बाधाओं बीच अविरल नर्मदा

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‘सौंदर्य की नदी’ नर्मदा नित नए संकटों से घिरने के बावजूद अपनी अविरलता, अपनी जीवंतता छोड़ने को तैयार नहीं है। मगर विकास की आधुनिक समझ अपनी जिद पर अड़ी है। बड़े बाँधों के खिलाफ जन संघर्षों का पर्याय रही नर्मदा आज कई खतरों से जूझ रही है। इनमें से कुछ खतरे जाने-पहचाने हैं तो कुछ एकदम नए। नर्मदा के इन्हीं संघर्षों की पड़ताल करती अजीत सिंह और सुष्मिता सेनगुप्ता की रिपोर्ट -

नर्मदा को रेवा भी कहते हैं। यानी उछल-कूदकर आगे बढ़ने वाली नदी। लेकिन आजादी के बाद से ही नर्मदा घाटी में उपलब्ध जल दोहन के प्रयास तेज हो गए थे। नतीजतन नर्मदा और इसकी सहायक नदियों पर बाँध बनाकर सिंचाई व जलविद्युत परियोजनाओं के अंधाधुंध निर्माण का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह आज तक जारी है। सन 1979 में नर्मदा जल विवाद न्यायाधिकरण ने नर्मदा में उपयोग योग्य जल की मात्रा 34.54 अरब घन मीटर मानते हुए मध्यप्रदेश को 65.16 फीसदी, गुजरात को 32.14 फीसदी, राजस्थान को 1.78 फीसदी और महाराष्ट्र को 0.89 फीसदी पानी के इस्तेमाल का हक दिया था। भू-वैज्ञानिक और पौराणिक दृष्टि से देश की प्राचीनतम नदियों में से एक नर्मदा मध्य भारत की जीवन रेखा सरीखी है। युगों-युगों से यह जीवन और संस्कृतियों को सींचती रही है। मध्यप्रदेश के जबलपुर से नर्मदा अंचल में प्रवेश करते ही हमें दो बातें बार-बार सुनने को मिलीं। पहली बात यह कि नर्मदा ऐसी अनूठी नदी है, जिसकी ‘परिकम्मा’ होती है। सैकड़ों वर्षों से श्रद्धालु नर्मदा की करीब 2600 किलोमीटर की परिक्रमा करते हैं। यह यात्रा एक संकल्प है, नदी और प्रकृति से आत्मीयता रखने बनाए रखने का। नर्मदा के विषय में दूसरी बात यह अक्सर सुनने को मिलती है कि यह देश की सबसे साफ-सुथरी नदी है। गंगा-यमुना जैसी मैली नहीं है।

एक तीसरी बात भी है। जिसका दर्द लोगों की जुबान पर जरूर आता है। ‘नर्मदा सौंदर्य की संवाददाता’ अमृतलाल वेगड़ के शब्दों में

“मेरी नर्मदा अब नहीं रही...पहली परिक्रमा (1977) के दौरान नर्मदा वैसी ही थी, जैसी वह सैकड़ों साल पहले थी। मगर अब नर्मदा वैसी नहीं रही। वह झीलों को जोड़ने वाली कड़ी बनकर रह गई। झील में प्रवाह नहीं होता। वह तो ठहरा हुआ पानी है। और नदी का मूल तत्व है प्रवाह, गति।”



दरअसल, श्रद्धालुओं के साथ-साथ कई संकट भी नर्मदा की परिक्रमा करते रहे हैं। इनमें से कई संकट सरदार सरोवर बाँध जैसे विशालकाय हैं तो कई आँखों से नजर भी न आने वाले प्रदूषकों जितने सूक्ष्म। जबलपुर में ग्वारीघाट से ही हमारा नर्मदा के इन संकटों से साक्षात्कार होने लगा। हमें नर्मदा की सैर कराते हुए नाविक मनोहर बर्मन किनारे से ज्यों ही आगे बढ़ा, नदी में तैरती हरी घास को देखकर मुँह पिचकाने लगा।

“साहब ये घास बड़ी खतरनाक है। इसे अजोला कहते हैं। कई लोग इसमें फँसकर डूब चुके हैं। इससे बचना पड़ता है।”

यह बताते-बताते उसने पूरी ताकत से नाव का रुख पानी में तैर रही उस हरी वनस्पति से दूर मोड़ लिया। फरवरी से मार्च के दौरान नर्मदा में खूब फैलने वाली यह वनस्पति ‘अजोल टेरीडोफाइटा’ ग्रुप का एक जलीय खरपतवार है। इसकी मौजूदगी जल के दूषित होने का संकेत है। यह पानी में ऑक्सीजन की मात्रा को भी कम कर देता है, जो जलीय जैव-विविधता के लिये नुकसानदेह है।

पिछले दो दशकों से नर्मदा को प्रदूषणमुक्त बनाने के लिये कानूनी लड़ाई लड़ रहे जबलपुर निवासी पीजी नाजपांडे बताते हैं कि शहर के आस-पास डेयरियों का गोबर परियट और हिरन जैसी सहायक नदियों से होते हुए नर्मदा में पहुँचता है। इसी की वजह से नर्मदा में खरपतवार फैलती है। हालत यह है कि सर्दियोंमें जबलपुर से लेकर ओंकारेश्वर तक नर्मदा का पानी हरा-भरा दिखाई देता है। नाजपांडे के मुताबिक, नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने मध्यप्रदेश प्रदूषण नियंत्रण मंडल (पीसीबी) से इस बारे में रिपोर्ट तलब की है।

संकटों का उद्गम

“नमामि देवि नर्मदे - नर्मदा सेवा यात्रा”

की शुरुआत की थी। इस मौके पर जलपुरुष राजेंद्र सिंह ने नर्मदा के देश की दूषित नदियों में शुमार होने की आशंका जताते हुए उद्गम में ही घटते जलप्रवाह पर चिंता जताई थी। राजेंद्र सिंह के मुताबिक, अमरकंटक में कुछ प्रभावशाली लोग नियम-कायदों की जिस तरह धज्जियाँ उड़ा रहे हैं, सरकार इससे कैसे निपटेगी? यह बड़ा सवाल है।

प्रदूषण की आँख-मिचौली

अतीत का आइना


नर्मदा घाटी में मिल रहे जीवाश्म अतीत के नित नए रहस्य खोल रहे हैं। यहाँ करीब 8 करोड़ साल पहले डायनासोर (सॉरोपोड) के अंडों के जीवाश्म और आदिम कृषि के प्रमाण भी। प्राचीन जीवन के प्रमाण पत्थर हो चुके हैं लेकिन नर्मदा जीवंत है। मानव के उत्थान और पतन की गवाह बनती हुई बहती रहती है।


नर्मदा देश की पाँचवीं सबसे लम्बी और पूरब से पश्चिम को बहने वाली देश की सबसे बड़ी नदी है। इसका उद्गम मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की सीमा पर सतपुड़ा और विंध्य पर्वतमालाओं को जोड़ने वाली मैकल पर्वत श्रेणी के अमरकंटक नामक स्थान से होता है। मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात में कुल 1312 किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद नर्मदा खम्भात की खाड़ी में मिलती है।


इस दौरान नर्मदा मुड़ती-उमड़ती, कहीं मैदानी तो कहीं पहाड़ी रास्तों से गुजरती हुई 1079 किमी की यात्रा मध्यप्रदेश में पूरी करती है। इसके बाद मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र की सीमा पर 35 किमी और गुजरात व महाराष्ट्र की सीमा पर 9 किमी का सफर पूरा करती है। आखिरी में 159 किमी यह गुजरात में बहकर अरब सागर की खम्भात की खाड़ी में मिलती है।


नर्मदा बेसिन का कुल जलग्रहण क्षेत्र 98,796 वर्ग किलोमीटर है। इसका करीब 86 फीसदी क्षेत्र मध्यप्रदेश, 11 फीसदी गुजरात, 2 फीसदी महाराष्ट्र और करीब एक फीसदी छत्तीसगढ़ में आता है। यह जिस विभ्रंश घाटी से होकर बहती है, उसमें पाई जाने वाली चट्टानें विश्व के प्राचीनतम शैल समूहों में से हैं, जिनकी उत्पत्ति प्री कैम्ब्रियन (460-57 करोड़ वर्ष पूर्व) या उससे भी पहले हुई थी।


भू-वैज्ञानिकों का मानना है कि जहाँ आज नर्मदा घाटी है, लगभग 150 करोड़ वर्ष पूर्व वहाँ अरब सागर का एक हिस्सा संकरी धारा के रूप में लहराता था। इस घाटी में करोड़ों साल पुराने जीव-जंतुओं और वनस्पतियों के जीवाश्म के अलावा प्राचीन मानव कपाल के अवशेष भी मिले हैं, जिसे ‘नर्मदा मानव’ या ‘इरेक्टस नर्मदेन्सिस’ कहा जाता है। पुरातत्व के लिहाज से यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण खोज थी।


वैज्ञानिकों का अनुमान है कि आज से करीब छह करोड़ वर्ष पूर्व भूगर्भीय हलचलों की वजह भी गर्म लावा ज्वालामुखी के जरिये बाहर निकला और धरती की सतह पर फैल गया। इस लावे में दबी वनस्पति और जानवरों के अवशेष ही आज जीवाश्म के रूप में सामने आ रहे हैं।

जबलपुर में नर्मदा को दूषित करने में शहर के आस-पास स्थापित डेयरियों का भी बड़ा हाथ है। जबलपुर के आस-पास करीब 100-150 डेयरियाँ है, जहाँ से निकलने वाला मवेशियों का मलमूत्र नर्मदा की सहायक नदियों - परियट और गौर में गिरता है। इस मामले को लेकर सन 1996 में जबलपुर हाईकोर्ट में याचिका दायर करने वाले पीजी नाजपांडे का कहना है कि हाईकोर्ट और एनजीटी के सख्त आदेशों के बावजूद डेयरियों के गंदे पानी को नदियों में गिरने से रोकने के पुख्ता इंतजाम नहीं किए गए हैं। यही कारण है कि परियट और गौर नदियाँ गोबर के नालों से तब्दील हो चुकी हैं। पीसीबी नोटिस जारी कर डेयरी संचालकों को ट्रीटमेंट प्लांट लगाने के निर्देश दे चुका है। लेकिन इन निर्देशों का सख्ती से पालन नहीं हो पाया।

नर्मदा को प्रदूषण से बचाने को लेकर बढ़ती चिंताओं के बीच पीसीबी ने गत दिसम्बर में एक रिपोर्ट जारी कर बताया कि विभिन्न मॉनीटरिंग स्टेशनों पर नर्मदा जल की गुणवत्ता संतोषजनक पाई गई है। इस रिपोर्ट के आधार पर नर्मदा के जल को पीने के लिये सुरक्षित बताया जा रहा है। हालांकि, पर्यावरण संरक्षण से जुड़े नाजपांडे जैसे लोग पीसीबी की जाँच के तरीके पर सवाल उठा रहे हैं। उनका कहना है कि नदी जल के नमूने किनारों के बजाय नदी की धारा के बीच से लिये गए। इस मामले पर उन्होंने एनजीटी में याचिका भी दायर की है। उधर, पीसीबी के अधिकारियों का कहना है कि पानी के नमूने तय प्रक्रिया के आधार पर ही लिये गये हैं। वैसे देखने से भी नजर आता है कि नर्मदा गंगा, यमुना की तरह अत्यधिक मैली नहीं है। लेकिन इस निर्मलता को बचाए रखना एक बड़ी चुनौती है।

भोपाल स्थित ‘मौलाना आजाद नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी’ में अनुप्रयुक्त रसायन विभाग की सविता दीक्षित का भी कहना है कि वर्ष 2007 के बाद से नर्मदा के जल की गुणवत्ता में सुधार हुआ है। उन्होंने होशांगाबाद में 2007 में नर्मदा जल की गुणवत्ता का परीक्षण किया था। उनके शोध के अनुसार, नर्मदा की ऊपरी धारा के मुकाबले निचली धारा में नाइट्रेट की मात्रा अधिक पाई गई। इससे भी नर्मदा में घरेलू सीवर और उद्योगों की गंदगी पहुँचने का संकेत मिलता है।

मध्यप्रदेश प्रदूषण नियंत्रण मंडल भले ही नर्मदा को बेहद साफ-सुथरी बताये, लेकिन वर्ष 2015 की 'केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड' की रिपोर्ट एक अलग तस्वीर पेश करती है। इस रिपोर्ट के मुताबिक, मध्यप्रदेश में मंडला से भेड़ाघाट के बीच 160 किलोमीटर, सेठानी घाट से नेमावर के बीच 80 किलोमीटर और गुजरात में गरुडेश्वर से भरूच के बीच नर्मदा प्रदूषित है।

(मानचित्र देखें)मध्यप्रदेश के जो शहर नर्मदा को दूषित कर रहे हैं, उनमें जबलपुर, होशंगाबाद और नेमावर प्रमुख हैं। इन शहरों से गुजरते हुए नर्मदा में बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमांड (बीओडी) की अधिकतम मात्रा 3.3 से 7.9 मिलीग्राम प्रति लीटर है, जो 3 से अधिक नहीं होनी चाहिए। गुजरात के बोलव, गरुडेश्वर और भरूच में तो बीओडी की अधिकतम मात्रा 5 मिलीग्राम प्रति लीटर तक पाई गई है। सीपीसीबी का यह अध्ययन वर्ष 2009 से 2012 के आँकड़ों पर आधारित है। हैरानी की बात है कि सिर्फ दो-तीन साल के अंदर नर्मदा इस दूषित स्थिति से स्वच्छ नदी में तब्दील हो गई।

पीसीबी के अधिशासी अभियंता एचएस मालवीय नर्मदा जल की गुणवत्ता में आए सुधार को सरकारी प्रयासों का नतीजा बताते हैं। इन प्रयासों के तहत होशंगाबाद और जबलपुर जैसे शहरों में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट बनवाने, गंदे नालों को डायवर्ट करने, अमरकंटक में फिल्ट्रेशन प्लांट और डिंडोरी में सीवर लाइन बिछाने और नर्मदा को दूषित करने वाली नगरपालिकाओं और फैक्ट्रियों के खिलाफ कार्रवाई करने जैसे उपाय शामिल हैं। मालवीय बताते हैं कि होशंगाबाद के कोरीघाट पर नर्मदा में गिरने वाले नाले को डायवर्ट कर सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट की ओर मोड़ दिया गया है। यह नाला होशंगाबाद शहर में नर्मदा के प्रदूषण का प्रमुख कारण था। नदियों को साफ-सुथरा रखने के लिये व्यापक जागरूकता अभियान चलाए जा रहे हैं। साथ ही अमरकंटक, डिंडोरी, भेड़ाघाट, जबलपुर, ओंकारेश्वर, मंडलेश्वर, महेश्वर की औद्योगिक इकाइयों के खिलाफ (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम 1974 के तहत कार्रवाई की गई है। मालवीय मानते हैं कि नर्मदा यात्रा से इन प्रयासों को बल मिलेगा।

हालांकि, नर्मदा से जुड़े मुद्दों पर सक्रिय होशंगाबाद के सामाजिक कार्यकर्ता योगेश दीवान पीसीबी के दावों को खारिज करते हुए कहते हैं कि आज भी सिक्योरिटी पेपर मिल का दूषित पानी सीधे नर्मदा में पहुँचता है। जब सरकारी फैक्ट्रियाँ ही नर्मदा को मैला करेंगी तो निजी उद्योगों से क्या उम्मीद की जाए। इस बारे में होशंगाबाद नगर-पालिका के महापौर अखिलेश खंडेलवाल यह कहकर पल्ला झाड़ लेते हैं कि सिक्योरिटी पेपर मिल के प्रदूषण की निगरानी नगर-पालिका की जिम्मेदारी नहीं है। उधर, पीसीबी का कहना है कि नर्मदा में प्रदूषण फैलाने को लेकर सिक्योरिटी पेपर मिल के खिलाफ केस दर्ज किया था। वर्ष 2015 में मिल को नोटिस भी भेजा गया। एचएस मालवीय बताते हैं,

“सिक्योरिटी पेपर मिल ने दूषित जल के पुनः प्रयोग का इंतजाम कर लिया है। ऑनलाइन मॉनिटरिंग भी की जा रही है। अब इस मिल से नदी में 3.5 एमएलडी दूषित पदार्थ ही नर्मदा में पहुँचता है। जबकि पहले यह मात्रा काफी अधिक थी।”



मध्यप्रदेश प्रदूषण नियंत्रण मंडल के हालिया दावों से उलट होशंगाबाद जिले के पीपरिया में शासकीय पीजी कॉलेज में रसायन विज्ञान के मुकेश कटकवार का साल 2016 में प्रकाशित एक शोध भी बताता है कि घरेलू सीवर नर्मदा को काफी दूषित कर रहा है। इसमें बीओडी की मात्रा सुरक्षित मानकों से कहीं अधिक है। इंटरनेशनल जर्नल ऑफ केमिकल साइंसेज में प्रकाशित इस शोध के अनुसार, नर्मदा के आस-पास रहने वाले समुदायों में त्वचा और पेट सम्बन्धी बीमारियाँ आसानी से देखी जा सकती हैं।

“प्रवाह नदी का प्रयोजन है। नदी अगर बहेगी नहीं तो वह नदी नहीं रहेगी। अपने अस्तित्व के लिये उसे बहना ही चाहिए।”अमृतलाल वेगड़ (नर्मदानुरागी लेखक-चित्रकार)नर्मदा और पर्यावरण से जुड़े मुद्दों पर सक्रिय जबलपुर के वरिष्ठ पत्रकार जयंत वर्मा का कहना है कि भारतीय दंड संहिता की धारा 277 में जलस्रोत या जलाशय को दूषित करने पर मात्र 500 रुपये के जुर्माने का प्रावधान है। जब तक ऐसे अपराधों के लिये तक कड़े दंड का प्रावधान नहीं किया जाता है, नदियों को प्रदूषण मुक्त करना बेहद मुश्किल है।

सीवेज और पुरानी गलतियाँ

बूँद-बूँद दोहन

जंगल और जल

दोहरी मार झेलती जलधाराएँ

नर्मदा के आस-पास शहरों में सीवरेज की स्थिति


इन शहरों से निकलने वाला अधिकांश गंदा पानी कच्ची नालियों और नालों के जरिये नदियों में पहुँच रहा है

शहर

शहर का नगर क्षेत्र (वर्ग किमी)

सीवरेज द्वारा कवर किया गया शहर (प्रतिशत)

अनुपचारित सीवेज (प्रतिशत)

निपटान

भोपाल, मध्यप्रदेश

285

28-30

सीपीसीबी के अनुमान के अनुसार 14 प्रतिशत


नगरपालिका अनुमान के मुताबिक 21 प्रतिशत

शहर में ऊपरी और निचली झीलें

इंदौर, मध्यप्रदेश

134

72

सीपीसीबी के अनुमान के मुताबिक 37 प्रतिशत


नगर निगम के आकलन के अनुसार 33 प्रतिशत

खान नदी जो क्षिप्रा नदी में मिलती है - उज्जैन के लिये पानी की आपूर्ति के लिये स्रोत

जबलपुर, मध्यप्रदेश

107

कोई केंद्रीकृत प्रणाली नहीं

100

खुले नालों, नर्मदा और परियाट नदी में

होशंगाबाद, मध्यप्रदेश

24.27

5

100

खुले नालों के माध्यम से नर्मदा - कई मध्यप्रदेश के शहरों और कस्बों के लिये पानी का प्रमुख स्रोत

देवास, मध्यप्रदेश

100

15

100

छोटी काली सिंध और क्षिप्रा नदी में

वडोदरा, गुजरात

114

55

 

विश्वामित्री नदी

नगर निगम और एक्सक्रीटा मैटर्स (सीएसई)

हाल के वर्षों में नर्मदा की सहायक नदियों से मिलने वाले पानी में भी कमी देखी जा रही है। इसलिये नर्मदा की अविरलता को बनाए रखने के लिये जरूरी है कि वनों के प्रसार के साथ-साथ अधिक से अधिक वर्षाजल के नर्मदा में पहुँचने के उपाय तलाश करने आवश्यक हैं।

पानी और गाद की मात्रा

नर्मदा सेवा यात्रा


मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की पहल पर 11 दिसम्बर, 2016 से 11 मई, 2017 तक चलने वाली करीब 3,500 किलोमीटर की इस यात्रा को जनभागीदारी से चलने वाले विश्व के सबसे बड़े नदी संरक्षण अभियान के तौर पर प्रचारित किया जा रहा है। हालांकि, इस जागरूकता अभियान के तहत नदी और पर्यावरण संरक्षण के जो उपाय अपनाए जा रहे हैं, उस पर कई तरह के सवाल भी उठ रहे हैं। ‘विकास संवाद’ के सचिन जैन कहते हैं कि यह यात्रा नर्मदा के साथ हुई खिलवाड़ से ध्यान हटाने का तरीका है। जब तक नर्मदा पर बाँधों के निर्माण, जल के अंधाधुंध दोहन और रेत के वैध-अवैध खनन का सिलसिला जारी रहेगा, इस तरह की यात्रा का मकसद पूरा होना मुश्किल है।


छह मार्च तक यात्रा कुल 2,085 किमी की दूरी तय कर चुकी है, नर्मदा यात्रा 490 से अधिक गाँवों से गुजर चुकी है। इस दौरान कुल 490 जनसंवाद कार्यक्रमों का आयोजन किया गया, जिसमें नर्मदा को प्रदूषण मुक्त बनाने के उपायों और जन जागरुकता पर जोर दिया जा रहा है। मुख्य यात्रा के अलावा आस-पास के स्थलों से भी उप-यात्राओं का आयोजन किया गया और अब तक कुल 1,002 उपयात्राएँ भी मुख्य यात्रा में सम्मिलित हो चुकी हैं। नर्मदा सेवा की वेबसाइट पर 60 हजार से ज्यादा नर्मदा सेवकों द्वारा अपना पंजीयन कराया जा चुका है।

खनन से खोखली नर्मदा

थर्मल और न्यूक्लियर प्लांट

बाँधों में बँधी नर्मदा

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