बाढ़ का बेटा

जब बाढ़ अपने ओज पर होती, वह बिसेसर को नाव पर बिठाकर चल पड़ते चौर की ओर! दिन में ही नहीं; अंधेरी रात को भी। ‘डरना मत बेटे, बाढ़ में देवी-देवता होते हैं, भूत-पिशाच नहीं।’ जब नाव बीच चौर में पहुँचती, बूढ़ा पतवार चलाना छोड़ देता, नाव को स्थिर कर देता और उसकी मांगी पर जाल लिए खड़ा होकर पानी की ओर एकटक घूरता! नाव धीरे-धीरे आप ही फिसल रही और बूढ़ा पानी की ओर इस तरह देख रहा होता, मानो अपनी नजर उसके भीतर तक घुसा देना चाहता हो! उस समय उसकी सूरत-लगता, नाव की मांगी पर तांबे की मूर्ति खड़ी है - निस्पंद निर्निमेष! ‘बाढ़ आ रही है,’ सुकिया ने कहा। बिसेसर ने जरा सिर उठाकर उसकी ओर देखा और फिर अपने जाल की मरम्मत में लगा रहा।

बाढ़ आ रही है - क्या बिसेसर यह नहीं जानता? आज चार दिनों से जो उमस-उमस रही, उत्तर ओर, हिमालय की तराई में जो लगातार बिजली चमकती रही, बादल गरजते रहे, वे क्या सूचना नहीं देते थे कि बाढ़ आएगी ही।

बाढ़ उसके लिए कोई नई चीज है?
बचपन से ही वह बाढ़ देखता आया है। देखता आया है, उससे खेलता आया है।

बीच चौर में है उसका यह गांव। चार महीने तक तो यह एक टापू ही बना रहता है और कहीं वर्षा से बाढ़ आती हो, यहां तो सूखे से भी बाढ़ आती रही है।

गांव सूखा, खेत सूखे, तालाब सूखे, नाले सूखे; कि एक दिन अचानक शोर मचा, बाढ़ आई, बाढ़ आई!

बड़ी उमस हुई; हिमालय पर बर्फ पिघली; इस चौर में बाढ़ आई-यही होता रहा है! बाढ़ आई और बच्चे दौड़े नाले की ओर!

नाले में पीला-पीला पानी, इन बच्चों से भी अधिक चपल, चंचल। कैसा प्रवाह, कितना शीतल बच्चों ने अपने को उसमें डाल दिया-नहा रहे हैं, तैर रहे हैं। उछल-कूद, शोर-कोलाहल, दीन-दुनिया की सुध नहीं; पानी बढ़ते-बढ़ते नाले का छोर छू रहा है और उसमें इतना प्रवाह हो गया है कि न पैर टिक सकते हैं। न तैरना सध सकता है।

अब बड़ों की बारी आई।
नाले का पानी अब खेतों को भर रहा है, खड्डों को भर रहा है और छोटी-बड़ी मछलियाँ उपटी पड़ती हैं।

बाढ़ के पानी में, खासकर पहली बाढ़ के पानी में, एक नशा होता है। वह पानी मछली के मुंह में गया नहीं कि वह बौराई, पागल बनी!

गांव से लोग दौड़े, जाल लिए, टापी लिए, घनी लिए। जो खाली हाथ दौड़े, वे भी दो-चार मछलियाँ लेकर ही घर लौटे!

गांव में बाढ़ क्या आई, घरों में मछली की कचरकूट मची!
इधर पानी बढ़ता गया, धीरे-धीरे सारा गांव जलमग्न! तब नावें छूटीं, ऊंची-उंची तरंगों पर वे पतली-पतली डोंगियां। झूले का मजा भी देती हैं वे।

बिसेसर को अपने बचपन की याद आ रही है और याद आ रहे हैं उसके दादा प्रयाग सहनी।

बूढ़े प्रयाग सहनी इसी तरह एक दिन जाल बिछाकर बैठे थे कि उन्होंने बिसेसर को पुचकारकर बुलाया, ‘आओ बेटे, एक नया खेल सिखला दें तुम्हें।’ और सचमुच खेल-खेल में ही उन्होंने बिसेसर को क्या-क्या नहीं सिखला दिया ।

जाल की मरम्मत करना, नया जाल बनाना। जाल का तागा कैसा होना चाहिए, तागे को तैयार कैसे करना चाहिए। जाल को कैसे सम्हालना चाहिए, कैसे फेंकना चाहिए। सिर के चारों ओर घुमा कर फेंकते ही वह एक बड़ा-सा वृत्त बनाता पानी में इस तरह गिरे कि उस वृत्त के दायरे की मछलियों को निकल भागने का मौका ही नहीं मिले!

मछली पकड़ने की भी एक कला है। मछलियाँ सिर्फ चंचल ही नहीं होतीं, चालाक भी होती हैं। उनकी भिन्न-भिन्न जातियों का भिन्न स्वभाव होता है। रोहू सदा धारा के प्रतिकूल चलेगी; बोआरी को धारा के साथ बहते रहने में आनंद आता है। चेल्हवा धारा के ऊपर-ऊपर तैरती है, सउरा जमीन पकड़कर चलती है। प्रयाग सहनी ने मछली मारने के सारे गुर बिसेसर को बता दिए थे!

जब बाढ़ अपने ओज पर होती, वह बिसेसर को नाव पर बिठाकर चल पड़ते चौर की ओर! दिन में ही नहीं; अंधेरी रात को भी। ‘डरना मत बेटे, बाढ़ में देवी-देवता होते हैं, भूत-पिशाच नहीं।’

.जब नाव बीच चौर में पहुँचती, बूढ़ा पतवार चलाना छोड़ देता, नाव को स्थिर कर देता और उसकी मांगी पर जाल लिए खड़ा होकर पानी की ओर एकटक घूरता! नाव धीरे-धीरे आप ही फिसल रही और बूढ़ा पानी की ओर इस तरह देख रहा होता, मानो अपनी नजर उसके भीतर तक घुसा देना चाहता हो! उस समय उसकी सूरत-लगता, नाव की मांगी पर तांबे की मूर्ति खड़ी है - निस्पंद निर्निमेष!

कि इतने में मूर्ति कांपी, जाल उछला और लीजिए, यह बड़ी-सी रोहू नाव में छटपट कर रही है! बिसेसर को याद नहीं है कि कभी उसके दादा का निशाना चूक गया हो!

प्रयाग सहनी ने बिसेसर को नाव के बारे में भी बहुत कुछ शिक्षा दे दी थी- किस लकड़ी की नाव अच्छी होती है, इससे लेकर जब नाव भंवर में पड़ जाए तो उसे कैसे निकालना चाहिए, यहां तक।

नाव का भंवर में पड़ना-जब न ताकत काम करती है, न चातुरी। पतवार को हाथ में रखकर भगवान के भरोसे बैठे रहो, उधर टेढ़े-मेढ़े प्रवाह से नाव चक्कर-पर-चक्कर खा रही है, चर्र-मर्र कर रही है। इतने ही में नाव की मागीं जरा-सी भंवर से बाहर गई और यदि ऐन उस समय पतवार से एक हुदक्का मार दिया गया तो फिर बेड़ा पार! बिसेसर ने कितनी बार अपनी नाव को भंवर से उबारा है।

ज्यों ही उमस बढ़ने लगी थी, सबसे पहले बिसेसर ने अपनी नाव की मरम्मत की थी। फिर वह जाल पर जुटा है!

बाढ़ आ रही है, तो आए, प्रयाग सहनी कहा करते, ‘बेटे, बाढ़ से मत घबराना, भगवान खुश होते हैं तो पानी देते हैं ! बाढ़ नहीं आए, तो मछली कहां से आएगी और अपनी दो बीघा जमीन से ही जो परिवार भर की गुजर चल जाती है, क्या उसमें बाढ़ की देन नहीं है।’

दो बीघा जमीन और परिवार भर की गुजर। बिसेसर को कभी अनाज नहीं खरीदना होता। हर साल बाढ़ आती है और कुछ नई, कुंआरी मिट्टी खेतों में डाल जाती है। वह नई कुंआरी मिट्टी-न्यूनी-सी चिकनी, सोने की रंग वाली। ज्योंही उसमें धान रोपिए, देखते ही देखते वह छाती भर बढ़ जाएगा! आसिन में भी रोपिए, और अगहन में कट्ठे मन काट लीजिए! और उसी धान में कातिक में राई-सरसों छींट दीजिए, तो माघ में फिर सरसों की वसंती बहार देखिए-सारा सरेह सरसों का समुद्र-सा लगता है!

मेड़ ऊंची करो, कुदाल मजबूती से पकड़ो, समय पर खेती करो, बाढ़ आती है तो आने दो! लगा, जैसे प्रयाग सहनी आज भी बिसेसर को उपदेश नहीं, आदेश दे रहे हों!

और सचमुच बाढ़ आ गई!
किंतु इस साल की बाढ़ को क्या सिर्फ बाढ़ कहा जा सकता है?

बिसेसर अपने जाल की मरम्मत में लगा रहा। उसने सोचा था, वही पुराना क्रम-नाले में पानी आएगा, फिर खेतों और खड्डों में, तब उसकी बारी आएगी, वह जाल लेकर चलेगा और बात-बात में कितनी ही बड़ी-मड़ी मछलियां पकड़ लाएगा।

सुकिया उसे चेतावनी देकर आंगन चली गई-बाढ़ आ रही है, तो मछली आएगी ही, वह पहले से ही मसाला पीसने लगी है!

कि अचानक हाहाकार सुनाई दिया।
यह बाढ़ नहीं आई, जैसे जंगल का बाघ आया- उछलता-कूदता, गरजता, तरजता। लोगों ने अलग से देखा तीन हाथ ऊंची पानी की दीवार जैसे दौड़ती हुई चली आ रही हो- खेतों को, खड्ढों को, मेड़ों को, बांधों को डुबोती, पाटती, तोड़ती!

लोग भागे! हलवाहे हल-बैल लेकर भागे, चरवाहे गाय-भेड़ लेकर भागे। जो जहां था, सिर पर पैर रखकर भागा। किंतु वह गाड़ीवान क्या करे? उसने बैल के पुट्ठों पर चाबुक लगाना शुरू किया, किंतु गाड़ी के साथ बैल कहां तक दौड़े! पानी का एक जबरदस्त हिलकोरा आया और वह लीजिए, बैलों की जोड़ी भंसी जा रही है, गाड़ी भंसी जा रही है और उस पर बैठा वह गाड़ीवान चीख रहा है ‘बचाओ हो… मरे रे!’

भेड़ों का वह बड़ा रेबड़। बेचारा गड़रिया खदेड़े जा रहा है। किंतु कहां भेड़ों के पैर, कहां इस बाढ़ का झपट्टा! जब अपनी जान पर आई, गड़रिया भागा; भेड़ों का एक झुंड पानी में भंसा जा रहा है-में की कैसी करुण पुकार!

किंतु इन चीख-पुकारों पर कौन ध्यान दे? पानी गांव में घुस गया, अब घरों में घुस रहा है। पहले सारा गांव टापू लगता था, अब हर घर टापू लग रहा है।

बिसेसर दरवाजे की चीजों को सहेज रहा था। ढोरों को सम्हालता था, चारे को सम्हालता था, ईंधन को सम्हालता था। नाव को सम्हालता था, जाल को सम्हालता था, कुदाल को सम्हालता था, पतवार को सम्हालता था और एक को सम्हालता होता कि दूसरे को संकट में देखता।

उधर आंगन में सुकिया परेशान है, अंत में वह चिल्ला उठी, ‘पानी चूल्हे तक चढ़ आया; दौड़ों हो।’

बिसेसर कहां-कहां दौड़े, क्या-क्या बचाए? पानी बढ़ता गया, बढ़ता गया। बाहर की सारी चीजें भीग गईं, भीतर की भीग रही हैं-कपड़े और अन्न तक को नहीं बचा सका वह। अंत में तो ऐसा लगा कि उसकी यह झोंपड़ी भी कहीं बह न जाए। जो कुछ संभव हुआ, लेकर वह पहुंचा गांव के नुनफर पर।

.गांव का यह नुनफर आज गांव का गोवर्धन बन गया है। बाल-बच्चे, माल गोरू, अन्न-धन, चारा-ईंधन लेकर लोगों ने इस नुनफर की शरण ली है!

‘अरे, कलछी तो घर में ही छूट गई!’

सुकिया की बात सुनकर बिसेसर झल्लाया। ये औरतें- इन्हें संकट भी अकल नहीं दे सकता लेकिन, कलछी के बिना रसोई कैसे बनेगी। छाती भर पानी हेल कर वह अपने आंगन में पहुंचा। ज्यों ही घर में घुसना चाहा, एक विशाल नाग फुफकार उठा!

हां, इस साल बाढ़ में पानी ही नहीं आया-सांप-बिच्छू की भरमार है। इतने किस्म के सांप भी लोगों ने कहां देखे थे! एक विशाल अजगर अभी भंसता जा रहा था। बेचारा अधमुआ हो गया था। किंतु यह नाग! गेहुंअन है, कैसा फन काढ़ रहा है!

बिसेसर भागा।
बाढ़ के प्रवाह में नाना प्रकार के जंतु बहे जा रहे हैं- घरेलू जानवर और जंगली जानवर भी। वह एक ऐसा बहा जा रहा है - किस तरह कें-कें करता और अगले पैर पटकता जाता है। सियार, हुड़ार, लकड़बग्घे भी देखे गए। एक घर में तो बाघ छिपा बैठा था; न जाने कैसे बह कर आया और घर में घुस गया! जब घर का मालिक भीतर घुसा, वह गुर्राया। गांव में शोर मचा, बेचारे को कुत्ते की मौत नसीब हुई!

जहां पहले हाहाकार था, वहां वह चीत्कार है, आर्तनाद है। लेकिन रोने-धोने से होता है क्या, लोग धीरे-धीरे शांत हो रहे हैं।

प्रयाग सहनी कहा करते थे, जो बाढ़ जितनी तेजी से आती है, वह उसी तेजी से भागती भी है! दूसरे ही दिन से पानी घटने लगा था, तो भी गांव से निकलते-निकलते तो सात दिन लग ही गए।

उफ, इन सात दिनों में गांव की कैसी दुर्गत हो गई है।

लगता है, गांव में किसी ने बमबारी की हो। ज्यों ही पानी घटने लगा, कच्ची मिट्टी की दीवारें, जो भीग गई थीं, धड़ाधड़ गिरने लगीं। चारों ओर ढूह ही ढूह, मलबे ही मलबे दिखाई पड़ते हैं।

गांव में दुर्गंध फैल रही है। अन्न की सड़ांध, चारे की सड़ाध, ईंधन की सड़ांध, गोबर की सड़ांध, मल-मूत्र की सड़ांध-उफ, लगता है, जैसे नाक फट रही हो। सारी चीजें सड़ गईं, उनकी दुर्गंध में मनुष्य ने अपनी दुर्गंध मिला दी। वह करे क्या, बाढ़ में बाहर जाए कहां?

खेतों में नई मिट्टी कहां तक पड़ेगी। जो मिट्टी थी, जल का प्रवाह उसे भी खोद कर ले गया, गड्ढे तक बना दिए। मेड़ों का तो कहीं पता नहीं है। किसी-किसी खेत में बालू् का अंबार लगा है।

खेत की फसल गई, घर के अन्न भी सड़ गए-अगले दिन कैसे कटेंगे, सारे गांव में मायूसी है। सुकिया उदास है, बिसेसर की आंखों में नींद नहीं आ रही है! बाढ़ आती थी, जाती थी, यह क्या बाढ़ आई थी? नहीं.-नहीं…

नहीं-नहीं… बिसेसर इस तरह बैठा-बैठा झींखता नहीं रहे। उसके दादा कहा करते थे, बेटा, जो मालिक लेता है, वहीं देता है, बशर्ते कि आदमी जांगर चलावे!

बिसेसर जांगर चलाएगा, हाथ-पैर से काम लेगा, ये पुट्ठे किस काम के यदि ये संकट में काम नहीं आए।

बिसेसर ने कुदाल उठाई। घर में, दरवाजे पर जहां-जहां कीचड़ जम गई थी, साफ कर दिया। फिर उसी कुदाल से सारी सड़ी-गली चीजों को बटोरकर एक खड्डे में डाल दिया-खाद भी बनेगी यह! जहां-जहां गंदगी थी, उसकी कुदाल वहां-वहां पहुंची! दो दिन में ही उसके घर बार फिर चमकने लगे।

सुकिया ने इस काम में कम मदद नहीं की।

फिर बिसेसर कुदाल उठाकर अपने खेत में पहुंचा। मेड़ों को दुरुस्त किया, खड्डों को भरा। वह खेत में फिर धान रोपेगा, जांगर नहीं चलाएगा, तो गुजर कैसे होगी?

दिन-भर वह कुदाल चलाता है और रात में जाल उठाता है और चल पड़ता है चौर में मछली मारने। अजीब रही इस साल की बाढ़, लगता है, सारी मछलियों को भी वह बटोर कर ले गई है लेकिन बिसेसर हार नहीं मानेगा!

पतवार चलाते-चलाते और जाल फेंकते-फेंकते उसके पुट्ठे इस्पात के हो गए हैं, उनका उपयोग तो ऐसे ही समय सिद्ध होता है। जब वह भोर में चौर से लौटता है, कुछ छोटी-बड़ी मछलियाँ उसकी डेली में अवश्य उछलती होती हैं!

दिन भर खेत में, रात भर चौर में - बिसेसर ने इस दानवी बाढ़ की चुनौती स्वीकार कर ली है।

एक दिन सुकिया ने कहा, ‘रिलीफ आई है, चावल बांट रहे हैं, कपड़े बंट रहे हैं। ’

‘फिर रिलीफ आई है! भूकंप के साल भी आई थी! रिलीफ का क्या मानी होती है, तू समझती है।’

‘मैं क्या जानूं, गांव के कई लोग रिलीफ लेने गए हैं।’

‘जो जाते हैं, जाने दे! रिलीफ मानी भीख। दादा ने मरते समय कहा था, बेटा, भूखों मर जाना, भीख मत मांगना। लोगों को भीख मांगने दे, तू कुदाल और जाल-पतवार की खैर मना।’

बोरे के बोरे चावल, गड्डी के गड्डी नोट बंट रहे हैं लेकिन बिसेसर अचल, अडिग अपने काम में जुटा है।

‘अब पानी कम हो रहा है; अपनी हंसली दे, बंधक रखकर कुछ पैसे ले आऊं और बीज खरीदकर धान रोप दूं।’

सुकिया कुछ उज्र कर सकती थी? उसने हंसकर हंसुली उतार दी। हंसुली हाथ में रखते ही बिसेसर की आंखें छलछला आईं-यह पहली बार है जब उसे बीवी का गहना बंधक रखना पड़ रहा है! लेकिन वह तुरंत सम्हला और हंस कर बोला, ‘भगवान मालिक हैं सुक्को रानी, फसल आएगी और हंसुली के साथ सूद में करनफूल भी लाएगी!’

यहां से बीस मील पर बीज मिलता है। दूसरे दिन थोड़ी रात रहते बिसेसर यहां से चला और आधी रात को नाव पर बीज लाद कर पहुंचा।

बाढ़ का बेटाआज भोर से ही वह खेत में धान रोप रहा है! उसकी बगल में सुकिया है। सुकिया यों तो घर-आंगन के ही काम में लगी रहती थी लेकिन बाढ़ के पानी का क्या भरोसा? और खेत सूख गया, तो फिर धान में हरियारी आने में ही पखवाड़ा लग जाएगा। अतः वह भी जुटी है, डटी है।

हरे-हरे धान के बीज जमीन पाते ही जैसे सिर उठाने लगते हों। बिसेसर खेत रोप रहा है और उसके रोम-रोम पुलकित हो रहे हैं।

बाढ़ आती है, बाढ़ जाती है। समय पर यदि खेती हो गई, तो सारी क्षतिपूर्ति हो जाती है।

उसकी आंखों में वह दृश्य नाच रहा है, जब ये बीज लहलहा उगेंगे, बढ़ने लगेंगे, फैलने लगेंगे। कातिक में छाती भर धान आ जाएगा और माघ आते ही इन खेतों में सरसों का पीला समुद्र लहराने लगेगा।

उसी समय आकाश में एक हवाई जहाज जा रहा था - इधर बाढ़ क्या आई, हवाई जहाज की भरमार हुई। नेता जा रहे हैं, अफसर आ रहे हैं, इंजीनियर आ रहे हैं। सभी देखते-फिरते हैं, इस प्रलय-कांड से लोगों को त्राण कैसे मिले! सुकिया का ध्यान ऊपर गया। वह बोली, ‘वह हवाई जहाज जा रहा है।’

बिसेसर अपनी उंगलियों से बीजों को छिटकाते और रोपते हुए बोला, ‘हवा में मत देख, हमारा काम जमीन देखना है, हम जमीन देखें। वे अपना काम कर रहे हैं, हम अपना काम करें।’

और सचमुच उसकी नजर ऊपर नहीं गई। वह उसी लगन से, तल्लीनता से अपना खेत रोपता रहा, रोपता रहा!

रामवृक्ष बेनीपुरी
जन्म 1899
निधन 1968
साहित्यकार, स्वतंत्रता सेनानी, पत्रकार। ‘माटी की मूरतें’ सरीखी प्रसिद्ध संस्मरण पुस्तक के अलावा संस्मरणों के नौ संग्रह, 12 नाटक, दो आलोचना पुस्तकें, जय प्रकाश नारायण की बहुचर्चित जीवनी। आठ खंडों में बेनीपुरी समग्र प्रकाशित।


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