बागमती नदी और बाढ़

पहाड़ों से मैदानी इलाकों में प्रवेश करने पर पानी के साथ-साथ गाद पूरे इलाके पर फैलती है। गाद का कुछ हिस्सा नदी की तलहटी में भी जमा होता है और उसे छिछला बनाता है। इससे नदी की प्रवाह-क्षमता घटती है। उपलब्ध सूचना के अनुसार बागमती नदी की बिना किनारे लांघे हुए प्रवाह-क्षमता मात्र 560 क्यूमेक (लगभग 19,700 क्यूसेक) है जबकि 1975 जैसी बाढ़ में नदी में ढेंग से होकर 3,033 क्यूमेक (लगभग 1,06,800 क्यूसेक तथा हायाघाट के पास 2,618 क्यूमेक (लगभग 92,150 क्यूसेक) पानी बहा था।

मिथिला क्षेत्र में बाढ़ के कई रूप देखने को मिलते हैं। उसी के अनुसार उनके नाम और परिभाषाएं भी अलग हैं। गर्मी के मौसम की शुरुआत में जब पहाड़ों पर बर्फ पिघलने लगती है तब यहाँ नदियों के पानी का रंग बदलने लगता है जो अमूमन लाल से काले रंग के बीच का होता है। इसे नदी का मजरना कहा जाता है। कुछ गुणी लोग पानी के रंग को देख कर आने वाली बरसात की भविष्यवाणी तक कर दिया करते थे। बारिश की शुरुआती तेज फुहारें गर्मी में उड़ती धूल को शान्त करती थीं। जैसे-जैसे समय बीतता था धन की बुआई शुरू होती थी और किसान यह आशा करता था कि रोपनी शुरू होने तक नदी उनके खेतों का एक-आध बार चक्कर काट लेगी। नदी के पानी का खेतों तक आना और वहीं बने रहना बाढ़ की परिभाषा में आता था। सिंचाई के लिए छः या उससे अधिक बार खेतों में पानी की जरूरत पड़ती थी। यह काम नदी बिना किसी लागत के पूरा कर दिया करती थी। कभी-कभी नदी का पानी गाँव के रिहाइशी इलाके में दरवाजों तक हिलोरें मारता था। बाढ़ की इस स्थिति को ‘बोह’ कहा जाता है।

25-30 साल के अंतराल पर ऐसे अवसर आते थे जब नदी इतनी ऊपर आ जाए कि उसका पानी घरों की खिड़कियों तक आ जाए और गाय-बैल-भैंस जैसे जानवर आधी ऊँचाई तक पानी में डूब जाएं तो वही बाढ़ ‘हुम्मा’ कहलाती थी। गाँव घर में पानी का स्तर और ज्यादा बढ़ना, उसमें लहरों का उठना तथा ऐसी स्थिति पैदा होना कि जानवरों को खूंटे से खोल कर छोड़ देना पड़े तो ऐसी बाढ़ को ‘साह’ कहते हैं। अपने पूरे जीवन काल में दो बार ‘साह’ का अनुभव करने और घटना को याद रख पाने लोग बहुत कम ही हुआ करते थे। इसके बाद अगर कुछ होता था तो वह ‘प्रलय’ की श्रेणी में आता था।

नदी के मजरने से लेकर बोह तक का समय समाज में उत्सव की तरह आता था। ‘हुम्मा’ में परेशानियाँ तो थी मगर वो जानलेवा नहीं होती थीं। ‘साह’ से लोग डरते थे पर इसका आगमन शताब्दी में एक-दो बार से ज्यादा नहीं होता था। इन सबके बाद एक बहुत ही अच्छी फसल की आशा लोगों का मनोबल बढ़ाती थी। यह इसलिए हो पाता था क्योंकि पानी के रास्ते में रुकावटें नहीं थी, वह जितनी तेजी से चढ़ता था उससे ज्यादा तेजी से उतर भी जाता था। बाढ़ के पानी के साथ-साथ गाद भी चारो ओर फैलती थी और जमीन की उर्वराशक्ति कायम रहती थी।

बागमती नदी घाटी में जहाँ एक ओर वर्षापात प्रचुर मात्र में होता है वहीं बरसात के मौसम में नदी अपने पानी के साथ खासी मात्र में गाद भी लाती है। नदी के प्रवाह में स्थिरता के नाम पर मात्र खोरीपाकर/अदौरी में बागमती और लालबकेया का संगम स्थल प्रायः स्थिर है और हायाघाट से लेकर बदलाघाट तक नदी की धारा में परिवर्तन के संकेत भी कम मिलते हैं। बिहार में नदी की बाकी 203 किलोमीटर लम्बाई में अस्थिरता का ही राजत्व चलता है। इसके कई कारण हैं-

पहाड़ों से उतरती नदी के ढाल में असामान्य परिवर्तन


पहाड़ों से उतरने वाली नदियों के प्रवाह में पानी के साथ-साथ बोल्डर, छोटे पत्थर, मोटा बालू, मध्यम आकार के कण वाला बालू, महीन बालू, सिल्ट के मोटे कण, मध्यम आकार के कण और महीन सिल्ट के कण होते हैं। पहाड़ों के तेज ढाल से उतरने वाला पानी इन सब को बहा कर ले जाने की क्षमता रखता है। मगर जैसे ही यह पानी तराई में उतरता है तो उसे चारों तरफ फैलने का मौका मिलता है और सपाट मैदानी क्षेत्र में बहने के कारण उसके वेग में भी कमी आती है। इसी के साथ नदी के पानी का अपने प्रवाह में लाए हुए पत्थर, बालू और सिल्ट को बहा कर ले जाने की क्षमता भी घटती है। नतीजा होता है कि पहले बोल्डर और बड़े आकार के पत्थर रुक जाते हैं, उसके बाद बालू और फिर हलका होने के कारण सबसे बाद में सिल्ट जमीन पर बैठती है। नदियाँ इसी तरह भूमि का निर्माण करती हैं और यह क्रम आमतौर से कभी रुकता नहीं है। किसी एक वर्ष में नदी के कछार में बैठी हुई यह गाद आने वाले वर्षों में नदी के प्रवाह के लिए अवरोध का काम करती है जिसे काट कर नदी अपने लिए नया मार्ग बना लेती है और उसकी धारा में परिवर्तन हो जाता है। नदी के पानी में जितनी ज्यादा गाद आयेगी, उसकी धारा के परिवर्तन की संभावनाएं भी उतनी ही ज्यादा होती हैं। हिमालय के एक नवजात और कच्ची मिट्टी का पहाड़ होने के कारण उससे निकलने वाली नदियों में गाद की भारी मात्र रहती है और यही कारण है कि यह नदियाँ एक ही धारा में स्थिर नहीं रह पातीं। धारा के स्थिर न रहने से नदियाँ अपने कछार में घूमती रहती हैं और इस वजह से बाढ़ की स्थिति कष्टकर हो जाती है यद्यपि ऐसे कछारों की जमीन बहुत ही उपजाऊ होती है। बागमती नदी इसी श्रृंखला की एक कड़ी है। पहाड़ों से उतरने वाली इस नदी का ढलान मैदान पर उतरने पर एकाएक कम हो जाता है और कोसी से अपने संगम के स्थान तक नदी प्रायः सपाट भूमि पर चलती है।

ढेंग में नदी के तल का ढाल जो 53 सेन्टीमीटर प्रति किलोमीटर रहता है वह हायाघाट पहुँचते-पहुँचते मात्र 14 सेन्टीमीटर प्रति किलोमीटर रह जाता है और फुहिया में तो यह ढलान सिर्फ 4 सेन्टीमीटर प्रति किलोमीटर हो जाता है। इतने ढलान पर पानी केवल सरक सकता है, बह नहीं सकता। इस तरह के पानी के रास्ते में छोटा सा भी अवरोध उसके प्रवाह को रोक देने या काफी पीछे तक ठेल देने के लिए पर्याप्त होता है। निचले इलाकों में लम्बे समय तक बाढ़ों के टिके रहने का यह एक महत्वपूर्ण कारण है।

नदियों की प्रवाह-क्षमता का कम होना


पहाड़ों से मैदानी इलाकों में प्रवेश करने पर पानी के साथ-साथ गाद पूरे इलाके पर फैलती है। गाद का कुछ हिस्सा नदी की तलहटी में भी जमा होता है और उसे छिछला बनाता है। इससे नदी की प्रवाह-क्षमता घटती है। उपलब्ध सूचना के अनुसार बागमती नदी की बिना किनारे लांघे हुए प्रवाह-क्षमता मात्र 560 क्यूमेक (लगभग 19,700 क्यूसेक) है जबकि 1975 जैसी बाढ़ में नदी में ढेंग से होकर 3,033 क्यूमेक (लगभग 1,06,800 क्यूसेक तथा हायाघाट के पास 2,618 क्यूमेक (लगभग 92,150 क्यूसेक) पानी बहा था। अब अगर किसी नदी में उसकी प्रवाह-क्षमता से पाँच गुना या उससे अधिक पानी आ जाए तो आस-पास के इलाकों का बाढ़ के पानी में डूबना तय है। दुर्भाग्यवश बागमती नदी में उसकी प्रवाह-क्षमता का अतिक्रमण प्रायः हर वर्ष होता है। यहाँ एक चीज और ध्यान देने की है। आमतौर पर नदी जैसे-जैसे आगे बढ़ती है वैसे-वैसे उसमें दूसरी नदियाँ मिलती जाती हैं। स्थानीय जल-ग्रहण क्षेत्र का पानी सीधे भी नदी में आता है। इसलिए नदी जैसे-जैसे आगे चलती है, उसी अनुपात में उसमें आने वाले पानी की मात्रा भी बढ़ती जाती है। बागमती में 1975 में ढेंग में 1,06,800 क्यूसेक पानी बहा मगर उससे 196 किलोमीटर नीचे हायाघाट में नदी का प्रवाह अधिक होने के बजाय घट कर केवल 92,150 क्यूसेक ही पहुँचा। इसका सीधा मतलब होता है कि ढेंग से चला पानी हायाघाट पहुँचने से पहले ही एक बड़े इलाके पर फैल गया और हायाघाट से नीचे एक सीमित मात्रा में ही वह नदी तक पहुँचा। ऐसा बीच वाले इलाके की स्थल आकृति के कारण ही संभव हो सकता है जो एक तश्तरी की तरह है और जिसके आगे पानी तभी बढ़ेगा जब तश्तरी भर जाए। इसके अलावा इस बीच वाले इलाके में भी बहुत सी नदियाँ हैं और बागमती का पानी उनमें या उनके जल-ग्रहण क्षेत्र में घुस कर वहाँ भी बाढ़ की स्थिति को दुरूह बनाता है। ऐसा अक्सर होता है कि हायाघाट में नदी का प्रवाह ढेंग के मुकाबले सिर्फ आधा ही रह जाए मगर बीच वाले क्षेत्र में बाढ़ सामान्य से दुगनी हो जाए। इस तरह से बागमती के ऊपरी क्षेत्रों से आने वाला पानी बीच वाले क्षेत्र को डुबा कर ही हायाघाट पहुँचता है।

इस तरह की घटनाएं केवल बागमती के ही साथ नहीं होतीं। उसकी सहायक धाराओं की भी वही स्थिति है। लखनदेई जब भारत में प्रवेश करती है तो उसकी तलहटी का ढलान 1 मीटर प्रति किलोमीटर के आस-पास रहता है मगर जिस स्थान पर यह बागमती से संगम करती है वहाँ नदी के तल का ढलान मात्र 8 सेन्टीमीटर प्रति किलोमीटर हो जाता है। मोहिनी नदी की सुरक्षित प्रवाह-क्षमता मात्र 17 क्यूमेक (लगभग 560 क्यूसेक) से 61 क्यूमेक (लगभग 1950 क्यूसेक) के बीच है जबकि उसमें आने वाला प्रवाह 400 क्यूमेक (लगभग 14,000 क्यूसेक) तक पहुँच जाता है। यही हाल दरभंगा-बागमती का भी है। जब यह नदी भारत में प्रवेश करती है तब उसके तल का ढाल 70 सेन्टीमीटर प्रति किलोमीटर होता है मगर एकमी घाट पहुँचते-पहुँचते इसका ढाल मात्र 24 सेन्टीमीटर प्रति किलोमीटर रह जाता है। हरदी नदी सीतामढ़ी-सुरंसड मार्ग के इर्द-गिर्द तबाही मचाती है और समय-समय पर अपनी धारा में परिवर्तन लाती है। कभी अधवारा से संगम करने वाली यह नदी अब माढ़ा में मिलती है जबकि माढ़ा खुद कभी एक धारा में स्थिर नहीं रह पाती। रातो भी कुछ अलग नहीं हैं। पाँच किलोमीटर चौड़े अनिश्चित मार्ग से बहने वाली इस नदी की प्रवाह-क्षमता मात्र 22 क्यूमेक (770 क्यूसेक) है जबकि इसमें 316 क्यूमेक (11,100 क्यूसेक) तक के प्रवाह का खतरा बना रहता है।

तालिका-1.1


बिहार में बागमती घाटी के जिलों का संक्षिप्त परिचय

जिला

प्रखंड

ग्राम

क्षेत्र (वर्ग कि.मी.)

कृषि योग्य भूमि (हे.)

सिंचित भूमि (हे.)

कुल जनसंख्या (2001)

पुरुष

महिला

जनसंख्या घनत्व व्यक्ति प्रति वर्ग कि.मी. (2001)

पुरुष स्त्री अनुपात (2001)

शिक्षित पुरुषों का प्रतिशत (2001)

शिक्षित महिलाओं का प्रतिशत (2001)

कुल साक्षरता प्रतिशत (2001)

मुजफ्फरपुर

16

1811

3176

247721

82964

37,43,836

19,41,480

18,02,356

1179

1000:928

60.19

35.2

38.91

दरभंगा

18

1269

2279

198415

38600

32,95,789

17,22,189

15,73,600

1446

1000:910

45.32

24.58

35.42

समस्तीपुर

20

1248

2904

254841

87000

33,94,793

17,60,692

16,34,101

1169

1000:928

57.59

31.67

45.13

शिवहर

5

207

443

 45091

11000

 5,15,961

2,73,680

2,42,281

1165

1000:885

45.54

27.43

37.01

सीतामढ़ी

17

835

2294

207100

73733

26,82,720

14,17,611

12,65,109

1169

1000:892

49.36

26.13

38.46

खगड़िया

7

306

1486

104000

87147

12,76,677

6,75,501

6,01,176

859

1000:890

41.33

23.18

32.78

मधुबनी

21

1111

3501

232724

138551

35,75,281

18,40,997

17,34,284

1021

1000:942

56.79

26.25

41.97



स्रोत: बिहार सरकार की विभिन्न रिपोर्टें।
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