बाढ़ से निपटने के लिये तैयार (Flood-ready)

17 Jul 2017
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अनुवाद - संजय तिवारी

जिबोन पेयांग पैंतालीस साल के हैं। जब उनसे पूछा जाता है कि बाढ़ से कैसे निपटेंगे तो जवाब देने के लिये उनके मन में कोई निराशा नहीं होती। वो बहुत आत्मविश्वास से जवाब देते हैं कि बाढ़ से बचने के लिये क्या-क्या करना है। उनका पूरा परिवार बाढ़ से निपटने के लिये तैयार है। जब हमने उनसे पूछा कि ये बातें किसने बताई तो वो बहुत गर्व से बताते हैं, ‘मेरे बेटे केशव ने।’

उत्तर आसाम के धेमाजी जिले में दिहरी गाँव के रहने वाले पेयांग के गाँव में पहले बाढ़ नहीं आती थी। लेकिन अब बीते कुछ सालों से बाढ़ का पानी उनके गाँव को भी घेरने लगा है। साल में दो से तीन बार उनका गाँव बाढ़ के पानी से घिर जाता है और लगातार बाढ़ का पानी घटने की बजाय बढ़ता जा रहा है।

गुवाहाटी के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से जुड़े पीएचडी स्कॉलर ललित सैकिया बताते हैं “जलवायु परिवर्तन का असर साफ दिख रहा है। बारिश का तंत्र बुरी तरह बिगड़ गया है। इसके कारण बाढ़ का खतरा बढ़ता जा रहा है।” वो कहते हैं कि अब इस क्षेत्र में कभी भी बाढ़ आ जाती है। न तो बारिश की भविष्यवाणी की जा सकती है और न ही बाढ़ की। उनका कहना है कि दुर्भाग्य से अभी इस बारे में कोई खास अध्ययन भी नहीं हो रहा है।

बच्चों के हाथ में बाढ़ की कमान


जीबोन पेयांग के बेटेे की तरह ही लखीमपुर और धेमाजी जिले के हजारों बच्चे बाढ़ से निपटने की शिक्षा ले रहे हैं कि जब बाढ़ आये तो उन्हें कैसे उससे पार पाना है। स्कूलों में शिशु दुर्योग प्रतिरोध समिति की तरफ से जानकारी देने का कार्यक्रम चलाया जाता है और बच्चों को बाढ़ से निपटने का प्रशिक्षण दिया जाता है। शिशु दुर्योग प्रतिरोध समिति बच्चों को सिखाती है कि आपदा की स्थिति में वे क्या करें और क्या न करें।

दीपेन पेगू का बेटा भुवन भी बाढ़ से निपटने की कला सीख चुका है और अब पूरा परिवार उसकी इस शिक्षा से खुश है। दीपेन कहते हैं कि पहले भी बाढ़ आती थी और वो लोग बाढ़ से निपटने की तैयारी रखते थे लेकिन अब तो कुछ पता नहीं कब बाढ़ आ जाए। ऐसे में बेटे को जो कुछ सिखाया गया है वह सब हमारे काम का है।

उत्तर पूर्व में असम का यह हिमालय क्षेत्र मूल रूप से कृषि अर्थव्यवस्था पर निर्भर है। लेकिन सदियों से जारी बाढ़ की निरंतर तबाही के कारण यहाँ कृषि योग्य जमीन का बहुत नुकसान हुआ है। इसका परिणाम ये हुआ है कि अच्छे भले किसान भी अपनी जोत का बड़ा हिस्सा गँवा चुके हैं। लगातार होने वाला विस्थापन, पीने के पानी की समस्या शिक्षा और स्वास्थ्य का संकट यहाँ बाढ़ की ही देन है। इसके साथ ही परंपरागत खेती को भी बाढ़ के कारण बड़ा नुकसान होता है। बाढ़ से निपटने के लिये परंपरागत उपायों की उपेक्षा ने परिस्थितियों को और मुश्किल बना दिया। ऐसे में शिशु दुर्योग प्रतिरोध समिति की पहल का हर तरफ स्वागत हुआ।

धेमाजी में सामाजिक मुद्दों पर काम करने वाले केशव कृष्ण छात्रधारा बताते हैं कि नदी घाटियों का विनाश, प्रकृति का नुकसान होने की वजह से ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन का खतरा बढ़ रहा है। हमें कभी उम्मीद नहीं थी कि साल में तीन-तीन बार बाढ़ आयेगी। लेकिन अब आती है। ये ऐसे खतरे हैं जिससे हमें ही निपटना है। ऐसे में शिशु दुर्योग प्रतिरोध समिति की शिक्षा और प्रयास हमारे लिये बहुत महत्त्व का है।

क्या है शिशु दुर्योग प्रतिरोध कार्यक्रम?


शिशु दुर्योग प्रतिरोध समिति का गठन 2003 में धेमाजी जिले में ही सक्रिय रूरल वालियेन्टरी सेन्टर ने किया था। कुछ गाँव के स्कूलों में सेन्टर ने बच्चों को बाढ़ से निपटने के उपायों के बारे में सिखाना शुरू किया। 2006 में यह एक पूर्ण पाठ्यक्रम बन गया और आज लखीमपुर और धेमाजी जिले के 90 स्कूलों में चलाया जाता है। इस कार्यक्रम में शिक्षकों की अहम भूमिका होती है और सेन्टर की योजना है कि इसे स्थानीय विस्तार देने के साथ-साथ जोरहाट जिले के माजुली द्वीप पर भी चलाया जाए जो कि एक बाढ़ प्रभावित क्षेत्र है।

शिशु दुर्योग प्रतिरोध समिति द्वारा संचालित पाठ्यक्रम में बच्चों को निम्नलिखित बातें सिखाई जाती हैं।

क) परंपरागत ज्ञान के तरीके जिसके जरिए अब तक समाज बाढ़ से निपटता आया है।
ख) घायल और बीमार लोगों की देखभाल
ग) व्यक्ति के पेट से पानी कैसे निकालें
घ) स्थानीय संसाधनों से लाइफ जैकेट का निर्माण
च) छोटी मोटी बीमारियों का इलाज कैसे करें, आदि।

स्कूलों में इस पाठ्यक्रम को सिखाने वाले अध्यापकों का कहना है कि शुरूआत में तो बच्चों के अभिभावकों को ही समझाना मुश्किल था। इसके लिये उन्हें हर एक अभिभावक से अलग-अलग बात करनी पड़ती थी कि यह पाठ्यक्रम बच्चों के लिये कितना जरूरी है। इसके बाद अभिभावकों ने अपने बच्चों को इस पाठ्यक्रम को सीखने की इजाजत देना शुरू कर दिया।

एक बार शिशु दुर्युोग प्रतिरोध समिति का गठन हो जाए तो चार तरह के टास्क फोर्स में बच्चों को बाँट दिया जाता है। इसमें शुरूआती सूचना देनेवाला टास्क फोर्स, राहत एवं बचाव करने वाला टास्क फोर्स, कैम्प मैनेजमेंट टास्क फोर्स और स्वास्थ्य टास्क फोर्स प्रमुख होता है। हर टास्क फोर्स में छह सदस्य होते हैं। तीन लड़के। तीन लड़कियाँ। हर बच्चे को अपना रोल पता होता है कि आपदा की स्थिति में उसे क्या करना है।

इसके बाद सरकारी एजेंसियों को भी इस शिक्षा कार्यक्रम में शामिल किया जाता है। टास्क फोर्स के बच्चों को रीजनल वाल्युन्टरी सेन्टर के विशेषज्ञों द्वारा ट्रेनिंग दी जाती है। इसके बाद डिजास्टर मैनेजमेन्ट से जुड़े सरकारी विभाग के अधिकारी इन बच्चों को ट्रेनिंग देते हैं। सारी ट्रेनिंग होने के बाद स्कूल में ही मॉक ड्रिल भी चलाया जाता है ताकि आपदा की स्थिति में बच्चे अपनी भूमिका का निर्वहन कर सकें।

कार्यक्रम का सामाजिक प्रभाव


शिशु दुर्योग प्रतिरोध समिति का हालाँकि अभी तक पूरी तरह प्रभाव होना बाकी है फिर भी इसके सुखद परिणाम सामने आने लगे हैं। सबसे पहला प्रभाव तो यही दिख रहा है कि ऊपरी ब्रह्मपुत्र बेसिन में अब आपदा बचाव के लिये स्कूली बच्चे समाज और गैर सरकारी संगठनों के बीच एक कड़ी बन गये हैं। इसके साथ ही आदिवासी संगठन भी इसमें शामिल हो गये हैं।

जोहन डोले पहले शिशु दुर्योग समिति के छात्र नेता रह चुके हैं। वे बताते हैं कि “जब यह कार्यक्रम शुरू हुआ था तभी मैने इसकी ट्रेनिंग ले ली थी। यह निश्चित रूप से आपदा के समय लोगों की मदद करता है। हम लोगों को बचाने के लिये अपना बेहतर से बेहतर प्रयास करते हैं।” आरवीसी के अधिकारी कहते हैं इस कार्यक्रम के कारण स्थानीय लोगों की बोली समझने में मदद मिलती है और हमें काम करने में आसानी होती है। रूरल वाल्येन्टरी सेन्टर के निदेशक लुइट गोस्वामी बताते हैं कि अगर स्थानीय समाज से कोई व्यक्ति आपके साथ जुड़ जाता है तो स्थानीय लोगों का भरोसा जीतने में बहुत मदद मिलती है। इसके बाद स्थानीय लोग आपका साथ देना शुरू कर देते हैं।

इस शिशु दुर्योग प्रतिरोध समिति के काम से स्थानीय स्कूल भी प्रभावित हुए हैं और उन्होंने सरकार को प्रस्ताव भेजा है कि अब स्कूल ऊँची नीव पर बनाये जाएँ ताकि बाढ़ के दौरान स्कूल और स्कूली बच्चों, दोनों की सुरक्षा हो सके। इसी के साथ अब स्कूल आपदा के समय सुरक्षित निकास के लिये मास्टर प्लान भी बना रहे हैं।

धेमाजी और लखीमपुर ऊपरी ब्रह्मपुत्र बेसिन में बसे हैं जहाँ बाढ़ आना अवश्यंभावी है। इसका कारण ये है कि ये जिले हिमालय की तराई में पड़ते हैं। हर साल लाखों लोग इस बाढ़ की चपेट में आते हैं जिसमें बच्चों पर सबसे बुरा असर पड़ता है। ऐसे में शिशु दुर्योग प्रतिरोध समिति ने बच्चों को ही प्रशिक्षित करके बाढ़ के प्रभाव को कम से कमतर करने का अहम प्रयास किया है।


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