बाघ बचाने का संकल्प लेना होगा

बाघ मारे जाने की दुखद खबरें सिर्फ कार्बेट नेशनल पार्क से ही नहीं आ रही हैं। वे बांधवगढ़, ताडोबा, नागरहोले या रणथंभौर से भी आती रहती हैं। महज 50 हजार या एक लाख रुपए के मानव के लालच के कारण बाघों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ रहा है। अवैध शिकार के अलावा छोटी-मोटी खेती कर जंगल किनारे गुजर-बसर करने वाले ग्रामीण भी बाघ के उस समय तात्कालिक दुश्मन बन जाते हैं, जब उनके मवेशी को कोई भूखा बाघ उठाकर ले जाता है। वे लोग बाघ को खत्म करने के लिए फिर कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं। पिछले दिनों दो ऐसी घटनाएँ घटीं, जिन्होनें बाघ प्रेमियों को फिर झकझोर कर रख दिया। एक, संसार चंद जो देश में बाघों का सबसे बड़ा दुश्मन और तस्कर माना जाता है, उसे एक मामले में सबूतों के अभाव में अदालत ने दोष मुक्त कर दिया है। हालांकि वह अभी जेल में बंद है। दूसरी, कार्बेट नेशनल पार्क (उत्तराखंड) में एक ही सप्ताह में तीन बाघों के मारे जाने की घटनाएँ सामने आईं, जो बताती हैं कि हिमालय की तराई में भी बाघ सुरक्षित नहीं हैं। करीब दो-ढाई वर्षों में टाइगर रिजर्व में 32 बाघ मारे जा चुके हैं। यह आंकड़ा निश्चित ही तकलीफ देने वाला है और बाघों के अस्तित्व की दृष्टि से खतरनाक है। 'प्रोजेक्ट टाइगर' कार्बेट नेशनल पार्क से अप्रैल 1973 में प्रारंभ हुआ था, लेकिन अब यह घटना बताती है कि वहां हालात खराब हैं।

आज विश्व बाघ दिवस है। पिछले छह-सात वर्षों से यह दिवस वैश्विक स्तर पर मनाया जाता रहा है। दुनिया में सिर्फ हाथ की उंगलियों पर गिने जा सकने वाले देशों जैसे चीन, रूस, थाईलैंड, मलेशिया, इंडोनेशिया, बांग्लादेश, तिब्बत, नेपाल, भूटान आदि देशों में विभिन्न प्रजातियों के बाघ पाए जाते हैं। भारत में विश्व की बाघ आबादी के 50 प्रतिशत से अधिक बाघ पाए जाते हैं और इसलिए विश्व के सभी पर्यावरण प्रेमी एवं संरक्षणविद भारत पर ही सारी उम्मीदें लगाए बैठे हैं।

लेकिन क्या बाघ भारत में पूरी तरह सुरक्षित हैं? क्या 'बाघ बचाओ आंदोलन' सिर्फ भावनाओं में बह रहा है या वास्तविकता पर आधारित है? क्या बाघ, सिंह, हाथी, चीतल, बंदर, भालू, गैंडा, गिलहरियां, रंग-बिरंगी चिड़ियाएं, सांप, कछुए, तितलियां आदि जहां ये सभी पलते-बढ़ते हैं, उन जंगलों, पहाड़ों आदि का संरक्षण वाकई जरूरी है?

अंतरराष्ट्रीय बाघ दिवस पर इन सभी प्रश्नों के उत्तर हमें खोजने होंगे, कुछ ठोस संकल्प लेने होंगे। उन हजारों-लाखों भारतीयों को, जिन्होंने कभी दो दिन या रात जंगलों में नहीं काटे होंगे और वे आईपीएल या बॉलीवुड की फिल्मों में या मॉल में की जाने वाली खरीदारी में शायद अधिक खुशी पाते होंगे। उनके लिए जंगलों की उपयोगिता समझना कठिन हो सकता है। लेकिन वे लोग जो भयानक उपभोक्तावाद के खतरों से वास्ता रखते हैं, उन्हें यह मालूम है कि जंगल बचेंगे तो पानी बचेगा। जंगल बचेंगे तो ही बाघ बचेंगे और यदि बाघ बचेंगे तो जंगल भी बच सकेंगे। जंगल, पहाड़, नदियां आदि से खिलवाड़ का नतीजा हमने उत्तराखंड में हाल ही में देखा और भुगता है।

प्रख्यात पर्यावरणविद व इंडियन इस्टीट्यूट ऑफ साइंस, बेंगलुरू के पूर्व प्राध्यापक डॉ. माधव गाडगिल का कहना है कि जंगलों को बचाने के विरोध में जो सशक्त लॉबी काम कर रही है, वह भ्रष्टाचारियों से घिरी हुई है। आज यदि बाघों की सुरक्षा पर गंभीर प्रश्नचिह्न है तो वह सिर्फ इसलिए है कि जंगल बेरहमी से और लगातार काटे जा रहे हैं। बाघों का आशियाना उजड़ता जा रहा है और हमारे सांसद खामोश हैं।

बाघ विशेषज्ञ डॉ. उल्हास कारंथ भी यह मानते हैं कि जब तक बाघ अधिवास (टाइगर हैबिटाट) का केंद्रीय क्षेत्र मानवीय हस्तक्षेप से पूरी तरह मुक्त नहीं होगा, बाघों का शिकार होता ही रहेगा। और इस चुनौती से निपटने पर ही सारा दारोमदार है। सर्वोच्च न्यायालय भी इस मुद्दे पर अपना फैसला दे चुका है। घोर भ्रष्टाचार, अति उपभोक्तावाद, राजनेताओं का जंगल व खनन माफ़िया को खुला संरक्षण जंगलों को दीमक की तरह चट कर रहा है। ऐसा संरक्षण 'उन्हें' कैसे मिलता है, यह सर्वविदित है, किंतु इसे रोकने में पर्यावरण लॉबी कमजोर पड़ जाती है।

बाघों पर संकटबाघ मारे जाने की दुखद खबरें सिर्फ कार्बेट नेशनल पार्क (उत्तराखंड) से ही नहीं आ रही हैं। वे बांधवगढ़ (मप्र), ताडोबा (महाराष्ट्र), नागरहोले (कर्नाटक) या रणथंभौर (राजस्थान) से भी आती रहती हैं। महज 50 हजार या एक लाख रुपए के मानव के लालच के कारण बाघों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ रहा है। अवैध शिकार के अलावा छोटी-मोटी खेती कर जंगल किनारे गुजर-बसर करने वाले ग्रामीण भी बाघ के उस समय तात्कालिक दुश्मन बन जाते हैं, जब उनके मवेशी (गाय-भैंस-बकरी आदि) कोई भूखा बाघ उठाकर ले जाता है। वे लोग बाघ को खत्म करने के लिए फिर कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं। तमिलनाडु में सत्या मंगलम बाघ अभ्यारण्य बनाने का विरोध स्थानीय लोग इन्हीं कारणों से कर रहे हैं।

यद्यपि केंद्र सरकार ने ऐसे मामलों में किसानों को मवेशियों के नुकसान की नगद भरपाई की व्यवस्था कर रखी है, फिर भी बाघों और इंसानों के बीच का यह द्वंद्व खत्म नहीं हो पा रहा है। कई गांव आज भी राष्ट्रीय उद्यानों/अभ्यारण्यों में बसे हैं।

इस सबके बावजूद सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि1973 में इंदिरा गांधी द्वारा व्यक्तिगत रुचि लेकर प्रारंभ किए गए प्रोजेक्ट टाइगर (राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण), प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाला राष्ट्रीय वन्य प्राणी बोर्ड एवं केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय मिलकर भी संयुक्त रूप से बाघ संरक्षण के पुख्ता इंतज़ाम क्यों नहीं कर पा रहे हैं? प्रकृति विनाश बनाम मानव विकास, यह पुरानी लड़ाई जनसंख्या वृद्धि के चलते और अधिक विकराल रूप ले रही है। बाघ बेचारा बेवजह उसमें पिसकर दम तोड़ रहा है।

हालांकि संरक्षण के उपायों की अब भरमार है, जन-जागृति भी तेजी से बढ़ रही है और निजी क्षेत्र भी बाघ संरक्षण में आगे आ रहे हैं फिर भी 1706 की बाघों की कुल संख्या जो 2011 की बाघ गणना में सामने आई थी, उसमें अगली गिनती तक जितनी वृद्धि होगी या कमी आएगी, इस पर सबकी नजर है। पिछली गिनती में बाघों की संख्या 1411 से बढ़कर 1706 हो गई थी अर्थात 295 बाघों की वृद्धि देश के तब के 39 व्याघ्र प्रकल्पों में दर्ज हुई थी और देश झूम उठा था। यह वृद्धि चारों ओर से संरक्षण हेतु बढ़ते दबाव, नए कानून और जन-जागृति से ही संभव हुई थी। इसे कायम रखने की चुनौती अब हमारे सामने है।

क्या विश्व बाघ दिवस के अवसर पर आज पूरा देश हमारी इस बेहतरीन प्राकृतिक विरासत को सहेजने का संकल्प नहीं ले सकता है? क्या हम भारतवासी हमारे जंगल एवं पर्यावरण बचाने के बारे में गंभीरता से अब भी नहीं सोचेंगे?

(लेखक मप्र वन्यप्राणी बोर्ड के सदस्य हैं।)

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