बागमती परियोजना के उजड़े हुए लोगों की कहानी

‘‘...हम लोग कलक्टर से यह पूछने के लिए गए कि हम लोग इस देश के नागरिक हैं या नहीं जो हमें इस तरह खदेड़ा जा रहा है। अगर बागमती परियोजना के कारण हमारी नागरिकता समाप्त हो जाती है तो आप हुक्म कीजिए, हम नेपाल में जाकर बस जाते हैं।’’

कहना है मसहा आलम गांव के सीता राम मुखिया का । मसहा आलम 150 एकड़ क्षेत्रफल का सीतामढ़ी जिले के बैरगनियां प्रखंड का एक गांव है जो बागमती तटबन्धों के बीच में पड़ गया था और उसके 420 परिवारों को पुनर्वासित करने की योजना थी। यह गांव तटबन्धों के बीच फंस तो 1971-72 के बीच गया था मगर पुनर्वास की कोई नीति न होने की वजह से गांव के लोग वहीं पुराने घर या तटबन्ध पर रह कर बाढ़ के थपेड़े झेल रहे थे। यह सिलसिला आज भी जारी है।

बागमती उत्तर बिहार की मुख्य नदियों में से एक है जो कि अपने धारा परिवर्तन और बाढ़ के लिए हमेशा चर्चा में रहती है। इस नदी की बाढ़ को नियंत्रित करने के लिए भिन्न-भिन्न समय पर काम हुए। पहली बार इस नदी पर 1950 के दशक के उत्तरार्द्ध में दरभंगा में सोरमार हाट से लेकर खगडि़या में बदला घाट तक लगभग 145 किलोमीटर लम्बाई में तटबन्ध बने। इस दूरी में तटबन्धों के अन्दर पड़ने वाले लोगों को देश-प्रेम और समाज के प्रति दायित्व का वास्ता देकर पुनर्वास का काम निपटा दिया गया था। इस परियोजना में कितने गांवों की जमीन तटबन्धों के अन्दर पड़ी और कितने परिवार में विस्थापित या पुनर्वासित हुए इसका कोई ब्यौरा उपलब्ध नहीं है। इस इलाके के बुर्जुग लोग बताते हैं कि कहीं-कहीं कुछ लोगों को तटबन्धों के बाहर पुनर्वास के लिए जमीन दे दी गयी थी। घर बनाने के नाम पर किसी को कुछ भी नहीं मिला। दूसरे दौर में 1970 के दशक में सीतामढ़ी जिले में भारत-नेपाल सीमा से लेकर रुन्नीसैदपुर तक लगभग 77 किलोमीटर लम्बाई में तटबन्ध बने। जिसमें 95 गांव फंसे जिनके परिवारों की संख्या 14,881 है जिसमें से 15 गांवों के 1,653 परिवारों का पुनर्वास अभी तक पूरा नहीं हुआ है। इस बार पुनर्वास के नाम पर एक रिहाइशी प्लॉट और घर के आवश्यक और चल-संपंत्ति को पुनर्वास स्थल तक ले जाने के लिए फूस के मकानों के लिए 300 रुपये, खपरैल के मकानों के लिए 500 रुपये और पक्के मकानों के लिए 1500 रुपये तक का ढुलाई शुल्क का प्रावधान किया गया है। रुन्नीसैदपुर से लेकर सोरमार हाट के बीच का नदी का हिस्सा 2006 तक खुला हुआ था। जिस पर तटबन्ध बनाने का काम उसी साल शुरू हुआ। अभी हम 1970 के दशक में इस नदी पर बनाए गए तटबन्ध के कारण उजड़े हुए सीतामढ़ी जिले के बैरगनिया प्रखंड के एक गांव मसहा आलम के बारे में बात करेंगे। यह गांव उन 15 गांवों में से एक है जिनका पुनर्वास अभी तक पूरा नहीं हुआ है।

उन दिनों अधिकारियों को पुनर्वास के नाम पर जो जमीन और ढुलाई शुल्क के नाम पर जो भी मदद मिल रही थी उस पर 10 प्रतिशत घूस लेने का रिवाज था और गांव वाले यह दस्तूर निभाना नहीं चाहते थे, भले ही उनके सामने मसहा नरोत्तम गांव के पुनर्वास की मिसाल थी जहां मुखिया की मध्यस्थता के कारण दस प्रतिशत का चढ़ावा चढ़ाने पर पुनर्वास हो गया था। बागमती परियोजना के सूत्रों के अनुसार उन 420 परिवारों में से 104 परिवारों को बेल, डुमरबन्ना, भकुरहर और नन्दवारा गांवों में बसाया गया है और बाकी 316 परिवारों का पुनर्वास किया जाना अभी भी बाकी है। इस योजना के अधीन लालबकेया और बागमती नदियों के बीच एक रिंग बांध बनाकर इस प्रखंड को दोनों नदियों की बाढ़ से बचाने का यह काम हाथ में लिया गया था। मसहा आलम के विस्थापित परिवारों के अनुसार बैरगनियां रिंग बांध के अन्दर उनके पुनर्वास के लिए 5 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया गया, जिसमें से 2.5 एकड़ नन्दवारा में तथा 2.5 एकड़ जमीन भकुरहर में अधिगृहीत हुई। इन दोनों जगहों पर फिहाल कोई 35-35 परिवार बसे होंगे और इतने ही लोग पुराने गांव में अपने डीह पर ही बने हुए हैं। कुछ लोग अपनी फसल या जमीन बेच कर रिंग बांध के अन्दर जहां-तहां बस गए। रिंग बांध के अन्दर भी बागमती नदी के दाहिने तटबन्ध के टूटने की वजह से और स्लुइस गेट से पानी अन्दर आने के कारण खतरा बना ही रहता है।

बाकी लोगों के लिए भकुरहर में जमीन अधिगृहीत करने का प्रस्ताव था मगर वहां के भू-धारी इस तरह के अधिग्रहण के खिलाफ हाईकोर्ट से स्टे-ऑर्डर ले आए और अधिग्रहण की प्रक्रिया रुक गयी। अब जो स्थिति है वह यह कि बाकी परिवार बागमती तटबन्ध के ऊपर, ढेंग को बैरगानियां रेल स्टेशन से जोड़ने वाली रेल लाइन के दोनों तरपफ तथा रेल-पुल के दक्षिण तटबन्ध की कन्ट्रीसाइड के बीस फुट्ट सरकारी जमीन पर अनाधिकृत तौर पर बसे हुए हैं। जो लोग रेल लाइन के किनारे बसे हैं, उन्हें रेलवे अधिकारी कभी भी हटा सकते हैं। तटबन्ध पर बसे लोगों को तटबन्ध की मरम्मत और उसे ऊंचा और मजबूत बनाने में लगे इंजीनियर और ठेकेदार तथा उनके उकसाने पर पुलिस अक्सर खदेड़ती रहती है। इस गांव के नागेन्द्र राय का कहना है, ‘‘...1972 में इस गांव का जो बच्चा 10 साल का रहा होगा और जिसके पिता तक का पुनर्वास नहीं हुआ और जो इस समय 45-50 वर्ष का हो गया होगा, उसके खुद की और बेटी-बेटों के रहने की जगह कहां है? बेटियां तो मान लेते हैं चली गईं मगर बहुओं का क्या होगा? भाई-भाई अलग हो गए, उनके रहने के लिए जमीन कहां से आएगी?’’

नन्दवारा की जिस जमीन का पुनर्वास के लिए अधिग्रहण होना था उसका फैसला जब हुआ तब उसमें गेहूं लगा हुआ था। जैसे ही जमीन के मालिक को पता लगा कि जमीन हाथ से निकल जाएगी तब उसने एक रात के अन्दर उस जमीन को बहुत से लोगों के हाथ टुकड़ों में बेच दिया। रात भर में लोगों ने गेहूं काट लिया, वहां झोपडि़यां बन गई और जानवर लाकर बांध दिए गए। लोग डरे हुए थे कि अगर हटना पड़ा तो अपने खेतों के पास में जमीन नहीं मिलेगी। इसलिए उन्होंने पैसे देकर जमीन खरीद ली। जमीन के मालिक को रैयत से भी पैसा मिला और सरकार से भी। नन्दवारा वाला पुनर्वास तो इसी तरह पूरा किया गया। 1993 में इसी पुनर्वास बस्ती के सामने बागमती का तटबन्ध टूट गया था और नदी ने बस्ती वाली पुनर्वास की पूरी आबाद जमीन एकदम साफ-सुथरी कर के गांव वालों को वापस लौटा दी।

इसके बाद पुनर्वास दिलवाने वाले दलाल पैदा हुए। वह आकर गांव वालों को दिलासा देते थे कि इतना पैसा दो तो पुनर्वास अधिकारी से बात करते हैं, इतना पैसा दो तो कलक्टर से बात करते हैं, यहां 20 एकड़ है, वहां 42 एकड़ सरकारी जमीन है, वगैरह-वगैरह। लोग उन्हें पैसे देते गए, मगर वह तो कटी हुई पेंदी का घड़ा था, कभी भरता ही नहीं था। अब गांव वालों का भरोसा बचा है तो सिर्फ अपने मुखिया सीता राम पर जो सबके हिस्से के दौड़ने -धूपने का काम अपनी पूरी ताकत से कर देते हैं। उनका कहना है कि..., अभी पिछली साल (2009) सरकार के लोग आए थे बांध पर बसे लोगों को यहां से हटाने के लिए। जाड़े का दिन था, गांव वालों ने कहा कि कोई तिरपाल वगैरह की व्यवस्था कर दीजिए तो बाल-बच्चों को थोड़ी सहूलियत हो जाएगी मगर दारोगा का कहना था कि 24 घन्टे में खाली करना पड़ेगा, जबकि गांव के लोग तीन दिन की मोहलत मांगते थे। पुलिस और ठेकेदार दोनों में से कोई भी इतना इंतजार करने के लिए तैयार न था। हम लोग कंपकंपाती ठंड में बिना कोई व्यवस्था किए हुए जबरन अपने हटाए जाने के विरोध में सीतामढ़ी-बैरगनियां रेल लाइन पर धरना देकर बैठ गए और रेल रोक दी तो बैरगनियां से लोगों का आवागमन रुक गया।

इसके अलावा बैरगनियां आने-जाने की कोई दूसरी व्यवस्था उस समय थी भी नहीं। बागमती नदी पर 2010 में एक सड़क पुल बन जाने के बाद बैरगनियां सड़क मार्ग से भी सीतामढ़ी से जुड़ गया है। मामले ने जब तूल पकड़ा तब गांव वाले एक तरफ और ठेकेदार तथा पुलिस दूसरी तरफ मोर्चा लेकर आमने-सामने आ गए। दोनों पक्षों में जम कर मार-पीट हुई और पुलिस को गोली चलानी पड़ गई। दोनों तरफ से मुकद्दमें दायर हुए। गांव वालों का कहना था कि हमें पुनर्वास की जमीन दे दीजिये, हम लोग अपने आप चले जाएंगे। कलक्टर ने तब थाना प्रभारी को फोन किया कि इन लोगों को मत उजाडि़ए और न ही परेशान कीजिए। उन्होंने हम लोगों से इतना जरूर कहा कि आप लोग तटबन्ध पर रह रहे हैं, रहिए मगर रास्ता मत बन्द कीजिएगा।

हमने उनसे कहा कि दुपहिया तो चलेगा मगर चार पहिया वाहन के लिए वहां जगह ही नहीं है। दुपहिए वाहन पर तो हम लोग भी चलते ही हैं। उसके बाद से हम लोग यहां तटबन्ध पर बने हुए हैं। पुनर्वास का मसला बड़ा पेचीदा है। सरकार जमीन अधिगृहीत करना चाहती है और जमीन आस-पास में कहीं है ही नहीं। आज से कोई 10-12 साल पहले सीतामढ़ी के कलक्टर ने बीडीओ, पुनर्वास अधिकारी, अंचल अधिकारी और नन्दवारा, मूसाचक तथा मसहा आलम के मुखिया को बुला कर मीटिंग की और कहा कि आप लोग मूसाचक, नन्दवारा, बेल और डुमरबन्ना में अलग-अलग जगहों पर जमीन ले लीजिए। गांव वाले इसके लिए तैयार नहीं थे। सरकार का कहना था कि कई बार और कई स्तरों पर जमीन का अधिग्रहण करते-करते वह अब हार चुकी है और कुछ कर सकने की स्थिति में नहीं है। गांव वालों ने पूछा कि सारी ताकत होते हुए भी सरकार अगर इतनी मजबूर है तो वह बताए कि गांव के गरीब लोग क्या कर सकने की स्थिति में हैं? जमीन का पैसा लेने में किसी की रुचि नहीं है क्योंकि लोग कर्ज में इस तरह डूबे हैं कि पैसा मिलते ही उसके पर उग जाएंगे और वह महाजनों की तिजोरी की ओर फुर्र हो जाएगा।

बागमती परियोजना का तीसरा फेज 2006 में शुरू हुआ जिसमें नदी को रुन्नीसैदपुर से लेकर सोरमार हाट तक दोनों तरफ तटबन्ध बनाने का काम अभी चालू है। नदी की इस दूरी में पुनर्वास की बदइंतजामी की जो कहानियां सामने आएंगी उनके पहले क्या यह अच्छा नहीं होगा कि ढेंग से रुन्नीसैदपुर तक बने तटबन्धों के कारण उजड़े 1653 परिवारों का पुनर्वास का काम पूरा कर दिया जाए? क्या वह सरकार जो नवम्बर 2010 में भारी बहुमत से जीत कर सत्ता में फिर वापस आई उसका यह फर्ज नहीं बनता है कि वह 1971 से उजड़े हुए उन लोगों का पुनर्वास कर दे, जिसमें इन विस्थापितों का अपना कोई दोष नहीं था? वह लोग जो पिछले 40 वर्षों से खुले आसमान के नीचे जाड़ा, गर्मी और बरसात झेल रहे हैं, उनके प्रति एक काम करने वाली सरकार का इतना फर्ज तो जरूर बनता है।

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