बागमती को बाँधने में किसी का हित नहीं

बकुची-अख्तियारपुर में बागमती और लखनदेई का संगम स्थल
बकुची-अख्तियारपुर में बागमती और लखनदेई का संगम स्थल


सत्तर के दशक में जब बागमती नदी पर तटबन्ध बनाया जा रहा था, तब ग्रामीणों ने इसका पुरजोर विरोध किया था। उस वक्त कुछ दूर तक तटबन्ध बने, लेकिन लोगों के विरोध के मद्देनजर काम बन्द कर दिया गया था। इस घटना के लगभग चार दशक गुजर जाने के बाद दोबारा बिहार सरकार बाकी हिस्से पर तटबन्ध बनाना चाहती है और इस बार भी ग्रामीण विरोध कर रहे हैं।

ग्रामीणों का कहना है कि तटबन्ध बनने से उन्हें फायदे की जगह नुकसान होगा लेकिन सरकार का तर्क है कि वह तटबन्ध बनाकर बाढ़ को बाँध देगी। तटबन्ध की खिलाफत करने वाले लोगों के साथ सरकार की बातचीत हुई, तो तटबन्ध से होने वाले नफा-नुकसान का आकलन करने के लिये विशेषज्ञों की कमेटी बनाने पर सहमति बनी, लेकिन तटबन्ध के खिलाफ आन्दोलन करने वाले लोगों का आरोप है कि किसी भी तरह सरकार तटबन्ध बनाने पर आमादा है और वह आम लोगों के हित नहीं देख रही है।

इन सबके बीच नदियों के विशेषज्ञों का भी कहना है कि तटबन्ध बना दिये जाने से न तो सरकार को फायदा होने वाला है, न आम लोगों को और न ही बागमती को। लेकिन, दुःखद यह है कि सरकार के कानों तक न तो नदियों के विशेषज्ञों की बात पहुँच रही है और न ही ग्रामीणों की।

बागमती काठमांडू से 16 किलोमीटर दूर हिमालय से निकलती है। यह सदानीरा नदी है यानी साल भर इस नदी में पानी रहता है। बिहार में यह नदी 394 किलोमीटर बहती है। इस नदी में 600 छोटी-छोटी नदियाँ मिलती हैं।

चूँकि बागमती सदानीरा नदी है, तो जाहिरी तौर पर बारिश के दिनों में नदी में पानी ज्यादा हो जाता है, जिससे नदी के आसपास के खेत-खलिहानों में पानी भर जाता है। लेकिन, इस बाढ़ का सबसे ज्यादा फायदा यह होता है कि नदी अपने साथ भारी मात्रा में उपजाऊ मिट्टी लेकर आती है और खेतों में बिखेर देती है। इससे खेत की उर्वरा शक्ति बढ़ जाती है और लोगों को फसल में खाद नहीं डालना पड़ता है।

सन 1950 का वो दौर था जब तटबन्ध को बाढ़ पर नियंत्रण का अचूक उपाय माना जाता था। उसी दौर में पहली बार बागमती को बाँधने की कोशिश की गई। तटबन्धों को लेकर व्यापक तौर पर काम करने वाले दिनेश कुमार मिश्र ने साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रीवर्स एंड पांड्स के लिये लिखे अपने एक लेख में कहा है, ‘सन 1950 में दरभंगा को सोरमारहाट से लेकर खगड़िया के बदलाघाट तक तटबन्ध बनाया गया था। उस वक्त कितने परिवार विस्थापित हुए थे, इसकी जानकारी किसी के पास नहीं है। चूँकि आजादी के बाद देश के विकास की बात हर तरफ होने लगी थी और लोग इस विकास में हिस्सा लेना चाहते थे, इसलिये उस वक्त पुनर्वास कोई मुद्दा नहीं था। कुछ पुराने लोगों का कहना है कि कुछेक लोगों को तटबन्ध के बाहर जमीनें दी गई थीं, लेकिन उन्हें मकान बनाने के लिये कोई राशि मुहैया नहीं कराई गई।’

इसके बाद वर्ष 1965 में तत्कालीन बिहार सरकार ने बागमती से आने वाली बाढ़ को नियंत्रित करने के लिये तटबन्ध बनाने की योजना बनाई। वर्ष 1970 में इस योजना को मंजूरी मिल गई। लेकिन, योजना को मंजूरी मिलने के साथ ही बागमती नदी ने अपना रास्ता बदल लिया जिस कारण दोबारा योजना तैयार करनी पड़ी और खर्च में इजाफा हो गया।

उस वक्त तटबन्ध की जद में 96 गाँव आये थे। इन गाँवों के करीब 14 हजार लोगों को अपना घर-बार कुर्बान कर देना पड़ा था। इनमें से 14 गाँवों के लोगों का पुनर्वास अब तक नहीं हुआ है।

फिलहाल सरकार की जो योजना है उसमें शिवहर, सीतामढ़ी, मुजफ्फरपुर, दरभंगा, खगड़िया से होते हुए 200 किलोमीटर तटबन्ध बनाया जाना है।

नदियों को लेकर लम्बे समय तक आन्दोलन चलाने वाले अनिल प्रकाश कहते हैं, ‘पूर्व में बना बागमती का तटबन्ध अब तक 88 बार टूट चुका है और एक बार तटबन्ध टूटता है तो 50 से अधिक गाँव बह जाते हैं। तटबन्ध बनने से पहले जब बाढ़ आती थी तो जान-माल की क्षति नहीं के बराबर होती थी क्योंकि पानी फैल जाता था। तटबन्ध बनाकर पानी को एक निश्चित सीमा में बाँधने की कोशिश की गई जिस कारण बाढ़ का रूप रौद्र हो गया।’

अनिल प्रकाश आगे कहते हैं, ‘जब तटबन्ध नहीं बना था तो नदियों के किनारे के गाँवों में खुशहाली थी। अच्छी फसलें उगा करती थीं। महिलाएँ बागमती को मइया कहकर पुकारा करती और यह मनौती माँगती कि बाढ़ आये ताकि उनके खेतों की उर्वरा शक्ति बढ़े लेकिन तटबन्ध ने उनकी समृद्धि ही रोक दी।’

अनिल प्रकाश ने कहा, ‘असल में पूरा खेल मुनाफा का है। 300 करोड़ की परियोजना अब बढ़कर 900 करोड़ रुपए पर पहुँच गई है। इस प्रोजेक्ट से जुड़े ठेकेदारों से लेकर अन्य साझेदारों को इससे मोटा मुनाफा होगा। यही वजह है कि येन-केन-प्रकारेण वे इस प्रोजेक्ट को पूरा करना चाहते हैं।’

यहाँ गौर करने वाली बात यह है कि 70 के दशक के बाद से लेकर अब तक कई तरह के शोध हो चुके हैं जो इस बात की तस्दीक करते हैं कि तटबन्ध असल में समृद्धि के रास्ते में रोड़ा है लेकिन सरकार ने कभी भी इन शोधों को गम्भीरता से नहीं लिया।

दिनेश कुमार मिश्र कहते हैं, ‘सरकार को लगता है कि बागमती की धाराएँ स्थिर हो गई हैं। लेकिन, यह सोचना ही मुर्खता है। एक नदी को स्थिर होने में सदियाँ गुजर जाती हैं। बागमती पर तटबन्ध बन जाएगा, तो बाढ़ की विभीषिका और बढ़ जाएगी।’दिनेश कुमार मिश्र और विस्तार से बताते हैं, ‘अगर तटबन्ध बनेंगे तो उसकी ऊँचाई मुश्किल 15 से 16 फीट होगी, लेकिन तश्तरीनुमा ढाँचे से जब नदी गुजरेगी तो तटबन्ध की वजह से पानी की ऊँचाई 25 फीट पर पहुँच जाएगी। ऐसे में नदी खुद ही तटबन्ध तोड़ेगी या फिर लोग भीषण बाढ़ की आशंका के कारण खुद जगह-जगह तटबन्ध को काटेंगे ताकि पानी धीरे-धीरे निकल जाये। कुल मिलाकर नुकसान होगा तटबन्ध के आसपास रहने वाले लोगों का।’

उन्होंने कहा कि वहाँ के लोग ही नहीं चाहते हैं कि तटबन्ध बने, तो सरकार को भी अपनी जिद छोड़ देनी चाहिए।यहाँ यह भी बता दें कि बिहार सरकार तटबन्ध बनाने की पीछे यह तर्क दे रही है कि बाढ़ की विभीषिका से बचने के लिये ऐसा कदम उठाया जा रहा है। लेकिन, विशेषज्ञों का कहना है कि बागमती के बाढ़ से लोगों को बहुत अधिक नुकसान नहीं होता है और-तो-और लोग खुद चाहते हैं कि बाढ़ आये।

इस सम्बन्ध में आईआईटी कानपुर के अर्थ साइंस डिपार्टमेंट के प्रमुख राजीव सिन्हा कहते हैं, ‘बागमती एक नदी नहीं है, बल्कि यह नदियों का समूह है। इससे आने वाली बाढ़ इतनी बड़ी समस्या नहीं है। बागमती का पानी ज्यादा-से-ज्यादा डेढ़ से ढाई दिनों तक रहता है और फिर वापस चला जाता है। अलबत्ता इससे फायदा जरूर है क्योंकि वह अपने साथ मिट्टी लाती है जो खेतों के लिये प्राकृतिक खाद का काम करता है। बागमती नदी के आस-पास रहने वाले लोगों को फसल उपजाने के लिये खाद का इस्तेमाल नहीं करना पड़ता है।’

सिन्हा आगे कहते हैं, ‘बागमती में पूर्व में जहाँ भी तटबन्ध बने हैं वहाँ के लोगों की आर्थिक हालत लचर हो गई है क्योंकि उनके खेतों में अब उतनी अच्छी फसल नहीं उगती जितनी तटबन्ध बनने से पहले उगा करती थी। फिलवक्त जहाँ तटबन्ध बनाया जाना है, वहाँ के लोगों में भी यही डर है कि इससे उनके खेतों की उर्वराशक्ति पर असर पड़ेगा।’

उन्होंने कहा कि दिक्कत की बात है कि सरकार जनता की बात सुनना ही नहीं चाहती है। सरकार आधुनिक विकास का तिलिस्म खड़ा कर काम कर रही है, लेकिन इससे लोगों को फायदा हो नहीं रहा है।

उधर, तटबन्ध के विरोध में जब स्वर तेज हुए, तो मार्च के मध्य में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने रिव्यू कमेटी बनाने का आश्वासन दिया। कमेटी प्रोजेक्ट के फायदे और नुकसान का आकलन करेगी, लेकिन अब तक रिव्यू कमेटी के गठन की सुगबुगाहट शुरू नहीं हुई है।अनिल प्रकाश ने कहा, ‘तटबन्ध बनाने के पीछे आम लोगों का हित नहीं है। इसके पीछे ठेकेदारों से लेकर बिचौलियों तक को मोटा मुनाफा होना है, इसलिये वे किसी तरह प्रोजेक्ट पूरा करना चाहते हैं। पिछले दिनों आन्दोलन करने वाले दो लोगों को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। कुछ दिन पहले ठेकेदारों ने बाँध बनाने के समर्थन में रोड जाम किया, लेकिन उनका यह प्रयास विफल रहा। यहाँ के लोग किसी भी सूरत में बाँध नहीं बनने देंगे। तटबन्ध के खिलाफ जोरदार आन्दोलन चलाया जाएगा।’
 

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