औद्योगिक विकास

16 Apr 2018
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भारत में सूती वस्त्र उद्योग के केन्द्र
भारत में सूती वस्त्र उद्योग के केन्द्र


प्राकृतिक संसाधनों को संसाधित कर के अधिक उपयोगी एवं मूल्यवान वस्तुओं में बदलना विनिर्माण कहलाता है। ये विनिर्मित वस्तुएँ कच्चे माल से तैयार की जाती हैं। विनिर्माण उद्योग में प्रयुक्त होने वाले कच्चे माल या तो अपने प्राकृतिक स्वरूप में सीधे उपयोग में ले लिये जाते हैं जैसे कपास, ऊन, लौह अयस्क इत्यादि अथवा अर्द्ध-संशोधित स्वरूप में जैसे धागा, कच्चा लोहा आदि जिन्हें उद्योग में प्रयुक्त कर के और अधिक उपयोगी एवं मूल्यवान वस्तुओं के रूप में बदला जाता है। अतः किसी विनिर्माण उद्योग से विनिर्मित वस्तुएँ दूसरे विनिर्माण उद्योग के लिये कच्चे माल का कार्य करती हैं। अब यह सर्वमान्य तथ्य है कि किसी भी देश की आर्थिक-प्रगति या विकास उसके अपने उद्योगों के विकास के बिना संभव नहीं है।

औद्योगिक विकास के स्तर का किसी देश की आर्थिक सम्पन्नता से सीधा सम्बन्ध है। विकसित देशों जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका, जापान, रूस की आर्थिक सम्पन्नता इन देशों की औद्योगिक इकाइयों की प्रोन्नत एवं उच्च विकासयुक्त वृद्धि से जुड़ा है। औद्योगिक दृष्टि से अविकसित देश अपने प्राकृतिक संसाधानों का निर्यात करते हैं तथा विनिर्मित वस्तुओं को अधिक मूल्य चुकाकर आयात करते हैं। इसीलिये आर्थिक रूप से ये देश पिछड़े बने रहते हैं।

भारत में विनिर्माण उद्योग का सकल घरेलू उत्पाद में लगभग 30% का योगदान है। इन औद्योगिक इकाइयों द्वारा करीब 280 लाख लोगों को रोजगार उपलब्ध कराए जाते हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि निर्माण उद्योग राष्ट्रीय आय तथा रोजगार के प्रमुख स्रोत हैं।

इस पाठ के अन्तर्गत हम भारत में विकसित विभिन्न प्रकार के निर्माण उद्योग, उनके वर्गीकरण तथा उनके क्षेत्रीय वितरण कर अध्ययन करेंगे।

उद्देश्य
इस पाठ का अध्ययन करने के पश्चात आपः
- भारत में विनिर्माण उद्योगों के ऐतिहासिक विकास को जान सकेंगे;
- हमारे देश के आर्थिक विकास एवं प्रगति में इन औद्योगिक इकाइयों के योगदान को समझ सकेंगे;
- उद्योगों का विभिन्न लक्षणों के आधार पर वर्गीकरण कर सकेंगे;
- औद्योगिक विकास का सम्बन्ध कृषि, खनिज तथा ऊर्जा के साथ स्थापित कर सकेंगे;
- उद्योगों के स्थानीयकरण को प्रभावित करने वाले कारकों का परीक्षण कर सकेंगे;
- कुछ प्रमुख कृषि-आधारित उद्योगों तथा खनिज आधारित उद्योंगों के स्थानिक वितरण का वर्णन कर सकेंगे;
- भारत के मानचित्र पर कुछ चुने हुए उद्योगों की अवस्थितियों को दर्शा सकेंगे और उनकी पहचान कर सकेंगे;
- भारत में औद्योगिक विकास को बढ़ावा देने के लिये बनाई गई विभिन्न नीतियों के योगदान को समझा सकेंगे;
- औद्योगिक विकास और क्षेत्रीय विकास के बीच सम्बन्ध स्थापित कर सकेंगे;
- स्थान-विशेष पर स्थापित उद्योगों के विकास एवं वृद्धि पर आर्थिक उदारीकरण के प्रभाव का वर्णन कर सकेंगे;
- औद्योगिक विकास के पर्यावरण पर पड़ रहे प्रभाव की व्याख्या कर सकेंगे।

24.1 आधुनिक उद्योगों का संक्षिप्त इतिहास
भारत में आधुनिक औद्योगिक विकास का प्रारंभ मुंबई में प्रथम सूती कपड़े की मिल की स्थापना (1854) से हुआ। इस कारखाने की स्थापना में भारतीय पूँजी तथा भारतीय प्रबंधन ही मुख्य था। जूट उद्योग का प्रारंभ 1855 में कोलकाता के समीप हुगली घाटी में जूट मिल की स्थापना से हुआ जिसमें पूँजी एवं प्रबंध-नियन्त्रण दोनो विदेशी थे। कोयला खनन उद्योग सर्वप्रथम रानीगंज (पश्चिम बंगाल) में 1772 में शुरू हुआ। प्रथम रेलगाड़ी का प्रारंभ 1854 में हुआ। टाटा लौह-इस्पात कारखाना जमशेदपुर (झारखण्ड राज्य) में सन 1907 में स्थापित किया गया। इनके बाद कई मझले तथा छोटी औद्योगिक इकाइयों जैसे सीमेन्ट, कांच, साबुन, रसायन, जूट, चीनी तथा कागज इत्यादि की स्थापना की गई। स्वतंत्रता पूर्व औद्योगिक उत्पादन न तो पर्याप्त थे और न ही उनमें विभिन्नता थी।

स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारत की अर्थव्यवस्था अविकसित थी, जिसमें कृषि का योगदान भारत के सकल घरेलू उत्पाद का 60% से अधिक था तथा देश की अधिकांश निर्यात से आय कृषि से ही थी। स्वतंत्रता के 60 वर्षों के बाद भारत ने अब अग्रणी आर्थिक शक्ति बनने के संकेत दिए हैं।

भारत में औद्योगिक विकास को दो चरणों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम चरण (1947-80) के दौरान सरकार ने क्रमिक रूप से अपना नियन्त्रण विभिन्न आर्थिक-क्षेत्रों पर बढ़ाया। द्वितीय चरण (1980-97) में विभिन्न उपायों द्वारा (1980-1992 के बीच) अर्थव्यवस्था में उदारीकरण लाया गया। इन उपायों द्वारा उदारीकरण तात्कालिक एवं अस्थाई रूप से किया गया था। अतः 1992 के पश्चात उदारीकरण की प्रक्रिया पर जोर दिया गया तथा उपागमों की प्रकृति में मौलिक भिन्नता भी लाई गई।

स्वतंत्रता के पश्चात भारत में व्यवस्थित रूप से विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं के अन्तर्गत औद्योगिक योजनाओं को समाहित करते हुए कार्यान्वित किया गया और परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में भारी और मध्यम प्रकार की औद्योगिक इकाइयों की स्थापना की गई। देश की औद्योगिक विकास नीति में अधिक ध्यान देश में व्याप्त क्षेत्रीय असमानता एवं असंतुलन को हटाने में केन्द्रित किया गया था और विविधता को भी स्थान दिया गया। औद्योगिक विकास में आत्मनिर्भरता को प्राप्त करने के लिये भारतीय लोगों की क्षमता को प्रोत्साहित कर विकसित किया गया। इन्हीं सब प्रयासों के कारण भारत आज विनिर्माण के क्षेत्र में विकास कर पाया है। आज हम बहुत सी औद्योगिक वस्तुओं का निर्यात विभिन्न देशों को करते हैं।

पाठगत प्रश्न 24.1
1. कब और किस जगह कोयले का उत्खनन सर्वप्रथम शुरू हुआ?
2. भारत में किस वर्ष में रेलगाड़ी का प्रारंभ हुआ?
3. टाटा लौह और इस्पात संयंत्र किस जगह स्थापित किया गया था?

24.2 उद्योगों का वर्गीकरण
विभिन्न लक्षणों के आधार पर उद्योगों को कई वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। किन्तु निम्न सारिणी में उद्योगों को 5 प्रमुख आधारों पर वर्गीकृत किया गया है-

सारिणी 24.1 उद्योगों का वर्गीकरण

क्रम

आधार

उद्योगों के प्रकार

प्रमुख विशेषताएँ

उदाहरण

1.

कच्चे माल के स्रोत के आधार पर

(i) कृषि-आधारित उद्योग

कृषि-उत्पादों को कच्चेमाल के रूप में उपयोग करना

सूती-वस्त्र उद्योग, जूट या पटसन उद्योग, चीनी (शक्कर) उद्योग एवं कागज उद्योग

  

(ii) खनिज आधारित उद्योग

खनिजों का कच्चे माल के रूप में उपयोग करना

लोहा और इस्पात, रसायन  एवं सीमेंट उद्योग

2.

स्वामित्व (के आधार पर)




 

(i) सार्वजनिक क्षेत्र





 

(ii) निजी-क्षेत्र







 

(iii) संयुक्त क्षेत्र




 

(iv) सहकारी क्षेत्र



 

स्वामित्व नियंत्रण एवं प्रबंधन सरकार द्वारा

 

स्वामित्व, नियंत्रण एवं प्रबंधन किसी व्यक्ति अथवा समूह द्वारा कम्पनी के रूप में



 

संयुक्त रूप से सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र स्वामित्व

 

कच्चे माल के उत्पादकों द्वारा सहकारी समिति बनाकर स्थापित उद्योग

बोकारो लोहा एवं इस्पात संयंत्र, चितरंजन लोकोमोटिव

 

टाटा-लोहा एवं इस्पात संयंत्र, जे-के- सीमेन्ट, अपोलो टायर्स-




 

मारूति उद्योग



 

महाराष्ट्र के चीनी उद्योग, ''अमूल'' (गुजरात) और ''इफ्फ़को'' (काँदला)


 

3.

प्रमुख कार्य अथवा योगदान के आधार पर

(i) आधारभूत उद्योग







 

(ii) उपभोक्ता उद्योग

आधारभूत उद्योगों के द्वारा विनिर्मित उत्पादों का दूसरे अन्य उद्योगों द्वारा कच्चे माल के रूप में उपयोग करना

 

इन उद्योगों द्वारा निर्मित उत्पादों का सीधे उपभोक्ताओं द्वारा उपयोग में लाया जाना

लोहा और इस्पात उद्योग, पेट्रो-रसायन उद्योग





 

टूथपेस्ट, साबुन, चीनी उद्योग

4.

उद्योग के आकार के आधार पर

(i) बड़े पैमाने के उद्योग





 

(ii) छोटे-पैमाने  के उद्योग




 

(iii) ग्रामीण एवं कुटीर उद्योग

अधिक पूँजी निवेश, भारी मशीनरी, कारीगरों की अधिक संख्या, विशाल संयंत्र 24 घंटे अनवरत कार्य

कम पूँजी निवेश, छोटे स्तर के संयत्र, कारीगरों एवं कार्यशील मजदूरों की थोड़ी संख्या

परिवार के सदस्यों का स्वामित्व, छोटी मशीनें जिन्हें घर पर ही संचालित किया जा सके-

लोहा और इस्पात उद्योग, तेल-शोधक संयंत्र




 

साइकिल उद्योग, बिजली सामान बनाने वाले उद्योग

 

आभूषण निर्माण, हस्तशिल्प, दस्तकारी कलात्मक वस्तुएँ

5.

कच्चे माल तथा तैयार माल के भार के आधार पर

(i) भारी उद्योग







 

(ii) हल्के उद्योग

कच्चे माल तथा विनिर्मित माल दोनो भारी-भरकम तथा आकार में बड़े परिवहन में काफ़ी लागत

 

कच्चे माल तथा उत्पाद दोनो वजन में हल्के, परिवहन में कम लागत

लोहा एवं इस्पात भारत हेवी इलेक्ट्रिकल लिमिटेड, (हरिद्वार जेनरेटर जैसे भारी बिजली उत्पाद

 

घडि़याँ, सिले-सिलाए वस्त्र निर्माण, खिलौने, फ़ाउन्टेन पेन उद्योग

यह आवश्यक नहीं कि कोई एक उद्योग एक ही श्रेणी में शामिल होता हो। वर्गीकरण के आधार पर एक ही उद्योग विभिन्न प्रकार के उद्योगों का उदाहरण बन सकता है। उदाहरण के तौर पर बोकारो लोहा एवं इस्पात संयंत्र खनिज आधारित उद्योग है, जो सार्वजनिक क्षेत्र का भी उद्योग है तथा एक आधारभूत उद्योग है, यह बड़े पैमाने का उद्योग है तथा यह भारी उद्योग का भी उदाहरण है।

पाठगत प्रश्न 24.2
1. निम्नलिखित में से कौन-सा उद्योग सार्वजनिक क्षेत्र के अन्तर्गत आता है?
(क) जे.के. सीमेन्ट उद्योग
(ख) टाटा लौह एवं इस्पात संयंत्र
(ग) बोकारो लौह एवं इस्पात संयंत्र
(घ) रेमण्ड कृत्रिम वस्त्र उद्योग

2. निम्नलिखित में से कौन सा उपभोक्ता उद्योग है?
(क) पेट्रो-रसायन
(ख) लोहा एवं इस्पात
(ग) चितरंजन लोकोमोटिव
(घ) चीनी उद्योग

3. निम्नलिखित में से कौन-सा छोटे पैमाने का उद्योग है?
(क) चीनी
(ख) कागज
(ग) कपास
(घ) बिजली के पंखे

4. उन पाँच आधारों के नाम बताइए जिन पर उद्योगों को वर्गीकृत किया जा सकता है?

24.3 कृषि आधारित उद्योग
वस्त्र, चीनी, कागज एवं वनस्पति तेल उद्योग इत्यादि कृषि उपज पर आधारित उद्योग हैं। ये उद्योग कृषि उत्पादों को अपने कच्चे माल के रूप में प्रयोग करते हैं। संगठित औद्योगिक क्षेत्र में वस्त्र उद्योग सबसे बड़ा उद्योग है। इसके अन्तर्गत (i) सूती वस्त्र (ii) ऊनी वस्त्र (iii) रेशमी वस्त्र (iv) कृत्रिम रेशे वाले वस्त्र (v) जूट उद्योग आते हैं। कपड़ा उद्योग औद्योगिक क्षेत्र का सबसे बड़ा घटक है। कुल औद्योगिक उत्पाद का पाँचवा हिस्सा वस्त्र उद्योग उत्पादन का है तथा विदेशी मुद्रा अर्जन में इसका एक तिहाई योगदान है। रोजगार उपलब्ध कराने में कृषि क्षेत्र के बाद इसी का स्थान है।

(क) सूती कपड़ा उद्योग
भारत में औद्योगिक विकास का प्रारंभ 1854 में मुम्बई में आधुनिक सूती वस्त्र कारखाने की स्थापना से हुआ। और तब से यह उद्योग उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त कर रहा है। वर्ष 1952 में इसकी कुल 378 औद्योगिक इकाइयाँ थीं जो मार्च 1998 में बढ़कर 1998 हो गई।

भारत की अर्थव्यवस्था में कपड़ा उद्योग का योगदान बहुत महत्त्वपूर्ण है। यह बहुत बड़ी संख्या में लोगों को रोजगार उपलब्ध कराता है। देश की कुल औद्योगिक श्रमिक संख्या का 1/5 वाँ हिस्सा कपड़ा उद्योग क्षेत्र में लगा हुआ है।

(i) उत्पादन
वस्त्र निर्माण उद्योग के तीन क्षेत्र हैं। (i) कपड़ा मिल क्षेत्र (ii) हैन्डलूम (हथकरघा) एवं (iii) पावरलूम। सन 1998-99 में कुल सूती वस्त्र उत्पादन में बड़े कारखानों, हैन्डलूम तथा पावरलूम का भाग क्रमशः 5.4 प्रतिशत, 20-6 प्रतिशत एवं 74 प्रतिशत था। सन 1950-51 में सूती वस्त्रों का उत्पादन 421 करोड़ वर्ग मीटर था जो 1998-99 में बढ़कर 1794.9 करोड़ वर्गमीटर तक पहुँच गया।

सूती धागे एवं कृत्रिम धागों पर आधारित वस्त्र उद्योग ने जबरदस्त उन्नति की है। दोनों प्रकार के धागों से निर्मित कपड़े की प्रति व्यक्ति उपलब्धता 1960-61 में केवल 15 मीटर थी। 1995-96 में यह बढ़कर 28 मीटर प्रति व्यक्ति हो गयी। परिणामस्वरूप सूती धागों का सूती वस्त्रों एवं कृतिम धागों से निर्मित वस्त्रों का बड़े पैमाने पर निर्यात होने लगा। इनके निर्यात से हमने सन 1995-96 में 2.6 अरब डॉलर की विदेशी मुद्रा अर्जित की।

(ii) वितरण - सूती वस्त्र उद्योग देश के सभी भागों मे फ़ैला हुआ है। इस उद्योग के कारखाने भारत के विभिन्न भागों मे 88 से अधिक केन्द्रों में अवस्थित हैं। परन्तु अधिकतर सूती वस्त्रों के कारखाने आज भी उन क्षेत्रों में ही हैं जहाँ कपास का उत्पादन प्रमुख रूप से किया जाता है। ये क्षेत्र उत्तरी भारत के विशाल मैदानी क्षेत्र तथा भारतीय प्रायद्वीपीय पठारी भागों में स्थित हैं।

महाराष्ट्र राज्य सूती वस्त्र उत्पादन में हमारे देश का अग्रणी राज्य है। मुम्बई सूती कपड़ों के कारखानों का प्रमुख केन्द्र है। क्योंकि लगभग आधे सूती कपड़े निर्माण करने वाले कारखानें मुम्बई में स्थित हैं। इसीलिये मुम्बई को कॉटन पोलिस ठीक ही कहा गया है।

शोलापुर, कोल्हापुर, नागपुर, पुणे, औरंगाबाद एवं जलगाँव इत्यादि शहर भी महाराष्ट्र राज्य के सूती कपड़े निर्माण के महत्त्वपूर्ण स्थान है।

सूती वस्त्र उत्पादन में गुजरात का देश में दूसरा स्थान है। अहमदाबाद इस राज्य का प्रमुख केन्द्र है। इसके अलावा सूरत, भड़ोच, वडोदरा, भावनगर एवं राजकोट राज्य के अन्य केन्द्र हैं।

तमिलनाडु दक्षिण भारत में सूती वस्त्र उत्पादन में एक महत्त्वपूर्ण राज्य के रूप में उभरा है। कोयम्बटूर इस राज्य का सबसे महत्त्वपूर्ण सूती वस्त्र उद्योग का केन्द्र है। इसके अलावा तिरूनलवेली, चेन्नई, मदुरई, तिरूचनापल्ली, सालेम एवं तंजौर राज्य के अन्य महत्त्वपूर्ण केन्द्र है।

कर्नाटक राज्य में सूती वस्त्र उद्योग बंगलुरु, मैसूर, बेलगाम और गुलबर्गा नगरों में केन्द्रित है। उत्तर प्रदेश में सूती वस्त्र उद्योग कानपुर, इटावा, मोदीनगर, वाराणसी, हाथरस शहरों में केन्द्रित हैं। मध्य प्रदेश में सूती वस्त्र उद्योग इंदौर और ग्वालियर शहरों में केंद्रित है। पश्चिम बंगाल के अन्तर्गत हावड़ा, सेरामपुर, मुर्शिदाबाद जैसे बड़े शहरों में सूती वस्त्र उद्योग स्थित है।

इसके अलावा राजस्थान, पंजाब, हरियाणा और आंध्र प्रदेश राज्य भी सूती वस्त्र उत्पादन में योगदान देते हैं।

अहमदाबाद-मुम्बई-पुणे क्षेत्र में सूती वस्त्र उद्योगों के संकेन्द्रित होने के प्रमुख कारक निम्नलिखित हैं:

1. कच्चे माल की उपलब्धता - इस क्षेत्र में कपास का उत्पादन काफ़ी मात्रा में किया जाता है।

2. पूँजी की उपलब्धता - पूँजी निवेश के लिये मुम्बई, पुणे, अहमदाबाद ऐसे स्थान हैं जहाँ आसानी से उद्योग में पूँजी लगाने की सुविधा उपलब्ध है।

3. परिवहन के साधन - यह क्षेत्र देश के अन्य भागों से सड़क और रेलमार्ग द्वारा अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है। अतः उत्पादित वस्तुओं का परिवहन आसान है।

4. बाजार की निकटता - वस्त्र उत्पादों को बेचने के लिये महाराष्ट्र और गुजरात में बहुत बड़ा बाजार उपलब्ध है। विकसित परिवहन के साधनों द्वारा वस्त्र उत्पादों को देश के अन्य बाजारों एवं विदेशी बाजारों तक भेजने में आसानी रहती है। आजकल सूती वस्त्र उद्योग के संकेन्द्रण के लिये बाजार एक महत्त्वपूर्ण कारक बन गया है।

5. पत्तनों की निकटता - मुम्बई पत्तन द्वारा विदेशों से मशीनरी तथा अच्छी किस्म की कपास को आयात करने और तैयार माल को निर्यात करने में आसानी रहती है।

6. सस्ते श्रमिक - सस्ते एवं कुशल श्रमिक आस-पास के क्षेत्रों से आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं।

7. ऊर्जा की उपलब्धता - यहाँ सस्ती एवं पर्याप्त मात्रा में ऊर्जा आसानी से उपलब्ध हो जाती है।

(ख) चीनी उद्योग
भारत के कृषि आधारित उद्योगों में चीनी उद्योग का दूसरा स्थान है। अगर हमगुड़, खांडसारी और चीनी तीनों के उत्पादन को जोड़कर देखें तो भारत विश्व में चीनी उत्पादों का सबसे बड़ा उत्पादक बन जाएगा। सन 2003 में हमारे देश में लगभग 453 चीनी के कारखाने थे। इस उद्योग में लगभग 2.5 लाख लोग लगे हुए हैं।

(i) उत्पादन
चीनी उत्पादन का सीधा सम्बन्ध गन्ने के उत्पादन से है। चीनी के उत्पादन में उतार-चढ़ाव गन्ने के उत्पादन के उतार-चढ़ाव पर निर्भर करता है। सन 1950-51 में चीनी का कुल उत्पादन 11.3 लाख टन था। 2002-2003 मे यह बढ़कर 201.32 लाख टन हो गया। परन्तु 2003-2004 में यह घटकर 138 लाख टन रह गया।

(ii) वितरण - चीनी के अधिकांश कारखाने छः राज्यों में ही संकेन्द्रित हैं। ये राज्य हैं-उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश।

उत्तर प्रदेश - चीनी उत्पादन में उत्तर प्रदेश का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यहाँ पर चीनी के कारखाने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मेरठ, मुजफ्फ़रनगर, सहारनपुर, बिजनौर, मुरादाबाद और बुलन्दशहर जिलों में संकेन्द्रित हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश में देवरिया, बस्ती, गोंडा और गोरखपुर जिले चीनी उद्योग के महत्त्वपूर्ण केन्द्र हैं। उत्तर प्रदेश में गन्ने की कृषि के अंतर्गत सबसे अधिक क्षेत्र है। लेकिन यह राज्य 2003-2004 में भारत के कुल चीनी उत्पादन का केवल एक-तिहाई भाग का ही उत्पादन कर सका। यहाँ पर गन्ने का प्रति हेक्टेयर उत्पादन कम है और गन्ने में चीनी का अंश भी कम है।

महाराष्ट्र - भारत के प्रायद्वीपीय क्षेत्र में महाराष्ट्र एक महत्त्वपूर्ण चीनी उत्पादक राज्य है। यहाँ चीनी का उत्पादन देश के सकल उत्पादन के एक चौथाई अंश के बराबर होता है। महाराष्ट्र राज्य में चीनी उत्पादन के प्रमुख केन्द्र नासिक, पुणे, सतारा, सांगली, कोल्हापुर और शोलापुर हैं।

आन्ध्र प्रदेश - पूर्वी एवं पश्चिमी गोदावरी, विशाखापट्टनम, निजामाबाद, मेडक एवं चित्तूर जिले इस राज्य के चीनी उत्पादन के केन्द्र हैं।

तमिलनाडु - इस राज्य के उत्तरी तथा दक्षिणी आरकोट, मदुरई, कोयम्बटूर और त्रिचरापल्ली चीनी-उत्पादन के महत्त्वपूर्ण जिले हैं।

कर्नाटक - यह भी एक महत्त्वपूर्ण चीनी उत्पादक राज्य है। इस राज्य के बेलगाम, मान्डया, बीजापुर, बेलारी, शिमोगा तथा चित्रदुर्ग जिले चीनी उत्पादन के लिये महत्त्वपूर्ण हैं।

बिहार, गुजरात, पंजाब, हरियाणा और राजस्थान अन्य राज्य हैं जहाँ चीनी मिले अवस्थित हैं।

चीनी-उद्योग के स्थानीयकरण के निम्नलिखित कारक हैं-
(1) चीनी निर्माण में गन्ना ही प्रमुख कच्चामाल होता है। अतः चीनी मिलों की स्थापना गन्ना-उत्पादन क्षेत्र में ही हो सकती है। गन्ने की फ़सल कटने के बाद ना तो गोदामों में रखी जा सकती है और न ही उसे कटने के बाद खेत में अधिक समय तक छोड़ा जा सकता है क्योंकि वे जल्दी से सूखने लगते है। इसलिये फ़सलों की कटाई के बाद गन्नों को तुरन्त चीनी मिलों को भेजना आवश्यक है।

(2) गन्नों का परिवहन भी महँगा होता है। आमतौर पर गन्नों को बैलगाड़ियों में लादकर समीपस्थ चीनी मिल को भेजा जाता है। इनसे सामान्यतः 25-30 कि. मी. तक की दूरी तय की जा सकती है। अब गन्नों को चीनी मिल तक पहुँचाने के लिये ट्रेक्टर ट्रॉली और ट्रकों का प्रयोग भी किया जाने लगा है। इन उपरोक्त दो कारकों के अलावा पूँजी की उपलब्धि, विपणन की सुविधा, सहज और सस्ते मजदूरों का मिलना और सबसे महत्त्वपूर्ण ऊर्जा की उपलब्धता इत्यादि कारक है जो चीनी-मिलों के स्थानीयकरण को प्रभावित एवं नियन्त्रित करते हैं।

उत्तरी भारत के क्षेत्रों से चीनी उद्योग के भारत के प्रायद्वीपीय क्षेत्र में स्थानांतरित होने के कारण
पिछले कुछ समय से चीनी उद्योग का क्रमिक रूप से धीरे-धीरे उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों से हटकर भारतीय प्रायद्वीप के राज्यों में हस्तांतरण हो रहा है। इसके पीछे कुछ प्रमुख कारण निम्नलिखित है-

(1) प्राय द्वीपीय भारत में गन्ने की फ़सल का प्रति हेक्टेयर उत्पादन उत्तर भारतीय क्षेत्र से अधिक है। वास्तविकता तो यह है कि उष्ण-कटिबंधीय जलवायु गन्ने की पैदावार के लिये बहुत अनुकूल होती है।

(2) शर्करा (सुक्रोज) की मात्रा, जो गन्ने की मिठास को नियंत्रित करती है, उष्ण-कटिबंधीय क्षेत्र की फ़सल में अपेक्षाकृत अधिक होती है।

(3) गन्ना पेरने की अवधि दक्षिण भारत में उत्तर भारत की अपेक्षा ज्यादा लम्बी होती है।

(4) दक्षिण भारत में अधिकांश चीनी मिलों में आधुनिक उपकरण प्रयोग में लिये जाते हैं।

(5) दक्षिण भारत में चीनी उद्योग की अधिकांश मिलों का स्वामित्व सहकारिता क्षेत्र के अन्तर्गत है, जहाँ मुनाफ़ा को अधिक से अधिक करने का न तो लक्ष्य होता है और न ही प्रवृत्ति।

- कृषि-आधारित उद्योग कृषि उत्पादों को कच्चे माल के रूप में उपयोग करते हैं।
- भारत के संगठित क्षेत्र में सूती-कपड़ा उद्योग सबसे बड़ा उद्योग है।
- सूती वस्त्र उद्योग भारत के अधिकांश राज्यों में अवस्थित है।
- बहुत बड़ी संख्या में चीनी मिलें महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, गुजरात तथा बिहार राज्य में स्थापित है।

पाठगत प्रश्न 24.3
1. प्रथम आधुनिक सूती वस्त्र का कारखाना कब और कहाँ स्थापित किया गया?
2. भारत में सकल सूती कपड़ा उत्पादन में पावरलूम का योगदान कितना प्रतिशत है?
3. भारत में कौन सा राज्य सूती वस्त्र उत्पादन में अग्रणी है?
4. किन्हीं तीन कारणों को स्पष्ट कीजिए जो चीनी उद्योग के उत्तर भारत से दक्षिण भारत की ओर स्थानांतरण होने की स्थितियों को समझा सके।

24.4 खनिज आधारित उद्योग
वे उद्योग जिनमें खनिजों को कच्चे माल के रूप में उपयोग में लाया जाता है खनिज आधारित उद्योग कहलाते हैं। इन उद्योगों में लोहा एवं इस्पात उद्योग सबसे महत्त्वपूर्ण है। इन्जीनियरिंग, सीमेन्ट, रासायनिक एवं उर्वरक उद्योग भी खनिज आधारित उद्योग के उदाहरण हैं।

(क) लोहा एवं इस्पात उद्योग
यह एक आधारभूत उद्योग हैं क्योंकि इसके उत्पाद बहुत से उद्योगों के लिये आवश्यक कच्चे माल के रूप में प्रयुक्त होते हैं।

भारत में यद्यपि लौह इस्पात के निर्माण की औद्योगिक क्रियाएँ बहुत पुराने समय से चली आ रही हैं किन्तु आधुनिक लौह इस्पात उद्योग की शुरुआत 1817 में बंगाल के कुल्टी नामक स्थान पर बंगाल लोहा एवं इस्पात कारखाने की स्थापना से हुई। टाटा लोहा एवं इस्पात कम्पनी की स्थापना जमशेदपुर में 1907 में हुई। इसके पश्चात भारतीय लोहा एवं इस्पात संयंत्र की स्थापना 1919 में बर्नपुर में हुई। इन तीनों संयंत्रों की स्थापना निजी क्षेत्र के अंतर्गत हुई थी। सार्वजनिक क्षेत्र के अंतर्गत प्रथम लोहा तथा इस्पात का संयंत्र जिसे अब ''विश्वेसरैया लोहा एवं इस्पात कम्पनी'' के नाम से जाना जाता है, की स्थापना भद्रावती में सन 1923 में हुई थी।

स्वतंत्रता के पश्चात लोहा एवं इस्पात उद्योग में तीव्रता से प्रगति हुई। सभी वर्तमान इकाइयों की उत्पादन क्षमता में वृद्धि हुई। तीन नए एकीकृत संयंत्रों की स्थापना क्रमशः राउरकेला (उड़ीसा), भिलाई (छत्तीसगढ़) तथा दुर्गापुर (पश्चिम बंगाल) में की गई। बोकारो इस्पात संयंत्र की स्थापना सार्वजनिक क्षेत्र के अन्तर्गत सन 1964 में की गई। बोकारो तथा भिलाई स्थित संयंत्रों की स्थापना भूतपूर्व सोवियत संघ के सहयोग से की गई। इसी प्रकार दुर्गापुर लोहा एवं इस्पात संयंत्र की स्थापना यूनाइटेड किंगडम के सहयोग से तथा राऊरकेला संयंत्र जर्मनी के सहयोग से स्थापित किए गए। इसके पश्चात विशाखापट्टनम और सलेम संयंत्रों की स्थापना हुई। स्वतंत्रता के समय भारत सीमित मात्र में कच्चे लोहे तथा इस्पात का निर्माण करता था। सन 1950-51 में भारत में इस्पात का उत्पादन केवल 10 लाख टन था जो 1998-99 में बढ़ते-बढ़ते 238 लाख टन तक पहुँच गया।

भारत के प्रमुख लौह तथा इस्पात संयंत्र झारखण्ड, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक तथा तमिलनाडु राज्यों में अवस्थित हैं। इसके अलावा भारत में 200 लघु इस्पात संयंत्र हैं जिनकी क्षमता 62 लाख टन प्रति वर्ष है। लघु इस्पात संयंत्रों में इस्पात बनाने के लिये स्क्रेप या स्पॉन्ज लोहे का प्रयोग किया जाता है। ये सारी छोटी इकाइयाँ देश में लोहा तथा इस्पात उद्योग के महत्त्वपूर्ण घटक हैं।

लोहा तथा इस्पात उद्योग के अधिकांश संयंत्र भारत के छोटा नागपुर पठार पर अथवा उसके आस-पास इसलिये स्थापित हुए हैं, क्योंकि इसी क्षेत्र में लौह अयस्क, कोयला, मैंगनीज, चूने का पत्थर, डोलोमाइट जैसे महत्त्वपूर्ण खनिजों के विपुल निक्षेप मिलते हैं।

लौह-इस्पात उद्योग के लिये आवश्यक कच्चा माल, शक्ति एवं स्वामित्व तथा अवस्थिति की जानकारी निम्नलिखित सारिणी में दी गई है-
 

सारिणी 24.2 भारत: लोहा तथा इस्पात संयंत्र एवं उनके कच्चे माल के स्रोत कच्चे माल की आपूर्ति

 

कच्चे माल की आपूर्ति

क्रम सं.

संयंत्रों के नाम

स्थिति

स्वामित्व

कोयला/ बिजली

लौह अयस्क

चूने का पत्थर

मैंगनीज

1.

टाटा आयरन एण्ड स्टील कं- (टिस्को)

जमशेदपुर

निजी क्षेत्र

झरिया

मयूरभंज

क्योंझर

सिंहभूमि

2.

इंडियन आयरन एण्ड स्टील कं. (इस्को)

बर्नपुर

सावर्जनिक क्षेत्र

झरिया दामोदरघाटी

सिंहभूमि मयूरभज

क्योंझर

सिंहभूमि

3.

विश्वेसरैया आयरन एण्ड स्टील कं. (वीआई एसएल)

भद्रावती

सार्वजनिक क्षेत्र

सारावती परियोजना

केमामान गुडी

भाडिग्रुडा

चित्रदुर्गा, शिमोगा

4.

हिन्दुस्तान स्टील लि. (एचएस एल)

राउरकेला

सार्वजनिक क्षेत्र

बोकारो, झरिया  हीराकुण्ड परियोजना

सुन्दरगढ़, क्योंझर

पुमापानी

बड़ा जामदा

5.

हिन्दुस्तान स्टील लि. (एचएस एल)

भिलाई

सार्वजनिक क्षेत्र

करगली, कोरबा

दल्ली राजहरा

नदनी

बालाघाट

6.

हिन्दुस्तान स्टील लि. (एचएस एल)

दुर्गापुर

सार्वजनिक क्षेत्र

झरिया, दामोदर घाटी

बोलांगीर, क्योंझर

बीरमित्रपुर (सुन्दरगढ़ जिला

जामदा क्योंझर जिला

7.

भारत स्टील लि. (बीएसएल)

बोकारो

सार्वजनिक क्षेत्र

झरिया

किरिबुरू

पलामू

 

8.

एसएसपी

सलेम

सार्वजनिक क्षेत्र

नैवेली

सलेम जिला

सलेम जिला

सलेम जिला

9.

वीएसएल

विशाखापट्टनम

सार्वजनिक क्षेत्र

दामोदर घाटी

बैलाडीला (छत्तीसगढ़ राज्य)

छत्तीसगढ़ एवं मध्य प्रदेश

बालाघाट

भारत लौह इस्पात केन्द्रकच्चे माल के बारे में जितनी जानकारियाँ सारिणी 24.2 में दी गई हैं उनका मिलान चित्र संख्या 24.2 के साथ भी किया जा सकता है।

पाठगत प्रश्न 24.4
1. ''बंगाल लोहा एवं इस्पात वर्क्स'' किस स्थान पर और कब स्थापित हुआ था?
2. दुर्गापुर इस्पात संयंत्र किस देश के सहयोग से स्थापित हुआ था?
3. निम्नलिखित इस्पात संयंत्रों में से कौन सा संयंत्र आंध्र प्रदेश में है?
(क) दुर्गापुर (ख) बोकारो (ग) भिलाई (घ) विशाखापट्टनम
4. निम्नलिखित में से कौनसा इस्पात संयंत्र निजी क्षेत्र में है?
(क) बर्नपुर (ख) भद्रावती (ग) जमशेदपुर (घ) भिलाई

24.5 पेट्रो-रसायन उद्योग
भारत में पेट्रोरसायन उद्योग तेजी से वृद्धि करता हुआ उद्योग है। इस उद्योग ने देश के पूरे उद्योग जगत में एक क्राँति ला दी है क्योंकि इसके उत्पाद परम्परागत कच्चे माल जैसे लकड़ी, काँच एवं धातु को प्रतिस्थापित करने में अधिक सस्ते और उपयोगी पाए जाते हैं। लोगों की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले इस पेट्रो- रसायन के उत्पाद लोगों को सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। पेट्रो-रसायन को पेट्रोलियम या प्राकृतिक गैस से प्राप्त किया जाता है। हम पेट्रो-रसायन से निर्मित विभिन्न वस्तुओं का प्रयोग सुबह से शाम तक करते हैं। टूथ-ब्रश, टूथ-पेस्ट, कंघी, बालों में लगाने वाले हेयर पिन, साबुन रखने के डिब्बे, प्लास्टिक मग, सिंथेटिक कपड़े, रेडियो और टी.वी. कवर, बाल पॉइन्टपेन, इलेक्ट्रिक स्विच, डिटर्जेंट पाउडर, लिपस्टिक, कीड़े मारने की दवाइयाँ, प्लास्टिक थैलियाँ, फ़ोम के गद्दे तथा चादरें इत्यादि असंख्य वस्तुएँ पेट्रो-रसायन से ही बनती हैं।

भारतीय पेट्रो-रसायन निगम ने वडोदरा (गुजरात) के समीप एक वृहद पेट्रोकेमिकल कॉम्पलेक्स को स्थापित किया है जिसमें विभिन्न प्रकार के पदार्थ बनाए जाते हैं। वडोदरा के अलावा गुजरात राज्य में गन्धार एवं हजीरा केन्द्र भी स्थापित किए गए हैं। अन्य राज्यों में महाराष्ट्र (नागाथोन केन्द्र) में पेट्रो रसायन उद्योग स्थापित है। भारत पेट्रो रसायन पदार्थों के निर्माण मे पूर्णतः आत्म निर्भर है।

कच्चे तेल को परिष्कृत किए बगैर कोई खास महत्त्व नहीं है। परन्तु जब उसे परिष्कृत किया जाता है तब वह खनिज तेल पेट्रोल के रूप में बहुत मूल्यवान बन जाता है। तेल के परिष्करण करते समय हजारों किस्म के पदार्थ मिलते हैं- जैसे मिट्टी का तेल, पेट्रोल, डीजल, लुब्रीकेन्टस और वे पदार्थ जो पेट्रो-रसायन उद्योग में कच्चे माल के रूप में उपयोग में आते हैं।

भारत में इस समय 18 तेल परिष्करण शालाएँ है। इन तेल परिष्करण शालाओं की अवस्थिति इस प्रकार हैं- डिगबोई, बोंगइगाँव, नूना माटी (तीनों असम राज्य में), मुम्बई (महाराष्ट्र) में दो इकाइयाँ हैं, विशाखापट्टनम (आन्ध्र प्रदेश), बरौनी (बिहार राज्य), कोयाली (गुजरात), मथुरा (उत्तर प्रदेश), पानीपत (हरियाणा), कोच्चि (केरल), मैंगलोर (कर्नाटक) और चेन्नई (तमिलनाडु)। जामनगर (गुजरात) में स्थित परिष्करणशाला एकमात्र संयंत्र है जो निजी क्षेत्र के अन्तर्गत आता है तथा यह रिलायन्स उद्योग लि. द्वारा लगाया गया है।

पाठगत प्रश्न 24.5
1. कच्चेमाल के रूप में प्रयुक्त तीन पदार्थों के नाम लिखिये जिनका प्रतिस्थापन पेट्रो-रसायनिक पदार्थों द्वारा होता है।
2. पेट्रो रसायन निगम का मुख्यालय कहाँ पर अवस्थित है?
3. महाराष्ट्र में एक पेट्रो रसायन केन्द्र का उल्लेख कीजिए?
4. सही मिलान कीजिए-

(क) नून माटी (i) केरल
(ख) कोच्चि (ii) असम
(ग) करनाल (iii) बिहार
(घ) बरौनी (iv) हरियाणा

24.6 औद्योगिक समूह
भारत में औद्योगिक विकास के स्तरों में बहुत अधिक क्षेत्रीय असमानताएँ व भिन्नताएँ हैं। कुछ स्थानों पर भारतीय उद्योग समूह के रूप में संकेन्द्रित हो गए हैं। भारत में अधिकतर औद्योगिक क्षेत्रों का विकास कुछ प्रमुख बन्दरगाहों जैसे कोलकाता, मुम्बई, चेन्नई के पृष्ठ भाग के ईद-गिर्द क्षेत्रों में हो गया है। इन औद्योगिक क्षेत्रों को सभी सुविधाएँ एवं लाभदायक स्थितियाँ प्राप्त हैं जैसे कच्चे माल की उपलब्धि, ऊर्जा, पूँजी, विपणन केन्द्रों तक अभिगम्यता, इत्यादि। कुल छः औद्योगिक क्षेत्रों में से तीन इन बन्दरगाहों के पृष्ठ प्रदेश में ही स्थित हैं। प्रमुख छः औद्योगिक क्षेत्र निम्नलिखित हैं-

(1) हुगली औद्योगिक क्षेत्र
(2) मुम्बई-पुणे औद्योगिक क्षेत्र
(3) अहमदाबाद-वडोदरा क्षेत्र
(4) मदुरई-कोयम्बटूर-बंगलुरु क्षेत्र
(5) छोटा नागपुर का पठारी क्षेत्र
(6) दिल्ली और उसके आस-पास के क्षेत्र

इन उपरोक्त प्रमुख क्षेत्रों के अलावा 15 छोटे औद्योगिक क्षेत्र तथा 15 औद्योगिक जिले हैं।

24.7 औद्योगिक आत्मनिर्भरता
औद्योगिक आत्मनिर्भरता का अर्थ है भारत के लोग उद्योगों की स्थापना, संचालन और प्रबंधन, देश में उपलब्ध तकनीकी ज्ञान, पूँजी एवं मशीनरी, कल पुर्जे जो भारत में ही विनिर्मित किए जाते हैं, उनका उपयोग दक्षता और कुशलता से कर सकने में समर्थ हैं। इसमें किसी भी बाहरी देश के किसी भी प्रकार की सहायता पर निर्भरता नहीं रहती।

भारत सरकार ने सन 1956 में एक औद्योगिक नीति का निर्धारण किया जिसके मुख्य लक्ष्य थे- औद्योगिक उत्पादन को बढ़ाना, रोजगार पैदा करना, उद्योगों का विकेन्द्रीकरण करना, औद्योगिक विकास में क्षेत्रीय असमानता को दूर करना तथा लघु-उद्योग एवं कुटीर-उद्योग को विकसित करना इत्यादि।

उद्योगों के सुनियोजित विकास के द्वारा आज हम अनेकों प्रकार के औद्योगिक उत्पादों का निर्माण करते हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है ऐसी वस्तुओं का विनिर्माण जो अन्य वस्तुओं को विनिर्मित करने में सहायक होती हैं। भारत आज भारी मशीनरी और उपकरणों के निर्माण में सक्षम और पूर्णतः स्वावलम्बी है। इन विनिर्मित मशीनों एवं विभिन्न उपकरणों का उपयोग उत्खनन, सिंचाई, ऊर्जा परियोजनाओं, परिवहन एवं संचार के क्षेत्र में होता है। हम भारत में बनी भारी मशीनों का उपयोग सीमेंट, वस्त्र, लोहा एवं इस्पात, चीनी उद्योगों में करते हैं।

सार्वजनिक क्षेत्र का औद्योगिक आत्मनिर्भरता प्राप्त करने में अभूतपूर्व योगदान रहा है। लोहा एवं इस्पात, रेलवे के उपकरण, पेट्रोलियम, कोयला एवं उर्वरक जैसे उद्योगों का सार्वजनिक क्षेत्र के अन्तर्गत ही विकास किया गया है। ये उद्योग औद्योगिक रूप से पिछड़े क्षेत्रों में ही स्थापित किए गए थे। सातवीं पंचवर्षीय योजना के काल में उच्च-प्रौद्योगिकी, उच्च मूल्य संवर्धन और आधुनिक ज्ञान विज्ञान आधारित उद्योग जैसे इलेक्ट्रॉनिक्स उद्योग, प्रोन्नत प्रकार के मशीनी उपकरण, निर्माण, दूर-संचार के क्षेत्र पर अधिक बल दिया गया था।

24.8 आर्थिक उदारीकरण का प्रभाव
भारत में औद्योगीकरण की प्रक्रिया को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है- 1992 के पूर्व एवं पश्चात। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद प्रथम चालीस वर्षों के अन्तराल में भारत की अर्थव्यवस्था में तेजी से विविधता तथा विस्तार आए। परन्तु इस वृद्धि में कठोर सरकारी नियंत्रण तथा निर्धारित नियमों का अनुपालन इसकी विशेषता रही है।

अगस्त 1992 में भारत सरकार ने एक साहसिक कदम उठाते हुए भारत की आर्थिक-नीतियों पर लगने वाले सरकारी नियंत्रणों में बदलाव लाया गया और इन्हें बाजार की शक्तियों के अनुरूप बदलाव लाने का लचीलापन प्रदान किया गया। निजी पूँजी निवेश तथा संचालन की जिम्मेदारी देते हुए उद्योगों को चाहे घरेलू अथवा विदेशी संस्थाएँ अथवा समुदाय हो, कार्यान्वित और स्थापित करने की छूट प्रदान करने की जरूरत को महसूस किया गया। इन सभी सोच-विचार का नतीजा एक नई औद्योगिक नीति का निर्धारण करना था जिसके अन्तर्गत अगस्त 1992 में उदारीकरण, निजीकरण तथा वैश्वीकरण की नई नीति को अपनाया गया था। अगस्त 1992 में लिये गए इस नीति निर्णय के पीछे तात्कालिक कारण बकाया भुगतान की अदायगी के संकट पर काबू पाना तथा सामाजिक-आर्थिक, राजनैतिक, भौगोलिक निहितार्थों पर नियंत्रण प्राप्त करना था।

उदारीकरण का अर्थ एक तो सरकारी नियंत्रण में कमी लाना है दूसरा उस उदार दृष्टिकोण से है जिसके अन्दर बाजार की मौजूदा प्रतिस्पर्धायुक्त शक्तियों के अनुरूप आर्थिक नीतियों में लचीलापन लाना। इससे सरकार की उदार प्रवृत्ति के तहत निजीकरण को प्रोत्साहित करने का इरादा भी उजागर होता है। इन उदारीकरण नीतियों ने उद्योगों की स्थापना एवं संचालन, जो 1992 के पहले के वर्षों में सार्वजनिक क्षेत्रों पर ही निर्भर थे, में निजी संस्थाओं को भी जिम्मेदारी, भागीदारी के अवसर प्रदान किए। इस उदारीकरण को भारतीय अर्थव्यवस्था में व्याप्त तमाम कमियों का अचूक रामबाण माना गया।

परन्तु लगातार 15 वर्षों तक इस उदारीकरण की नीति का अनुसरण करते हुए जो परिणाम उपलब्ध हुए हैं वे इतने अच्छे नहीं है। धनवान और निर्धन, सम्पन्न एवं विपन्न के बीच खाई अब और बढ़ गई। व्यापक खपत वाली वस्तुओं के उत्पादन में अपेक्षाओं के अनुरूप वृद्धि नहीं हुई। इसी प्रकार रोजगार के अवसरों में भी आशातीत वृद्धि नहीं हुई। निजीकरण में स्वामित्व का हस्तांतरण सार्वजनिक क्षेत्र से निजी क्षेत्र में, निजी संस्थाओं/व्यक्ति समूह के हाथों में आ जाता है तथा अधिक से अधिक औद्योगिक क्षेत्रों को निजी पूँजी और प्रबन्धन को सौंपा जाता है। निजीकरण का मुख्य उद्देश्य निजी संसाधनों का लोगों के सामूहिक कल्याण के लिये प्रयोग करना है।

वर्तमान चरण में वैश्वीकरण का अर्थ विश्व की विभिन्न अर्थ-व्यवस्थाओं में एकीकृत सम्बन्धों को बढ़ाने से है। विश्व के विभिन्न देशों के बीच आर्थिक असमानता को विभिन्न देशों के बीच व्यापार के तहत सामान/वस्तुओं/व्यक्तियों/सेवाओं के आदान-प्रदान/पूँजी निवेश/प्रौद्योगिकी के आदान प्रदान पर लगे प्रतिबन्धों को समाप्त करके दूर किया गया।

वैश्वीकरण ने लोगों के रहन-सहन, जीवन के स्तर एवं जीवन-शैली तथा वस्तुओं के उपयोग-प्रतिमानों पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव डाला है। आज पूरा का पूरा विश्व ही विपणन का व्यापक केन्द्र जैसा लगने लगा है। वैश्वीकरण ने हमारे नैतिक मूल्यों एवं मान्यताओं को भी प्रभावित किया है।

पाठगत प्रश्न 24.6
1. भारत ने कब अपनी पहली औद्योगिक नीति का निर्धारण किया?
2. सातंवी पंचवर्षीय योजना के अन्तर्गत किन्हीं तीन उद्योगों का उल्लेख कीजिए, जिन पर प्रभावी ढंग से विशेष धयान दिया गया था।
3. उदारीकरण का क्या अर्थ है?

आपने क्या सीखा
प्राकृतिक संसाधनों को अधिक उपयोगी और मूल्यवान बनाने के लिये उनको संसाधित करने की प्रक्रियाओं को विनिर्माण कहते हैं। किसी भी देश की आर्थिक प्रगति एवं समृद्धि का सीधा सम्बन्ध उस देश में हो रहे औद्योगिक विकास के स्तर से सीधा जुड़ा होता है। भारत में विनिर्माण उद्योगों का देश के सकल घरेलू उत्पादन में भागीदारी का अंश प्रतिशत के रूप में पिछले कुछ वर्षों में विशेष रूप से आर्थिक नीतियों में सुधार के बाद वाले वर्षों में बढ़ता रहा है। स्वतंत्रता पूर्व भारत औद्योगिक रूप से कम विकसित था। परन्तु स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात वाले वर्षों में भारत ने सुनियोजित ढंग से औद्योगिक विकास को बढ़ाने के लिये अपनी विभिन्न पँचवर्षीय योजनाओं में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया। और आज भारत विभिन्न विनिर्मित वस्तुओं का निर्यात विश्व के विभिन्न देशों को कर रहा है।

उद्योगों को उनमें प्रयोग होने वाले कच्चे माल के स्रोत, प्रमुख कार्य, उद्योग के आकार तथा कच्चे और तैयार माल के भार के आधार पर विभिन्न श्रेणियों में वर्गीकृत किया जाता है। भारत चूँकि अभी भी एक कृषि-प्रधान देश है, यहाँ पर विविध प्रकार के कृषि-आधारित उद्योग जैसे सूती कपड़े, ऊनी कपड़े, जूट के कपड़े के उद्योग एवं चीनी उद्योग इत्यादि विकसित हो गए हैं। भारत में संगठित क्षेत्र के उद्योगों में सूती-वस्त्र निर्माण उद्योग सबसे बड़ा उद्योग है। भारत में विपुल खनिज भण्डार है। अतः भारत में खनिजों पर आधारित बहुत सी औद्योगिक इकाइयाँ विकसित हुई हैं, जैसे लोहा एवं इस्पात उद्योग, भारी मशीनरी उद्योग, ऑटोमोबाइल, रासायनिक उद्योग, पेट्रो-रसायन उद्योग इत्यादि।

भारत सरकार ने ऐसी औद्योगिक नीतियों का निर्धारण किया था जिनके कारण भारत उद्योग के विभिन्न क्षेत्रों में स्वावलंबी हो सका है। उदारीकरण, वैश्वीकरण तथा निजीकरण को प्रोत्साहन देने से विदेशी पूँजी-निवेश के साथ आधुनिक प्रौद्योगिकी को भारत मे लाने में बहुत सहायता प्राप्त हुई है। निजी उद्योगों को उद्योगों के अभ्यंतर क्षेत्र में प्रवेश की अनुमति प्रदान करने से उद्योग-क्षेत्र में प्रतिस्पर्धायुक्त तीव्र प्रगति भी हुई है।

पाठान्त प्रश्न
1. मुम्बई और आस-पास के क्षेत्रों में सूती-वस्त्र निर्माण उद्योग के संकेन्द्रित होने के क्या कारण हैं? कोई चार कारण बताइए।
2. चीनी उद्योग के उत्तर भारतीय क्षेत्र से दक्षिण भारतीय क्षेत्र में स्थानांतरित होने के तीन कारणों का उल्लेख कीजिए।
3. स्वामित्व के आधार पर उद्योगों को उदाहरण सहित वर्गीकृत कीजिए।
4. औद्योगिक स्वावलंबन की परिभाषा दीजिए। भारत को औद्योगिक स्वावलंबन की आवश्यकता क्यों है?
5. छोटा नागपुर पठार में और उसके आस-पास के क्षेत्र में इस्पात उद्योग के संकेन्द्रित होने के किन्हीं चार कारकों का वर्णन कीजिए।
6. कृषि आधारित उद्योग और खनिज आधारित उद्योग के बीच अन्तर को स्पष्ट कीजिए। दोनों उद्योगों के दो-दो उदाहरण दीजिए।

पाठगत प्रश्नों के उत्तर
24.1
1. 1772 रानीगंज
2. 1854
3. जमशेदपुर

24.2
1. (ग) बोकारो लौह एवं इस्पात संयंत्र
2. (घ) चीनी उद्योग
3. (घ) बिजली के पंखे
4. कच्चे माल के स्रोत, स्वामित्व, कार्य, आकार, कच्चे माल तथा उत्पादित वस्तुओं के भार के आधार

24.3
1. 1854, मुम्बई
2. 74%
3. महाराष्ट्र
4. प्रति हेक्टेयर गन्ने का अधिक उत्पादन
सुक्रोज की अधिक मात्रा
गन्ने-पेरने की ऋतु की लम्बी अवधि
आधुनिक मशीनरी
उद्योगों का सहकारी क्षेत्र में होना (कोई तीन कारण)

24.4
1. पश्चिम बंगाल के कुल्टी में, 1817
2. युनाइटेड किंगडम
3. (घ)
4. (ग)

24.5
1. लकड़ी, काँच, धातु
2. वडोदरा
3. नागाथोन
4. (क) और (ii) , (ख) और (i) , (ग) और (iv) , (घ) और (iii)

24.6
1. 1956
2. इलेक्ट्रॉनिक्स, उच्च किस्म के मशीनी उपकरण और दूर संचार उपकरण
3. सरकारी नियंत्रण में कमी और बाजार की प्रतिस्पर्धा अधिक

पाठान्त प्रश्नों के संकेत
1. अनुच्छेद 24.3 (क) देखिए
2. अनुच्छेद 24.3 (ख) देखिए
3. अनुच्छेद 24.2 (सारिणी 24.1) देखिए
4. अनुच्छेद 24.7 देखिए
5. अनुच्छेद 24.4 देखिए
6. अनुच्छेद 24.2 (सारिणी 24.1) देखिए
 

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