आसान नहीं स्थायी न्यायाधिकरण से जल विवादों का हल

ancient pond
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सवाल यह उठता है कि इतने सारे न्यायाधिकरण, प्राधिकरण होने के बावजूद तकरीब दर्जन भर से अधिक नदी-जल विवाद इतने सालों-साल बाद भी अनसुलझे हैं। आखिर क्यों? जाहिर सी बात है कि इनमें भी जाने-माने विशेषज्ञ, नीति-निर्माता सदस्य थे। फिर इनका निपटारा क्यों नहीं हो सका। इन विवादों के चलते सम्बन्धित राज्यों की जनता इनसे उपजे संघर्षों, हिंसा, उपद्रवों की शिकार होती है और करोड़ों-करोड़ रुपयों की हानि उठानी पड़ती है सो अलग। इसका जिम्मेदार कौन है। क्या दलगत राजनीति और राज्यों के हित इन विवादों के समाधान में बाधक है। बीते दिनों केन्द्र सरकार ने देश के सभी अन्तरराज्यीय जल विवादों को तेजी से निपटाने की दिशा में एक ही स्थायी न्यायाधिकरण गठित करने का फैसला लिया है। इसके साथ ही केन्द्र सरकार ने जरूरत के मुताबिक विवादों पर गौर करने के लिये कुछ पीठ का भी गठन करने का प्रस्ताव किया है।

गौरतलब है कि देश में मौजूदा दौर में अलग-अलग जल विवादों के समाधान हेतु अलग-अलग न्यायाधिकरण मौजूद हैं। केन्द्र सरकार के जल विवादों के समाधान हेतु स्थायी न्यायाधिकरण गठित किये जाने के फैसले के साथ इन विवादों पर विचार किये जाने के लिये पीठ स्थापित करने के लिये सरकार अन्तरराज्यीय जल विवाद अधिनियम 1956 में संशोधन करेगी। इसका फैसला सरकार बीते दिनों केन्द्रीय मंत्रिमण्डल की बैठक में कर चुकी है।

इस पीठ में जिसे विवाद निपटारा समिति भी कह सकते हैं जल विशेषज्ञ एवं नीति-निर्माता शामिल होंगे। स्थायी न्यायाधिकरण के प्रमुख सुप्रीम कोर्ट के अवकाश प्राप्त न्यायाधीश होंगे। न्यायाधिकरण के गठन के पीछे सरकार की यह सोच रही है कि अभी तक जितने भी जल न्यायाधिकरण गठित हुए हैं, उन्होंने जल विवादों पर अपना फैसला सुनाने में सालों का वक्त लगा दिया।

ऐसी सम्भावना है कि इसलिये इस न्यायाधिकरण का कार्यकाल तीन वर्ष का रखा गया है जिसमें उसे विवाद का निपटारा करना होगा। सरकार का मानना है कि विशेष परिस्थिति में जरूरत पड़ने पर पीठ स्थापित की जाएगी जिसका विवाद के समाधान होने पर स्वतः अस्तित्व समाप्त हो जाएगा।

हमारे देश में जल विवादों का इतिहास काफी पुराना है। आज से सौ साल पहले सन 1916 में गंगा की निर्मलता के लिये आन्दोलन शुरू किया गया था। विडम्बना यह कि अंग्रेजों के जाने के 69 साल बाद आजाद भारत में सरकार दावे कुछ भी करे, आज भी यह विवाद जारी है और नमामि गंगे मिशन की सफलता पर लगातार सवाल उठ रहे हैं।

देश की तकरीब दर्जन भर नदियों के पानी के बँटवारे के सवाल पर राज्य आज भी उलझे हुए हैं। वे विवाद आज भी अनसुलझे हैं। इनका निपटारा न्यायाधिकरण कर पाने में नाकाम रहे हैं। कई बार तो यह विवाद इतने अतिसंवेदनशील हो जाते हैं कि कानून-व्यवस्था के लिये यह चुनौती बन जाते हैं।

मौजूदा समय में कृष्णा नदी जल विवाद, कावेरी नदी जल विवाद, रावी-व्यास नदी जल विवाद, वंशधारा नदी विवाद और मांडवी नदी जल विवाद ये पाँच ऐसे जल विवाद हैं जिन पर न्यायाधिकरण विचार कर रहे हैं। यदि इन विवादों पर सिलसिलेवार विचार करें तो पाते हैं कि कृष्णा नदी के जल को लेकर 1969 में विवाद शुरू हुआ। इसके जल के बँटवारे के सवाल पर आज से 46 साल पहले कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश और महाराष्ट्र में विवाद बढ़ा।

नतीजन 10 अप्रैल को कृष्णा नदी बेसिन न्यायाधिकरण गठित हुआ जिसने 31 मई 1976 को अपनी रिपोर्ट पेश की जिसके तहत तीनों राज्यों का पानी का कोटा निर्धारित किया गया। कावेरी नदी जल विवाद कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच दशकों पुराना विवाद है। इसमें केरल और पुदुचेरी भी पक्षकार हैं। इसके निपटारे को लेकर 2 जून 1990 को केन्द्र सरकार ने कावेरी जल विवाद प्राधिकरण का गठन किया।

बीते दिनों कर्नाटक स्थित मेंटुर बाँध से पानी छोड़ने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद कर्नाटक और तमिलनाडु में हिंसा भड़क उठी, बसें जला दी गईं, राजमार्ग बन्द रहे, स्कूल-कालेज बन्द रहे, आत्मदाह की घटनाएँ हुईं, हिंसक प्रदर्शनों का लम्बे समय तक दौर जारी रहा और राजनीति में भूचाल आ गया।

रावी और व्यास इन दोनों नदियों के पानी के बँटवारे को लेकर पंजाब, राजस्थान और हरियाणा के बीच भी बरसों पुराना विवाद है। इसके निपटारे हेतु अप्रैल 1986 में रावी-व्यास न्यायाधिकरण का गठन हुआ। हाल ही में समझौते के तहत सतलुज-यमुना लिंक नहर के पानी को लेकर पंजाब और हरियाणा के बीच भीषण राजनीतिक घमासान मचा हुआ है।

जहाँ तक वंशधारा नदी जल विवाद का सवाल है, यह एक दशक पुराना विवाद ही है। इसके जल को लेकर साल 2006 में ओडिशा ने आन्ध्र प्रदेश की शिकायत की। ओडिशा ने नदी जल विवाद अधिनियम 1956 के तहत न्यायाधिकरण गठित किये जाने की माँग की। इसके उपरान्त केन्द्र के दखल के बाद दोनों राज्य यानी ओडिशा और आन्ध्र प्रदेश वंशधारा नदी के 50-50 फीसदी हिस्से पर राजी हुए। उसके बाद से ही केन्द्रीय जल आयोग इसकी बराबर निगरानी कर रहा है।

मांडवी नदी जल विवाद पन्द्रह बरस पुराना है। साल 2002 में जुलाई के महीने में गोवा ने मांडवी नदी के जल के बँटवारे को लेकर महाराष्ट्र और कर्नाटक की शिकायत की। शिकायत के साथ-साथ गोवा ने इसके निपटारे के लिये न्यायाधिकरण के गठन की माँग की। जल्द समाधान न निकल पाने की दशा में गोवा ने सितम्बर 2006 में सुप्रीम कोर्ट की शरण ली। 10 दिसम्बर 2009 को अन्ततः केन्द्र सरकार ने मांडवी नदी जल न्यायाधिकरण के गठन को मंजूरी दी।

इन नदियों के अलावा पेरियार नदी पर बने 110 साल पुराने मुल्ला पेरियार बाँध की ऊँचाई बढ़ाने को लेकर तमिलनाडु और केरल में विवाद जारी है, वह थमा नहीं है। साल 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु को इसका जलस्तर 136 फीट से बढ़ाकर 142 फीट करने की इजाजत दे दी थी लेकिन केरल इससे सन्तुष्ट नहीं है।

जहाँ तक इन्दिरा सागर परियोजना का सवाल है, 1980 में गोदावरी जल प्राधिकरण ने आन्ध्रप्रदेश सरकार द्वारा गोदावरी नदी पर बनाए जाने वाली इन्दिरा सागर परियोजना को स्वीकृति प्रदान की। इसमें महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, ओडिशा, कर्नाटक पक्षकार थे। साल 2007 में इस मुद्दे को ओडिशा सरकार सुप्रीम कोर्ट में ले गई। बाभली परियोजना को लें। महाराष्ट्र गोदावरी नदी पर इस परियोजना के तहत बाँध बनाना चाहता है।

साल 2005 में आन्ध्र प्रदेश ने इस पर आपत्ति दर्ज की। उसने इस परियोजना को गोदावरी नदी जल प्राधिकरण के आदेश का उल्लंघन करार देते हुए 2006 में अदालत की शरण ली। महानदी भी अछूती नहीं है। महानदी विवाद भी देश में काफी सुर्खियों में रहा है। इस नदी पर छत्तीसगढ़ की ओर से बनाए जा रहे बाँधों का ओडिशा पुरजोर विरोध कर रहा है। इससे वहाँ की राजनीति में उबाल आ गया है।

अलियार और भिवानी नदियों के पानी को लेकर भी तमिलनाडु और केरल उलझे हैं। उनमें विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा। माही नदी के जल को लेकर राजस्थान, मध्य प्रदेश और गुजरात में विवाद है। यमुना नदी के जल बँटवारे को लेकर उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, हिमाचल, राजस्थान और दिल्ली में विवाद थमता दिखाई नहीं देता।

अब सवाल यह उठता है कि इतने सारे न्यायाधिकरण, प्राधिकरण होने के बावजूद तकरीब दर्जन भर से अधिक नदी-जल विवाद इतने सालों-साल बाद भी अनसुलझे हैं। आखिर क्यों? जाहिर सी बात है कि इनमें भी जाने-माने विशेषज्ञ, नीति-निर्माता सदस्य थे। फिर इनका निपटारा क्यों नहीं हो सका।

इन विवादों के चलते सम्बन्धित राज्यों की जनता इनसे उपजे संघर्षों, हिंसा, उपद्रवों की शिकार होती है और करोड़ों-करोड़ रुपयों की हानि उठानी पड़ती है सो अलग। इसका जिम्मेदार कौन है। क्या दलगत राजनीति और राज्यों के हित इन विवादों के समाधान में बाधक है। जबकि सच यह है कि जनता राजनीतिज्ञों की साजिश का हमेशा शिकार होती है और वही इन विवादों के समाधान में बाधक के रूप में महत्त्वपूर्ण भूमिका निबाहते हैं।

यदि वे राष्ट्रहित को सर्वोपरि मानें तो ऐसे विवाद ही नहीं, कोई भी विवाद विस्तार नहीं पा सकेंगे। हमारे देश में न्यायाधिकरणों और पीठों का इतिहास काफी लम्बा रहा है। इन हालातों में केन्द्र सरकार द्वारा गठित किये जाने वाले स्थायी न्यायाधिकरण हों या कोई पीठ, इनसे इन विवादों के समाधान की सम्भावना कम ही प्रतीत होती है। इससे देश पर आर्थिक बोझ पड़ेगा सो अलग।

इस सच्चाई से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता। सबसे बड़ी जरूरत पानी के महत्त्व को समझने की है। जिस दिन देश के नेतृत्व, देश की जनता और राजनीतिक दलों को पानी का मोल समझ में आ जाएगा, उस दिन ये विवाद स्वतः ही खत्म हो जाएँगे। इसमें दो राय नहीं।

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