणाचल प्रदेश जाने की बात बताई तो उन्होंने मुझे कुछ सावधानियां बरतने की बात कही थी। उसमें से एक बात यही थी कि लोग स्थानीय शराब परोसेंगे तो ना मत कहना। गिलास को ऊपर कर उसमें उंगली डाल का सिर पर छींटे लगा लेना। वे लोग इसे न लेना अपमान समझते हैं। मुझे उनकी बताई हुई बात का स्मरण हुआ। लेकिन मेरे सामने भी मेरी अपनी मर्यादा थी। एक तो मैं ऐसे परिवार से था जहां शराब कभी छुई ही नहीं जाती थी, दूसरे सर्वोदय आंदोलन में रहकर के कई बार शराब बंदी आंदोलन चलाया था। इसके फलस्वरूप हमारे जनपद में 23 वर्षों तक शराब बंदी रही। इसलिए मुझे गिलास छूने तक में परेशानी महसूस हुई।

1989 में मैंने कामेंग तथा तवांग जिले के जंग तक की यात्रा की थी। जंग में स्थानीय ग्रामीण तवांग के जिलाधिकारी की उपस्थिति में स्थानीय शराब (अपांग) परोस रहे थे। लेकिन जिला अधिकारी ने दुभाषिए के माध्यम से उन्हें समझा दिया था। लेकिन सिक्किम की यात्रा के समय जब मैं दक्षिणी सिक्किम में था तो मेरे मेजबान एक पूर्व कैप्टन थे। उन्होंने बौद्ध मंदिर में पूजा के बाद मेरे सामने बांस से बने एक बर्तन को रख दिया था। उसमें भीगा हुआ मंडुवा रखा था। पास में उबलता हुआ पानी रखा था। बांस के बीच में एक छोटा पाईप था। ऊपर से गर्म पानी डालकर उसको सोखा जा रहा था। मेरे पास एक अध्यापक, जो मेरे परिचित थे, उसे पाइप से ऐसे ही पीने लग गए थे। मैंने उनसे पूछा कि यह क्या है तो उन्होंने बता दिया। मेरे इंकार करने पर कैप्टन मेरे ऊपर आग-बबूला हो गए। कहने लगे कि हमारे भगवान के प्रसाद का अपमान कर दिया। मैं चुपचाप बैठा रहा और लोग पीते रहे। कैप्टन को जैसे-जैसे नशा चढ़ता गया, वे मुझे घूरते रहे। उस रात मुझे नींद ही नहीं आई।

आदिवासी जनजातीय समाजों की अपनी परंपरा है। उनकी परंपराओं का मैंने हमेशा सम्मान किया। उन्हें समझने का प्रयास भी किया, लेकिन किसी भी परिस्थिति में नशा मुझे स्वीकार्य नहीं था। यह वास्तविकता में छिपा भी नहीं सकता था। रौन्या से टापी आए। हमने देखा कि जहां पास में बड़ी या छोटी नदी है उनके किनारे तलाऊदार धान के खेत हैं। बसासतें भी इधर बड़ी-बड़ी दिखी। सड़क अच्छी है। पानी और बिजली किसी-किसी गांव में पहुंची है। 7 बजे शाम को हम बांमे नामक चेक पोस्ट पर पहुंचे। इसी नाम का गांव भी है। पुल के पास एक चाय की दुकान है। पता चला कि यह दुकान एक नेपाली की है। यहीं पर एक महिला काठमांडू घाटी की मिली। उसका नाम सनम था। उसने अपनी आपबीती सुनाई कि उसने उड़िया के जी.आर.इ.एफ. के जवान से शादी की। दो साल दाब ट्रक दुर्घटना में उसकी मृत्यु हो गई। उसका न कोई बेटा है, न नौकरी ही है, न कोई सहारा है। यहां रहती है, बर्तन माजती है। उसने बताया कि अपनी बड़ी दीदी के साथ यहां आई थी। दीदी मर गई और जीजा जी ने दूसरी शादी कर ली है। वह दर-दर भटक रही है।

आखिर में 8.30 बजे शाम हम अपने पड़ाव आलोंग पहुंचे। हमारे साथ चल रहे आर. के. देउरी ने पहले ही हमारे आने की सूचना दे दी थी। यहां पर हमें सहायक वन संरक्षक पांलड और आवों मिले। थोड़ी देर बाद उप वन संरक्षक ए.के. चटर्जी भी मिले। उनसे इस इलाके के बारे में देर तक बातचीत हुई। विश्राम गृह में भारी भीड़ थी। इसलिए हमें भी कठिनाई से स्थान मिला। चटर्जी ने बताया कि यहां से 50 किलोमीटर आगे गांव में एक मंत्री के पुत्र के विवाह की दावत थी। इसमें दर्जनों अफसर एवं विधायक भी शामिल हुए थे। इतनी अधिक भीड़ थी कि उनके लिए 17 मिथुन काटे गए। बड़ा जश्न मनाया गया था। उसमें से कई अधिकारी यहां ठहरे थे।

8 फरवरी 1992 आलोंग के पास सिओम नदी में सिपू नदी समाहित होती है। सुबह ए.के.चटर्जी तथा आलोंग अंचल समिति के सदस्य के.लोमी मिलने आए। उन्होंने चर्चा में बताया कि झूम के स्थान पर पाइन एप्पल तथा संतरे के बागों का विकास हो रहा है। स्थायी खेती की ओर बढ़ रहे हैं। 25 से 30 प्रतिशत झूम नियंत्रण में है। झूम से खेत बनाने के लिए 6 हजार रुपया प्रति हेक्टेयर देते हैं। इस कार्य में ग्रामीण विकास विभाग सहयोग कर रहा है। उन्होंने बताया कि आपतानी (जिरो) में धान के साथ मछली पालन भी होता है। धान नई प्रजाति का है। इसे पकने में 6 माह लगता है। इधर गोभी, पालक, टमाटर, गाजर भी होता है। इस सबसे झूम घट रहा है। उन्होंने यह भी जानकारी दी कि तीरप जैसे ज्यादा जनसंख्या वाले जिले में झूम ज्यादा बढ़ रहा है। तीरप में अफीम का प्रचलन ज्यादा है। अफीम को यहां कानी कहते हैं। धान, मक्का, सेब, अनानास, संतरा 20 साल पहले से हो रहा है। पहले जंगली नीबू होता था।

यहीं पर कार्बु गांव के किरती लोयी भी मिले। बता रहे थे कि सड़क निर्माण के कार्य में उड़िया और नेपाली मजदूर हैं। ठेके यहां के लोग लेते हैं। अरुणाचल प्रदेश के लोग जानकार और चतुर हो गए हैं। चाय उत्पादन का कार्य तीरप जिले में वन विभाग ने शुरू किया है। बाद में गांव वालों को सौंप दिया है। यह भी बताया गया कि मुख्यमंत्री का कई हेक्टेयर का चाय का बगीचा पासीघाट से 28 किमी. पर है। चाय के अलावा रबर एवं कॉफी की शुरुआत भी की गई है। आगे हमें रास्ते में पाइन एप्पल के बगीचे मिले तथा फैक्टरी भी देखी। हम आलोंग से 10 किलोमीटर आगे काफू गांव गए। यहां पर अंचल समिति के लोगों ने गांव वालों के साथ कार्यक्रम रखा था। गांव के लोग पंचायत भवन में एकत्रित थे। परंपरागत लोग-गीतों से कार्यवाही शुरू हुई। विचारों का आदान-प्रदान हुआ। सभा में पांच दर्जन से अधिक महिलाएं थी। हमने भी उत्तराखंड के चिपको आंदोलन एवं वन लगाने की बातें उन्हें बताई। स्लाइड भी दिखाई। इस सभा में किमिक लोई तथा किरजों लोई, जो अंचल समिति के सदस्य थे, के अलावा चक्रवर्ती एवं अन्य वन अधिकारी भी आए थे। यहां से हमने 12 बजे प्रस्थान किया।

झूम में समय और मेहनत ज्यादा लगती है। झूम खेती करने से पहले जहां जंगल कटता है वहां पूजा करते हैं। वहां अपांग भी साथ ले जाते हैं। जंगल के देवता की पूजा करते हैं। देवता भी हमारे साथ हैं। यहां पर अगाम यानी धान के देवता की पूजा करते हैं। काम मिलकर करते हैं। आग लगाने के बाद साफ होने पर धान लगाने के दिन बड़ी पूजा होती है। मिथुन का बलिदान होता है। मिलकर सभी धान लगाते हैं। धान पकने पर पिमेंग पूजा होती है। नए धान को खाने के पूर्व अम्गन पूजा होती है। बुवाई की पूजा रिकविन कहलाती है। ये सभी पूजाएं हमारे सामुदायिक भवन में होती है, जिसे देयरे कहते हैं।

आगे हम सिओम नदी के किनारे-किनारे आगे बढ़े। पहली बार सीढ़ीदार खेत नजर आए। नीचे नदी थी, ऊपर झूम के ऊपर सघन वन के दृश्य दिखाई दे रहे थे। आगे पांगी के पास सिओम, सियांग में समाहित हो जाती है। यहां पर विराट सियांग नदी, जिसका जल इन दिनों नीला स्वच्छ दिख रहा था, तथा सिओम के नीले जल का मिलन होता है। दुनिया की आक्रामक नदियों में से एक मानी जाने वाली ब्रह्मपुत्र की मुख्य धारा सिंयाग कैलाश पर्वत-श्रृंखला के पूर्वी भाग में स्थित फाग्यू तासू सरोवर के दक्षिण पश्चिम से पूर्वाभिमुख होकर, तत्पश्चात उत्तरामुखी होकर अंततः तिब्बत में स्वांग-पो के नाम से 1700 किलोमीटर की लम्बी यात्रा के बाद अरुणाचल प्रदेश (भारत) में प्रवेश करती है, जहां यह सिंयाग के नाम से जानी जाती है। इस विराट नदी में सिओम के मिलन का दृश्य अपूर्व था। हम संगम के पास तक गए। किंतु जल को स्पर्श नहीं कर सके। संगम के ऊपर एकदम सीधी खड़ी चट्टान थी। इसलिए जल को स्पर्श करना संभव नहीं था। इन दिनों सियांग में अनंत नीलापन था, लेकिन इसके ऊपरी भाग में लगभग 30 मीटर तक जमा साद इस बात की साक्षी थी कि वर्षांत में सियांग इस ऊंचाई तक बहती होगी। दोनों किनारों पर दूर जहां तक नजर जाती है, यह ऊंचाई वृक्ष विहीन होकर इसकी परिधि का भान कराती है। आगे भी जहां चौरस है वहां भूतकाल में सियांग द्वारा बहाए गए पेड़ों के ढेर जगह-जगह दिखाई देते हैं। वहीं चट्टानों के बीच से कहीं समतल भूमि को तोड़ती फांदती हुई सिंयाग आगे पासीघाट की ओर बहती है।

यहां से आगे रास्ते में पुगेर, बुलेग गांव पड़े। इसके आगे वालिग छोटा सा कस्बा मिला। इसके आस-पास सिट्रस फलों के बाग नजर आ रहे थे। यहां पर सियांग काफी नीचे चली गई थी। पुल पार करने के बाद गैक कस्बा मिला। यहां झूम का बहुत बड़ा पैच दिखा। रास्ते में विद्युत परियोजना का निर्माण कार्य दिखाई दिया। सड़क के अगल-बगल खूब सारे मोटे पाइप डाल रखे थे। नारंगी-संतरे के बाग के अलावा जंगली कटहल के पेड़ों की तादाद भी काफी थी। रास्ते में मिथुन के झुंड भी दिखाई दिए। कहीं इक्का-दुक्का भी अपने बछड़ों के साथ उन्मुक्त भाव से चरते दिखे। मिथुन कहीं भी घूमता नजर आ रहा था। इसमें मस्ती और सरलता का मिश्रण मिलता है। लाल, भूरा, काला और सफेद रंग के दिखे। इस दिन रात्रि 8 बजे हम इनकिंयांग पहुंचे। रात भर बारिश होती रही।

9 फरवरी 1992: सुबह से लगातार वर्षा हो रही थी। कियांग के पास ही सियांग नदी बह रही थी। सियांग जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष मिलने आए थे। उनके साथ काफी देर तक चर्चा हुई। हमारा बसंत पंचमी के उत्सव में स्थानीय हायर सेकेंडरी स्कूल तथा पास के गांव में जाने का कार्यक्रम था। किंतु वर्षा की अधिकता से नहीं जा पाए। इनकियांग अंचल समिति के सदस्य बाई. टेक्सेम मिलने आए। उनसे बातचीत हुई। वे आदी सियांग जाति के हैं। उन्होंने बताया कि कमांड एरिया के अंतर्गत खेतों और बागवानी का काम बढ़ रहा है। झूम भी कम करने के लिए सिंचाई की आवश्यकता है। इसे बागवानी में बदला जा सकता है। पहले हम कटहल खाते थे। अब वह जानवरों को खिलाते हैं।

झूम में समय और मेहनत ज्यादा लगती है। झूम खेती करने से पहले जहां जंगल कटता है वहां पूजा करते हैं। वहां अपांग भी साथ ले जाते हैं। जंगल के देवता की पूजा करते हैं। देवता भी हमारे साथ हैं। यहां पर अगाम यानी धान के देवता की पूजा करते हैं। काम मिलकर करते हैं। आग लगाने के बाद साफ होने पर धान लगाने के दिन बड़ी पूजा होती है। मिथुन का बलिदान होता है। मिलकर सभी धान लगाते हैं। धान पकने पर पिमेंग पूजा होती है। नए धान को खाने के पूर्व अम्गन पूजा होती है। बुवाई की पूजा रिकविन कहलाती है। ये सभी पूजाएं हमारे सामुदायिक भवन में होती है, जिसे देयरे कहते हैं। अरुणाचल प्रदेश में फलोद्योग विकास के लिए 2500 रुपया प्रति परिवार देते हैं। दीवार सुरक्षा हेतु भी। पौध भी निःशुल्क और अनुदान देते हैं। इसी कार्यक्रम में सभी स्त्री-पुरुष भाग लेते हैं। घेरवाड़ के लिए पुरुष गाते हुए जाते हैं। अपांग भी ले साथ जाते हैं। रात को महिलाएं भी गाती हैं। यह गाना एवाक, देलांग (यानी फिन्सिंग का इतिहास) कहलाता है। इसे पुजारी गाता है। यह कार्यक्रम रात भर चलता है। इस गाने में यह बात पूछी जाती है कि यहां धान कौन लाया? उत्तर दिया जाता है कि कुत्ता लाया इसलिए वह घर के भीतर रहता है। इसके साथ आगे भी गीत है। गीत में यह कहानी भी है कि लोग जब जमीन से निकले तो कुत्ते के कान के भीतर से धान का बीज मिला। उसी से धान का प्रजनन हुआ।

लोग यह भी कहते हैं कि सिंयाग एक तालाब से निकलती है। पर अब पता चला है कि यह तिब्बत में बहुत दूर से आती है। तालाब से नहीं। तिब्बत में इस स्वांगपो कहते हैं। इसके बारे में भी गाना है। औरते भी गीत गाती हैं कि पेड़ का जन्म कैसे हुआ। वे बताते हैं कि पुराने और नए तरीके इस समाज में एक साथ चल रहे हैं। पुराने तरीकों में बदलाव आया है। इसी प्रकार शादी के पुराने अपने तरीके थे। इसमें भी बदलाव आया है। संयुक्त परिवार कायम हैं। सबसे बड़े और छोटे लड़के के अधिकार ज्यादा हैं। बड़ा बाई, परिवार में माता पिता की जिम्मेदारी लेता है। अपांग को नाश्ते दिन एवं रात्रि के भोजन के वक्त दिया जाता है। अब अपांग का प्रयोग ज्यादा होता है। मसाला का प्रयोग नहीं होता है। इधर शिक्षा बढ़ रही है। ट्रैक्टर भी आ गए हैं। हरेक परिवार को यदि 10-12 हेक्टेयर जमीन सड़क के आस-पास मिल जाए तो स्थायी कृषि विकसित की जा सकती है। 10 बजे के आस-पास हमने पासीघाट के लिए प्रस्थान किया। हल्की बूंदाबांदी जारी थी। आस-पास के पर्वत, शिखर-बादलों से ढके हुए थे। सियांग नदी के तटवर्ती क्षेत्र में बहुत सारे भूस्खलन जगह-जगह दिखाई दे रहे थे। सड़क निर्माण के मलबे ने भी भूस्खलनों को बढ़ाया है। सियांग में मिलने वाली छोटी-बड़ी नदियां अपने साथ अपार सिल्ट ला रही हैं नदियों के संगम पर इस प्रकार की परत दर परत साद इस बात की साक्षी है।

यहां भी फलदार पेड़ बहुत जगह लग गए हैं। जंगलों से भी संतरे के पेड़ उखाड़ कर लोग अपने खेत में लगाने के लिए जा रहे थे। घने जंगलों के बीच लकड़ी के बने मकान भीतर से सुविधाजनक हैं। बरामदा तथा अलग-अलग कमरे। बीच में रसोई का कमरा, जिसमें आग जलाने की व्यवस्था भी है। चूल्हे के अगल-बगल चीजों को रखने-सुखाने हेतु भी मचान से बने रहते हैं। चूल्हा एक चौकोर जगह के बीच में होता है। लोहे की जांती का प्रयोग होता है। इसी में बर्तनों को रखने के लिए स्थान बने रहते हैं। सूती कपड़ा कातती हुई महिलाएं भी गांवों में मिलीं। आगे मुख्यमंत्री अपांग जी के गांव कार्को के लिए नदी पार मार्ग बना है। नीचे सियांग पर पुल बन रहा है। उसके सामने हम सड़क से नीचे झूला पुल तक उतरे। पुल में गए। वह बहुत लंबा पुल है। सियांग की विराटता इस पुल में जाकर महसूस होती है। पुल पार करने में 10 मिनट लगे। नीचे देखने में घबराहट होती है। बीच में जाकर ऊपर-नीचे दूर तक सियांग का विस्तार नजर आता है। हिलते हुए झूला से चारों ओर का नजारा स्मरणीय था।

यहां यादुम टेकसिंग ने बताया कि एक बार खाद का इस्तेमाल खेती में किया तो उस वक्त अनाज ठीक नहीं आया गड़बड़ हो गया। यहां पर एक ही फसल होती है। इसलिए खाद की आवश्यकता नहीं है। मिट्टी में उपजाऊपन है। पुल से ऊपर सड़क तक आए। उसके आगे सघन जंगलों के बीच से गुजरे। कभी-कभी बसासत आती गई। बाद में सियांग पर बने पुल को पार करते हुए हम दाहिने किनारे आ गए। सियांग बहुत फैलाव वाले रूप के साथ पुल के पास है। दाएं किनारे की चट्टान से नदी बाएं ओर मुड़कर आगे बढ़ती है। रास्ते में केले और बांस के जंगल देखकर ऐसा आभास होता था कि पास में गांव होगा, पर गांव दिखता नहीं था। कहीं गांव होते भी तो सड़क से बहुत नीचे। आगे भी मिली-जुली वनस्पतियां बांस के अपार जंगल। आगे एक मैदान सा दिखा। बांस के तमाम झुरमुट यहां पर दिखे। सियांग अब काफी नीचे बह रही है। फिर कभी सियांग के किनारे कभी हटकर मार्ग हैं। दो-तीन जगह सियांग का विस्तार प्रवाह और कुल परिदृश्य देखने और समझने लायक है। कैलाश पर्वत श्रृंखला के ऊपरी भाग से जन्म लेने वाली स्वांग्पो कितनी लम्बी यात्रा कर भारत के अरुणाचल प्रदेश में प्रवेश करती है। जहां उसकी पहचान सियांग के नाम से होती है। मनुष्य समुदाय ने अपनी बसासतों तक पहुचने के लिए पता नहीं कितनी यात्राएं की होंगी। पर क्या इस नदी की जितनी यात्राएं की होंगी?

अंधेरा हो चला था। सड़क की दशा पहाड़ों से तराई की ओर आते हुए हमारे यहां जैसी ही है। नदी कितनी दूर है, अंदाज नहीं लग रहा था। एक दो जगह रास्ता अत्यंत कठिन था। रात में आठ बजे हम लोग पासीघाट पहुंचे। विश्राम गृह में वन अधिकारी रवीन्द्र कुमार तथा गुलाब सिंह, कलेक्टर डॉ. कुट्टी भी कुछ देर में मिलने आ गए। ये मसूरी अकादमी से पूर्व परिचित थे। उन्हें अब तक की यात्रा की जानकारी दी। पासीघाट में पुराना जवाहर लाल नेहरू कॉलेज है। यहां की ऊंचाई 57 मीटर बताई गई। यह ईस्ट सियांग जिले का मुख्यालय भी है। सन् 1950 के 8.7 रिएक्टर स्केल के भूकंप के बाद आई बाढ़ से आधा पासीघाट बह गया था। आज का पासीघाट नया है।

10 फरवरी 1992 को प्रातः जाग गया था। थोड़ी देर सियांग को नजदीक से देखने का प्रयास किया। चहल-पहल शुरू होते ही मैं विश्राम गृह में वापस लौट गया। यहां पर हमारी स्वतंत्रता सेनानी मोटे मिमांग जी से भेंट हुई। उन्होंने बताया कि वे छात्र जीवन में 1943 में पहली बार आंदोलन में आए, बाद में जेल भी गए। भूकंप 15 अगस्त 1950 की रात को आया था। दिन में 15 अगस्त की खुशी मनाने के बाद रात 8.00 बजे भूकंप आया। हमारी बस्ती में तो गड़बड़ नहीं हुआ पर जगह-जगह भूस्खलन हुए। 25 से 50 प्रतिशत तक खेती नष्ट हुई। भूकंप के बाद एक रात आधा दिन सियांग नदी रुक गई थी। फिर रात के 4 बजे 17 अगस्त को प्रलयंकारी बाढ़ आ गई। दिवांग नदी के पास भी तालाब बना था। मोर कोंग, सलेक भी तब बहा। यह जगह जुनाई के पास है। यहां पर लकड़ी का कारखाना था। 1950 में डिब्रुगढ़ में भी गड़बड़ हुई। सदिया नामक कस्बा, जो रोईंग के रास्ते में था, पूरा बह गया। बाढ़ की सिल्ट से ढक गया। सदिया में पालिटिकल एजेंट का हेड-क्वार्टर था। अब नया कस्बा चापाकुआ बन गया है। यह सदिया के पास ही है। सदिया अब घाट का नाम हो गया है। कहते हैं कि सन् 1897 में भी भूकंप आया था। उस समय भी पासीघाट बह गया था। उसे सिफ्ट किया गया। पासीघाट को बचाने के लिए (किनारे दीवारें) बांध बनाया गया था। सन् 1950 के भूकंप आने पर सब घबराए। घर हिलने लगे। सियांग नदी में डेढ़ दिन तक पानी न ने से लोग आने वाले खतरा को समझ गए। मछलियां हर जगह नजर आने लगी और कहीं सरलता से उन्हें पकड़ा जाने लगा। फिर बाढ़ आई और सैकड़ों लोग मरे। बाद में महामारी फैली। हैजा और मलेरिया भी फैला।

भूकंप के बाद लोगों ने धरती की पूजा भी की। जिससे फिर से भूकंप न आए। यहां यह रिवाज था कि जिसके घर में जितने सिरे टंगे होगे, वहां प्राकृतिक विपदा उतनी ही कम होगी। तीरप आदि में यह मान्यता है। 1950 के बाद भूकंप तो नहीं आया, न बाढ़ ही वैसी आई, सिल्ट जरूर आती रहती है, लगातार टूटिंग से ओरिंग घाट तक सियांग फिर औरिंगघाट से नीचे ब्रह्मपुत्र और टूटिंग से ऊपर स्वांगपो कहलाती है। हम इस इलाके के सबसे पुराने जवाहर लाल नेहरू डिग्री कॉलेज में भी गए। वहां पर कई अध्यापकों से मिले। हमारे एक साथी सिद्धेश्वर भी यहां शिक्षक थे। श्रीमती सिक दुबे, जो वहां पर 28 वर्षों से पढ़ा रही हैं, तथा जंतु विज्ञान के विभागाध्यक्ष ने बताया कि 1950 में सुवर्णसीरी नदी में भी बाढ़ आई और नदी ने धारा परिवर्तन किया। यह भी बताया गया कि सियांग और लोहित 5 मील नामक स्थान पर मिलती हैं। यह स्थान पासीघाट से 40 किलोमीटर की दूरी पर है। दिन में हम लोग सियांग नदी के तटवर्ती क्षेत्र, जहां सुरक्षा दीवार बनाई जा रही है, को देखने गए। यहां पर आस-पास के गांवों के लोग बारी-बारी से श्रमदान से दीवार निर्माण का कार्य कर रहे थे।

शाम को सियांग के किनारे वाले जंगल को देखने गए। साथ में वनाधिकारी रवींद्र कुमार भी आए। यह जंगल बहुत घना है। रवींद्र कुमार ने बताया कि बरसात के मौसम में कई बार चोरी की लकड़ी भी पकड़ी जीत है। उन दिनों उहें बरसात के कारण लगता है कि कोई निगरानी करने वाला नहीं है। उन्होंने यह भी बताया कि कभी स्मगलर पूरे पेड़ काट कर सियांग में बहा देते हैं। फिर असम की सीमा में उनका दल उसे अपने कब्जे में लेता है। इस प्रकार की घटना पर नजर रखते हैं। इस पर रोक लगी है। अरुणाचल प्रदेश के अधिकांश नौकरशाह पासीघाट में ही हैं। शाम को हम मिमांग के घर गए। उनके साथ ही डी.सी. डा. कुट्टी तथा ए.पी.सी. को भी मिले। उनसे इस क्षेत्र के विकास के बारे में जानकारी प्राप्त की। रात को एस.डी.ओ.आर.के. देऊरी ने बताया कि वनमंत्री जी ने 12 फरवरी को मिलने की इच्छा जताई है। यह खबर उन्हें वायरलेस से मिली है।

11 फरवरी 1992 : सुबह ही हम पासीघाट हवाई पट्टी पर चले गए। वहां से हमें गैलिंग तक की यात्रा करनी थी। बाद में पता चला कि हमें 12 बजे की उड़ान में टूटिंग तक जाने का मौका मिलेगा। इसके लिए हमें प्रति यात्री 136 रुपया देना पड़ा। कुछ देर बाद अननी से हैलिकाप्टर (सियाचीन टाइगर्स) आया। पायलट राय तथा कुलकर्णी थे। हैलिकाप्टर के पीछे ढेर सारा सामान भी रखा गया था। फिर हमें भी बिठाया गया और धीरे-धीरे हमने अपने लिए किसी तरह जगह बनाई। थोड़ी देर में इंजन चालू हुआ। दरवाजे बंद हुए। पीछे से यह ट्रक की तरह खुला था। 3-4 मिनट में हैलिकाप्टर ने उड़ान भरी, धरती छोड़ी और हम पासीघाट के ऊपर थे। धीरे-धीरे हैलीकाप्टर सियांग नदी की घाटी में उड़ने लगा। हमारे लिए यह रोमांच भरा अनुभव था। सियांग का फैलाव, किनारा, पाट, जंगल सब सामने नजर आ रहे थे। सियांग की प्रचंडता एवं मनमानी साफ नजर आ रही थी। जगह-जगह भूस्खलन एवं उनके द्वारा भूतकाल के अवरोध भी साफ-साफ दिख रहे थे। छोटे नदी नालों द्वारा लाया गया मलबा एवं टूट-फूट तथा मलबा का ढेर दिखाई दे रहा था। कहीं झूम, पानी, खेती, बागवानी का भी भव्य नजारा दिख रहा था। सियांग के दोनों पाटों से घने जंगल ऊपर उभर कर दिख रहे थे। काश ऐसे जंगल देश के अन्य क्षेत्रों में होते तो उसका आर्थिकी, कृषि आदि पर अच्छा ही प्रभाव पड़ता।

हम टूटिंग में हवाई पट्टी पर 10 मिनट के लिए बाहर आए। वहां पर एस.डी.एम. बागची जी से बातें करते रहे। वे उत्सुक थे कि वापसी में कोपू गांव जो चार-पांच मिनट की उड़ान पर था, जहां 1991 में दो दर्जन के लगभग लोग मारे गए थे, भी देख लें। लेकिन पायलट ने असमर्थता जताई। कुछ देर बाद हम वापस उड़ने लगे। ऐसा लग रहा था कि मार्ग कुछ बदला हुआ है। इस समय आस-पास के पहाड़ों पर बादल छा गए थे। बादलों के बीच इंद्रधनुष का मनोहारी दृश्य भी दिखाई दिया। आखिर में हैलीकाप्टर 2.50 पर पासीघाट पहुंचा। हम सियांग और पासीघाट की परिक्रमा करते हुए बाहर निकले। सीधे विश्राम गृह में पहुंच कर ईटानगर के लिए प्रस्थान किया। रास्ते में जल्दी अंधेरा हो गया था। इसलिए कई महत्वपूर्ण स्थान अंधेरे में निकल गए। इस प्रकार रात 8 बजे हम ईटानगर पहुंचे।

शदिया टाउन 1950 से पहले बताते हैं कि पासीघाट से भी बड़ा था, पूरे इलाके का केंद्र था। व्यापार का केंद्र था। दूर पहाड़ों से लोग नमक लेने यहां आते थे। लेकिन प्रकृति के सामने हम कितने असहाय हैं यह सब यहां देखा जा सकता है। एक झटके में सब कुछ समाप्त। आज यहां पर मात्र प्रलय का शिलालेख रह गया है, जिसे पढ़ने के लिए सूझ-बूझ की आंखे चाहिए। शदिया में वन विभाग वालों की अपनी वोट है। यहां पर भी ब्रह्मपुत्र उथली-पुथली है। इसे पार करने में ढाई घंटे लगे। यहां पर भी ब्रह्मपुत्र खंड-खंड में अनियंत्रित एवं उन्मुक्त भाव से बह रही है। यही हाल उसकी अन्य सहायक धाराओं का है।

12 फरवरी 1992 रात के अंधेरे में हम सुवर्णसीरी सहित अनेक नदियों को ब्रह्मपुत्र के मैदान के उत्तरी छोर पार करते हुए नार्थ लखीमपुर जिले की ओर आए। यहां से होकर पुराने ईटानगर (नाहर लंग) विश्राम गृह में पहुंचे थे। नाहरलंग से ईटानगर 12 किलोमीटर दूर है। एक तरफ से यह पुराना ईटानगर था। हम सुबह 10 बजे वन विभाग के मुख्यालय में पहुंचे। मुख्य वन संरक्षक शुक्ला हमें सीधे प्रमुख वन संरक्षक मेहता जी के पास ले गए। उनसे देर तक बातचीत हुई। वनों के संरक्षण में आने वाली दिक्कतें, झूम खेती, बागवानी, अपना वन आदि पर खूब बातें हुईं। राजनीतिक हस्तक्षेप की बात भी उन्होंने उठाई। मैंने ध्यान दिलाया कि वर्ष 1989 में जब मैंने यहां की यात्रा की थी, उस समय हर परिवार को दो पेड़ दिए जाते थे, जो कि बिचोलिए ले लेते थे। लोगों को कुछ सौ रुपया देकर हजारों रुपया कमा लेते थे। इससे जंगलों के नुकसान के साथ ही स्थानीय लोगों को भी खास लाभ नहीं हो रहा था। उस समय अरुणाचल प्रदेश के मुख्य सचिव मातिन दाई ने कहा था कि अभी चुनाव तक तो कुछ नहीं कर सकते हैं। राजनैतिक दबाव हैं, लेकिन उसके बाद करेंगे कहा था। क्या इस दिशा में वाकई प्रगति हुई? उन्होंने बात टाल दी तथा आगे कहा कि दिल्ली में जितना हो-हल्ला अरुणाचल के जंगलों के बारे में हो रहा है, वह वास्तविकता है नहीं। इसके बाद वनमंत्री राजकुमार से मिले, जो सहज और सरल व्यक्ति लगे। उनके साथ भी जंगलों के विभिन्न पक्षों पर गपशप हुई। अंत में उन्होंने कहा कि आदिवासियों को जंगल से बहुत सी वस्तुएं प्राप्त होती हैं। जंगल उनके अस्तित्व के आधार हैं। यहां पर हम ईटाफोर्ट और गोम्पा देखने भी गए। राज्यपाल एस.एम. द्विवेदी जी को भी मिले।

13 फरवरी 1992: नाहर लंग से हमने साढ़े छह बजे प्रस्थान किया। थोड़ी देर हम नार्थ लखीमपुर में रुके। इसके बाद हम सुवर्णसीरी नदी पर बने पुल पर रुके। पता चला कि सन् 1950 के भूकंप से सुवर्णसीरी में धारा परिवर्तन हुआ था और इस घाट में भी भारी नुकसान हुआ था। इसके बाद हम सुनारीघाट पहुंचे। यहां हमे फेरी (नाव) से ब्रह्मपुत्र को पार करना था। ब्रह्मपुत्र यहां अलग-अलग धाराओं में बंटी हुई, आड़ी-तिरछी उथली-पुथली है। इस प्रकार डिब्रूगढ़ पहुंचने के लिए फिर से फेरी बदलनी पड़ी। इसे पार करने में साढ़े तीन घंटे लगे। फेरी वाला बता रहा था कि पहले सुनारी घाट से डिब्रूगढ़ पहुंचने में मात्र 1 घंटा लगता था। डिब्रूगढ़ में ब्रह्मपुत्र का विशालपाट शहर से तीन मीटर ऊपर बताया जाता है। 1950 के बाद ब्रह्मपुत्र में साद की मात्रा बढ़ती ही जा रही है।

घाट पर अरुणाचल प्रदेश भवन के अधिकारी आए थे। उसके साथ भवन में गए। वहां अरुणाचल प्रदेश के संपर्क अधिकारी से मिले। उन्होंने तिनसुखिया तक जाने का प्रबंध भी करवाया। उस दिन रात को हम तिनसुखिया रहे।

14 फरवरी 1992: तिनसुखिया से हमने सुबह जल्दी ही प्रस्थान किया और शदिया घाट पहुंचे। यहां पर अरुणाचल प्रदेश वन विभाग के लोग आ गए थे। शदिया टाउन 1950 से पहले बताते हैं कि पासीघाट से भी बड़ा था, पूरे इलाके का केंद्र था। व्यापार का केंद्र था। दूर पहाड़ों से लोग नमक लेने यहां आते थे। लेकिन प्रकृति के सामने हम कितने असहाय हैं यह सब यहां देखा जा सकता है। एक झटके में सब कुछ समाप्त। आज यहां पर मात्र प्रलय का शिलालेख रह गया है, जिसे पढ़ने के लिए सूझ-बूझ की आंखे चाहिए। शदिया में वन विभाग वालों की अपनी वोट है। यहां पर भी ब्रह्मपुत्र उथली-पुथली है। इसे पार करने में ढाई घंटे लगे। यहां पर भी ब्रह्मपुत्र खंड-खंड में अनियंत्रित एवं उन्मुक्त भाव से बह रही है। यही हाल उसकी अन्य सहायक धाराओं का है। फेरी वाला हंसते हुए कह रहा था कि पुराना शदिया टाउन को नदी ने खा लिया है। कई अन्य बस्तियां भी इन धाराओं ने खा ली हैं। आजकल पानी कम है इसलिए नाव को लाने-जाने में दिक्कत होती है। फिर बड़ी नाव को छोड़कर छोटी नाव में गए।आगे कुण्डलिया नदी मिली। रास्ता बहुत खराब था। इधर लोहित, दिबांग, दिगारू आदि नदियां ब्रह्मपुत्र में समाहित हो जाती हैं। इस प्रकार शांतिपुरी होकर हम 2 बजे रोईंग पहुंचे। रोईंग में वन संरक्षक जवाहर सिंह वर्मा तथा उप वन संरक्षक सिन्हा मिले। उनके साथ वन संरक्षण एवं रीति रिवाजों के बारे में गपशप हुई। बाद में हम अननी को ओर चले। 20 किमी. गए होंगे कि आसमान में घने बादल छा गए। वापस रोईंग लौटना पड़ा। फिर एक ईदुमिसमी गांव में गए। लोगों से बातचीत की। इस इलाके में भी 1950 के भूकंप से भारी नुकसान हुआ था। ईदू जाति के लोगों के रूक्मणी के साथ संबंध की किंवदंतियां भी सुनी। यहीं पर एक वृद्ध सज्जन, जिनका नाम डूलू ईटा था और उम्र सत्तर वर्ष से अधिक थी, मिलने आए। उन्होंने बताया कि दिबांग भूस्खलन के कारण रुक गई थी, जिसके बाद अस्थाई तालाब टूटा और भयंकर तबाही हुई। कई इलाके रोखड़ में बदल गए। डी.एम. भरत बरूवा भी मिलने आए। उन्होंने यहां के शिल्प एवं ग्रामीण विकास के बारे में जानकारी दी।

15 फरवरी 1992: सुबह 6 बजे रोईंग से 25 किलोमीटर दूर तिवारी गांव की तरफ गए। वहां दिबांग का धारा परिवर्तन तथा समय-समय पर हुई गड़बड़ी को देखा। कभी इधर कभी उधर। इसने भूगोल ही बदल दिया है। आगे दम्बोक वाली सड़क पर वनीकरण देखने गए। यहां भी दिबांग नदी को साद एवं पेड़ों ने पाट सा दिया था। प्रकृति के प्रकोप की ऐसी कहानी न पहले सुनी, न देखी ही थी। इसके बाद रोईंग वापस जाकर 11 बजे प्रस्थान किया। रास्ते में शांतिपुरी के आस-पास वनीकरण भी देखा। आगे दिहांग नदी से पहले मीलों तक फैले बालू और साद से ढके हुए विशाल जंगल को दफनाया हुआ देखा। यहां कहीं-कहीं सूखे पेड़ों के ठूंठ अपने विनाश की कहानी बयां कर रहे थे। बताया गया कि नदी ने, जिसमें दल-दल बह रहा था, इस पूरे इलाके को अपने में समा दिया था। 1950 के भूकंप के बाद आई बाढ़ ने प्रलय मचा दिया था। नदी ने अपना आधार और दिशा बदल दी थी।

आगे दिगारू नदी का दृश्य अभी भी भयंकर बना हुआ था। ऐसा लग रहा था मानो पहाड़ के पूरे पेड़ इसमें आ गए हों। अब इसकी तीन धाराएं अलग-अलग प्रवाहित हो रही हैं। इसके बाद हम तेजू गए। यहां पर एक घंटे रुकने के बाद लोहितपुर अपना वन योजना देखी। वापसी में दिगारू के पास हम रास्ता भूल गए। भटकते रहे। अंत में अंधेरे में लोहित के किनारे पहुंचे। लोहित नदी के ठीक से दर्शन नहीं कर पाए। वहां से देर रात नामसाई पहुंचे।

16 फरवरी 1992 : सुबह नामसाई से तिनसुखिया में थोड़ी देर रुकने के बाद डिब्रूगढ़ पहुंचे। जहां से मैं सीधे दिल्ली आ गया था। दिल्ली में मेरा आवश्यक कार्य था। बाकी सभी साथी चार दिन बाद वापस लौटे।

हमारे साथियों ने इस यात्रा के बाद यहां के प्रमुख पक्षों पर अपने अनुभव इस प्रकार प्रस्तुत किए :

1. नदियां


असम के ब्रह्मपुत्र मैदान की रचना करने वाली ज्यादातर नदियां अरुणाचल से आती हैं। बल्कि इनमें से अनेक नदियों का उद्गम क्षेत्र तिब्बत है। इनमें से कुछ नदियां बहुत बड़ी हैं (जल की मात्रा के अनुसार) तो कुछ अत्यंत अनियंत्रित (सिल्ट तथा फैलाव के अनुसार)। जिन छह जिलों- लोअर सुवर्णसीरी, अपर सुवर्णसीरी, पूर्वी सियांग, पश्चिमी सियांग, दिबांग घाटी तथा लोहित- में हमारे दल ने यात्रा की, वहां जिन नदियों को देखा-समझा उनमें प्रमुख हैं- रंगा, सुवर्णसीरी, सिओम, गाय, सियांग, दिबांग, दिगारू, कुन्डिल, लोहित तथा दिहांग तथा इनकी अनेक सहायक नदियां। सियांग तथा लोहित क्रमशः पूर्वी, पश्चिमी तथा पूर्वी तिब्बत से जन्म लेती हैं। सियांग शायद इस क्षेत्र की सबसे बड़ी नदी है। इसकी घाटी भी दर्शनीय है और किस तरह भूगर्भ और भूगोल किसी नदी का मार्ग रचने में मदद देते है, उसे हमने इस नदी के किनारों की यात्रा से जाना। ये समस्त नदियां 1897 तथा 1950 के भूकंपों से अत्यधिक प्रभावित हुईं। भूकंप के कारण हुए बड़े-बड़े भूस्खलनों ने एक ओर सिल्ट की मात्रा हजारों गुना ज्यादा कर दी, दूसरी ओर नदियों को रोक कर जलाशय बना दिए। जिनके टूटने के साथ न सिर्फ बाढ़ आई बल्कि नदियां उथली भी हो गईं। अनेक गांव भूस्खलन या बाढ़ से नष्ट हो गए। अनेकों कस्बे डूब और बह गए। खेती के क्षेत्र तथा जंगल भी नष्ट हुए। जानमाल की अपार क्षति हुई। जैसे ही ये नदियां पहाड़ी घाटियों में मैदानों में पहुंची तो यह अपार सिल्ट सर्वत्र फैल गई। प्राकृतिक रूप से नियंत्रण में बहने वाली कम चौड़े पाट वाली नदियां अनियंत्रित होकर अनेक शाखाओं में बंट गई और निचले क्षेत्रों में जानमाल तथा जमीन के लिए सतत् चुनौती बन गई।

सौभाग्य से इन नदी घाटियों में कुछ लघुयोजनाओं के अलावा कोई और छेड़छाड़ नहीं हो रही है। लेकिन यदि इन नदियों के जल ग्रहण क्षेत्रों में वनों का कटान होता है (इसमें तिब्बत के वन भी शामिल हैं) तो इन नदियों की विनाश की क्षमता बढ़ती जाएगी। अरुणाचल से भी ज्यादा इन नदियों की किसी भी हलचल का दुष्प्रभाव असम में पड़ेगा। अतः समूची ब्रह्मपुत्र घाटी में बाढ़ को सीमित करने या उसे और जानलेवा न बनाने देने के लिए अरुणाचल में फैले इन नदियों के जल ग्रहण क्षेत्रों की सुरक्षा अनिवार्य और अपरिहार्य है। कोई और मार्ग इस हेतु नहीं है।

2. जंगल


अरुणाचल देश के उन हरे-भरे क्षेत्रों में से एक है, जहां आज भी जंगल बचे हैं। इन सदाबहार जंगलों में प्राकृतिक विविधता तो है ही, वृद्धि की दर भी असाधारण है। नदी की घाटी से शिखर तक सघन वन हैं। दूरस्थ दुर्गम क्षेत्र मंप होने से भी ये जंगल बचे हैं। यहां के जंगलों का प्रतिशत 81.22 है, जिसमें सघन वन 63.9 प्रतिशत हैं। खुले वन 17.3 प्रतिशत हैं (वन स्थिति 2003)। यहां यह बताना जरूरी होगी कि अरुणाचल की समाज, संस्कृति और अर्थव्यवस्था पूरी तरह जंगलों से जुड़ी या उन पर निर्भर है। पूरा जीवन चक्र वनों पर निर्भर तो है ही, राज्य सरकार को भी सर्वाधिक आय जंगलों से ही होती है। मकान, तमाम उपकरण, जलावन, खाद, भोजन पदार्थ, कंद मूल, फल आदि पशु पक्षी जंगल से ही मिलते हैं। अरुणाचल से सर्वाधिक जरूरी पालतू पशु विल्कुल इन जंगलों पर ही निर्भर हैं। खेती झूम के रूप में हो या स्थाई खेती टेरेस (कल्टिवेशन) के रूप में वह वनों में जुड़ी है। इसी तरह दर्जनों उपकरण, अपांग से जुड़े बर्तन, चटाईयां, झोले, हथियार, मुखौटे जंगलों से उपलब्ध सामग्री से बनते हैं। मछली भी जल से मिलने के बावजूद वन उत्पाद ही मान जाती है।

अरुणाचल में अभी भूमि या जंगल का बंदोवस्त नहीं हुआ है। जनसंख्या के विरल और कम होने से लोग अपने गांव के आस-पास यदि घाटी में हैं तो स्थाई खेत बनाकर, यदि ऊपर पहाड़ों में हैं तो झूम के अंतर्गत खेती करते हैं। दोनों प्रकार की खेती जंगल को रिक्तकर और उसे जलाकर ही संभव है और यह प्रक्रिया उस क्षेत्र को देखकर अप्राकृतिक भी नहीं लगती है। एक दशक पहले तक यह प्राकृतिक और मनुष्य की आवश्यकता का दबाव जंगलों पर कम था पर इधर के सालों में यह बढ़ा है। एक स्थाई खेत बनाने को लोग उत्सुक हुए हैं। साथ ही चाय अनानास या सिट्टरस फलों को लगाने के लिए भूमि की तलाश होने लगी है।

दूसरा बड़ा खतरा अरुणाचल के जंगलों को अरुणाचल के बाहर विशेष रूप से असम में स्थित उद्योगों से है। यह सर्वविदित है कि असम ही नहीं नागालैंड तथा मिजोरम में अत्यंत कम जंगल रहे हैं। असम में तो नाममात्र के जंगल हैं लेकिन असम में चल रहे प्लाई तथा लकड़ी के तमाम उद्योग वैध या अवैध तरीके से कच्चा माल प्राप्त कर ही रहे हैं। आज यह सब दबाव अरुणाचल की ओर है। ग्रामीण भी परमिट में हर साल मिलने वाले दो पेड़ों को भी व्यापारिक तौर पर बेचना सीख गए हैं। अरुणाचल के जंगलों के लिए यही सबसे बड़ा खतरा है और इसे सिर्फ कड़ी सुरक्षा व्यवस्था के आतंक से नहीं, रिक्त क्षेत्रों में नये जंगल लगाकर ही किया जाना संभव है। अपना वन योजना के अंतर्गत यह किया भी जा रहा है। पर अपना वन योजना नमूना नहीं व्यापक आंदोलन के रूप में विकसित होनी चाहिए। औद्योगिक आवश्यकताएं सिर्फ पर्याप्त वनोत्पादन से ही सुरक्षित से ही सुरक्षित तरीके से पूरी करनी संभव हैं। लेकिन इसमें उद्योगों को वनीकरण का काम देने के स्थान पर ग्रामीणों को वनीकरण हेतु प्रेरित करने और उनके उत्पादों को उचित कीमत पर उद्योगों को दिलाने की नीति विकसित होनी चाहिए।

अरुणाचल में जड़ी-बूटी पर ज्यादा काम नहीं हुआ है और ज्यादा खुदाई भी नहीं हुई है और इससे इस मामले को संतुलित तरीके से शोध, पुनर्जनन, उत्पादन से जोड़कर विकसित किया जा सकता है। ऐसे ही यहां के आर्किडस और कैक्टस भी आर्थिक स्रोत की तरह इस्तेमाल हो सकते हैं।

3. झूम, खेती तथा बागवानी


अरुणाचल की प्राकृतिक परिस्थितियां झूम के लिए अनुकूल और शायद खेती और जीवनयापन का एक मात्र तरीका रही होगी। झूम का पुराना प्राकृतिक रूप जंगलों पर ज्यादा दबाव न डालकर भी जीवन यापन के लिए जरूरी अन्न आदि उपलब्ध कर देता था। यह पद्धति कठिन जरूर रही थी और घाटियों में कुछ स्थानों पर खेत बनाकर फसल उगाने की व्यवस्था हो जाने पर भी पहाड़ों में झूम चलती रही। जनसंख्या का दबाव कम होने और एक झूम क्षेत्र में 15-20 साल बाद दुबारा आने से पर्यावरण पर असर नहीं या कम होता था। इधर के सालों में बागवानी तथा स्थाई खेत बनाकर खेती बढ़ी है और झूम 20-25 प्रतिशत तक घटी है। कुछ क्षेत्रों में झूम के नकारात्मक असर भी हैं। क्योंकि वहां यह जल्दी-जल्दी होने लगा है। यदि कुछ स्थानों में धान की खेती विकसित हो जाए और कुछ स्थानों में अनानास, सेब या सिट्रस फलों के बाग विकसित हो जाए तो झूम सीमित होता चला जाएगा। वैसे भी शिक्षा, संचार तथा रोजी के अन्य माध्यमों –जैसे नौकरी या ठेकेदारी के कारण झूम जैसा कष्टकर कार्य घटने लगा है। जीवन शैली के इस बदलाव के समय यदि लोगों को उनके गांव के आसपास स्थाई खेत बनाने या बागवानी विकसित करने में मदद दी जाए तो न सिर्फ झूम स्वतः नियंत्रित हो जाएगा बल्कि महत्वपूर्ण जंगल अपनी जगह कायम रहेंगे।

यह भी देखना जरूरी होगा कि भूमि या बगीचे का स्वामित्व व्यक्तियों या समुदायों को मिले। वृक्षों की खेती और बागवानी के सथ अदरक, हल्दी, काली मिर्च, दालचीनी आदि की पैदावार भी हो सकती है। इसी तरह जड़ी-बूटी की भी। गैर अरुणाचली को अरुणाचल में जमीन खरीदने का अधिकार न होने से औरों को यहां जमीन नहीं मिल सकेगी लेकिन अप्रत्यक्ष दबाव पड़ ही रहा है। अरुणाचली लोगों की जमीन, जंगल आदि का इस्तेमाल गैर अरुणाचली भी कर रहे हैं। किसी तरह भूव्यवस्था और जंगल का बंदोवस्त भी किया किया जाना चाहिए।

4. भूस्खलन, मिट्टी का अपर्दन, बाढ़ आदि


अरुणाचल के जंगलों से प्राकृति रूप से मृदा अपर्दन अत्यंत कम रहा होगा। इसी तरह भूस्खलन भी कम ही नजर आते हैं। झूम के अधिकांश क्षेत्रों में भी भूस्खलन या मिट्टी कटाव नजर नहीं आता है, लेकिन 1950 के भूकंप ने अरुणाचल की लगभग हर नदी में साद की मात्रा को बढ़ाया। उस समय की सिल्ट अभी भी अनेक नदियों के किनारों पर मौजूद है। ज्यादा भूकटान, भूस्खलन सड़कों के बनने के बाद घाटियों में हुआ है। अरुणाचल के पहाड़ों की तलहटी में हर नदी के साथ आए मलबे ने अपार क्षति तो की ही एक प्रकार से क्षेत्र का भूगोल ही बदल डाला। आज भी अधिकांश नदियों के अनियंत्रित हो जाने के कारण यह साद ही है। लेकिन यह साद 1950 के भूकंप की घटना से जुड़ी है। सामान्यतया भूस्खलन और मिट्टी कटाव इतनी ज्यादा वर्षा का क्षेत्र होने के बावजूद यहां कम है। लेकिन जंगलों के कटने के साथ मिट्टी के कटाव तथा भूस्खलनों की गति भी बढ़ जाएगी। पहाड़ों में अनेकों जगह नदियां कटाव कर रही हैं। लेकिन अधिकांश जगह वे नियंत्रण में हैं। खेती को ज्यादा विस्तार देना और सड़क बनाने की वर्तमान शैली भी मिट्टी के अपरदन को बढ़ाएंगी। क्षेत्र में वनावरण और हरियाली को बढ़ाना ही इसका इलाज है।

5. विकास प्रक्रिया


अरुणाचल मूलतः जनजातिय क्षेत्र है। वनों पर यह समाज सर्वाधिक निर्भर है। अलग प्रांत के बन जाने के बाद जहां, यहां के लोगों को अपने क्षेत्र के शासन को खुद चलाने का मौका मिला, वहीं विभिन्न जनजातियों के अलग-अलग विकास स्तरों पर रहने के कारण इसका लाभ एक सा नहीं हुआ। परंपरा और परिवर्तन या झूम और स्थाई खेती, वन और बागवानी के बीच यह समाज अपने विकास के रास्ते ढूढ़ रहा है। अपनी परंपरा से चलने वाले ये लोग अब एक प्रांतीय शासन के भीतर चलने को बाध्य हैं। विकास और परिवर्तन नकारात्मक या सकारात्मक कोई भी दिशा पकड़ सकते हैं। यह दिशा उस नीति और कार्यशैली पर निर्भर है, जिसे वहां राज्य या केंद्र सरकार या शेष देश तय करेंगे। स्थानीय सरल लोग उन नीतियों के विकास और शोषण शैलियों से परिचित नहीं हैं, जिन्हें हिमालय के और हिस्से या उत्तर पूर्वी अन्य 6 प्रांत अभी भी भुगत रहे हैं। यदि अरुणाचली समाज से ही संतुलित और समतावादी विकास का रूप विकसित होता तो यह ज्यादा उपयुक्त होता। अरुणाचल के प्रभावशाली लोग राजनीतिज्ञ, नौकरशाह और ठेकेदार –यदि शेष समाज के लिए चिंतित नहीं हुए तो इस शांत समाज में भी उत्तर पूर्व के अन्य प्रांतों की तरह असंतोष पैदा हो सकता है। सिर्फ इसलिए अरुणाचल की ओर ध्यान न देना घातक होगा कि वे मिजो, नागा, मणिपुरियों आदि की तरह आक्रामक तेवर नहीं दिखा रहे हैं। उनके शांत स्वभाव के कारण ही अरुणाचल को राष्ट्रीय प्रेस तथा संचार माध्यमों में ज्यादा स्थान हीं मिलता रहा है।

अरुणाचल वन्य और जनजातीय क्षेत्र है। इसलिए देश के अन्य जनजातीय तथा वन्य क्षेत्रों में जहां हमारी नीतियां और कार्यशैली असफल हुई है, उनका पश्चाताप हम अरुणाचल में कर सकते हैं। यह वन्य तथा जनजातीय क्षेत्र के साथ भारत के हिमालय का अभिन्न हिस्सा भी है और ब्रह्मपुत्र जल प्रदाय का जलग्रहण क्षेत्र भी। अगर हम इस जनजातीत समाज में गैर बराबरी रचने वाली, समाज को विभाजित करने वाली और प्राकृतिक संपदा की लूट बढ़ाने वाली नीतियां लागू करते हैं तो इस क्षेत्र में भी न सिर्फ प्राकृतिक पर्यावरण नष्ट प्रायः हो जाएगा। बल्कि जबर्दस्त सामाजिक तनाव भी पैदा होंगे। इसलिए अरुणाचल में एक ज्यादा अच्छा सफल प्रयोग किया जाना चाहिए।

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