बैरी हुए बदरवा

7 Sep 2011
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जब बुनियादी आंकड़े भी न हों तो विज्ञान भला किस आधार पर पूर्वानुमान लगाए। मॉनसून पर निर्भरता को हमारे पिछड़ेपन का कारण बताया जाता है, मीडिया में और सरकारी दस्तावेजों में भी। मानो चौमासा गांव से आया कोई गरीब संबंधी है, जिससे हमारे नवधनाढ्य समाज को शर्म आती है पर यह नया समाज मॉनसून के बारे में अपने पुराने समाज से बहुत कुछ सीख सकता है। जैसे मॉनसून को मजबूरी नहीं मानना। इसकी बजाय उसे चौमासे का सुअवसर मानना, जिसके बिना हमारा जीवन चल ही नहीं सकता।

सोमवार 11 जुलाई को आषाढ़ के शुक्ल पक्ष की एकादशी है। पंचांग में देवशयनी एकादशी कहलाती है और घर-परिवार में देवसोनी ग्यारस। भगवान विष्णु इस दिन राजा बलि को दिए वचन का पालन करते हुए चार महीने के लिए सुतल में उनके द्वार पर चले जाएंगे। चार दिन बाद सावन लग जाएगा। देवतागण हरि का अनुसरण करते हुए चतुर्मास सोकर बिताएंगे। तब तक के लिए मंगल कार्य और उत्सव नहीं होंगे। दीवाली के बाद कार्तिक में शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवताओं का अलार्म बजेगा। देवउठनी ग्यारस को। हमारे यहां सबसे महत्व की बातें धार्मिक अनुष्ठान और कथाओं में बुनी जाती हैं। उन्हें जानने के लिए किसी डिग्री की जरूरत नहीं पड़ती। अनपढ़ भी चंद्रमा को देखकर समय का हिसाब रख सकता है। रुपए-पैसे से लेकर व्यापार और संबंध-व्यवहार के संस्कार धार्मिक पर्वों में टंके हुए हैं। पुराण उठा लें, चाहे लोकगीत। पंचांग का सबसे अनूठा समय है चौमासा। कुल जितना पानी बरसता है हमारे यहां, उसका 70-90 प्रतिशत चौमासे में बरसता है। चौमासे की उपज से ही साल भर का काम चलता है - साल भर का पानी, भोजन, पशुओं का चारा। चौमासा हमारे जीवन का आधार है। प्राण है।

चौमासे के दौरान अगर देवता पूजा-अर्चना का समय मांगे तो मुश्किल है। भक्ति तो संभव है चौमासे में, परंतु धार्मिक व सामाजिक अनुष्ठान के लिए जैसी तैयारी चाहिए उससे खेती का बड़ा नुकसान होगा। चूंकि हमारे ही देवता हैं तो हमारी मजबूरी जानते हैं। इसलिए सो जाते हैं, चार महीने बारिश से साल भर सींचने की आज़ादी देकर लेकिन चौमासे की बारिश में जो उलटफेर हो रहा है उससे तो विष्णु की भी नींद उड़ जाएगी। इस उलटफेर को ठीक से समझना हो तो पूछिए भूपेंद्र नाथ गोस्वामी से। वे निदेशक हैं पुणे में मौसम विभाग के ऊष्णदेशीय मौसम विज्ञान संस्थान के। उनका खास काम है चौमासे की बारिश का पूर्वानुमान लगाना। बहुत मुश्किल काम है। विज्ञान की अनेक विधाओं में मौसम सबसे कठिन है। क्योंकि विज्ञान का तरीका है नियतांकों को सामने रख परिवर्तीय को नापना। जो स्थिर है उससे वो जानना जो चंचल है। जमीन (ठोस) और पानी (तरल) को पढ़ना आसान है क्योंकि वो स्थिर हैं। वायुमंडल में तो सब कुछ चंचल होता है और सब कुछ तीन आयामों में चलायमान रहता है फिर प्रकृति नें हमें धरती और पानी पर चलने-तैरने लायक तो बनाया है, पर उड़ने लायक नहीं। आकाश में जाकर हवा की गति और दिशा जानना बहुत मंहगा और दुर्गम होता है।

यहां से कठिनाई बढ़नी शुरू होती है। ऊष्ण कटिबंध इलाके में मौसम का पूर्वानुमान लगाना आमतौर पर बहुत कठिन होता है। कटिबंधीय हवाओं का यह स्वभाव वैसा ही है जैसा तुलसीदासजी ने खल की प्रीति को बताया है - अस्थिर। गोस्वामीजी (मौसम वाले, रामायण वाले नहीं) का काम है खल की प्रीति का पूर्वानुमान। भूमध्य रेखा के आसपास सूर्य का प्रसाद कुछ ज्यादा ही मिलता है। यह गर्मी धरती और समुद्र से हवा में जाती है फिर तेजी से सीधे ऊपर की ओर। कब कहां चली जाएं कह नहीं सकते। भारतीय उपमहाद्वीप का भूगोल कुछ अजब ही है। हमारे यहां दुनिया का सबसे शक्तिशाली मॉनसून आता है। मॉनसून के एक आम दिन में 7,500 करोड़ टन वाष्प हवाओं के साथ हमारे पश्चिमी तट को लांघती है, जिसमें से 2,500 करोड़ टन पानी के रूप में बरस जाती है। कटिबंध के कई और इलाकों में मॉनसून आता है, पर इतना घनत्व और वेग कहीं नहीं होता। यह शक्तिशाली मॉनसून जा भिड़ता है दुनिया की सबसे ऊंची दीवार हिमालय से, जो हमारे उत्तर में खड़ी है। इसके पार है तिब्बत का पठार। लाखों साल पहले यह एशिया का दक्षिणी तट हुआ करता था जो भारतीय उपमहाद्वीप से टकराकर समुद्रतल से पांच कि.मी. ऊपर उठ गया है।

हिमालय और तिब्बत जरा भी गर्म होते हैं तो उनकी हवा वायुमंडल में बहुत ऊपर पहुंच जाती है। इससे वहां एक खालीपन बनता है, जिसे मौसम विज्ञानी डिप्रेशन कहते हैं। वे मानते हैं कि यही डिप्रेशन अरब की खाड़ी और भारतीय महासागर से ताकतवर मॉनसून हमारी तरफ खींच लाता है। लाजिमी है कि जलवायु में होने वाले परिवर्तन मॉनसून पर असर डालेंगे। ये असर क्या होंगे? पिछले कई साल से पुणे में गोस्वामी और उनके सहयोगी इस पर शोध कर रहे हैं। उनका पहला बड़ा शोध पत्र छह साल पहले छपा था। उसमें एक शताब्दी से ज्यादा के मॉनसून के आंकड़ों का विश्लेषण था। उससे कई तथ्य सामने आए। जैसे यह कि घमासान बारिश ज्यादा होने लगी है। 15 सेंटीमीटर से ज्यादा बारिश वाले दिनों में पिछले 20 साल में बढ़ोतरी हुई है। ऐसे दिनों में जितना पानी गिरता है वो भी बहुत बढ़ गया है। बादलों को फटने की आदत-सी पड़ गई है। पहले से प्रचंड होकर। तो मान लेना चाहिए कि मॉनसून की बारिश बढ़ रही है? कतई नहीं। गोस्वामी को यह भी पता लगा कि 10 सेमी. से कम बारिश के दिन घटते जा रहे हैं। जो इजाफा बादलों के फटने से होता है वो हल्की बारिश के कम होने से बराबर हो जाता है। कुल जितना पानी गिरता है उसका औसत जस का तस है। लेकिन इससे हमारी समृद्धि का औसत बिगड़ जाएगा। गोस्वामी बताते हैं कि तेज बारिश से बाढ़ व प्राकृतिक विपदाएं पहले से ज्यादा होंगी, क्योंकि तेज बरसात का पानी ठहरता नहीं है। हल्की बरसात न होने से सूखा और अकाल बढ़ेगा, क्योंकि रिमझिम वर्षा का पानी धरती सोख लेती है और भूजल में वृद्धि होती है।

इसमें टेढ़ और पैदा होगी क्योंकि हमें पता भी नहीं चलेगा कि बाढ़ कब और कहां आएगी और कहां अकाल। गोस्वामी का कहना है कि बरसात के अतिवाद से उसका पूर्वानुमान लगाना असंभव होता जा रहा है। घनघोर घटा बहुत जल्दी बनती है और निरीक्षण करने के पहले ही निकल जाती है। पी.एम. राजीवन नायर भारत मौसम विज्ञान विभाग के जाने-माने वैज्ञनिक हैं, तिरुपति में राष्ट्रीय वायुमंडल शोध प्रयोगशाला में काम करते हैं। उन्होंने भी मॉनसून पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों पर शोध किया, जो बताता है कि हवा में दबाव के घटने से जो डिप्रेशन बनते हैं वो घट रहे हैं। उनका अनुमान है कि बारिश की कम-बढ़ के पीछे यही कारण है। इससे छत्तीसगढ़ और झारखंड में बारिश कम हो रही है और वहां मॉनसून के पहुंचने में औसतन पांच दिन की देर होने लगी है। केरल में भी पानी कम बरसने लगा है, जबकि महाराष्ट्र में बारिश बढ़ी है। राजीवन नायर का शोध यह भी बताता है कि जुलाई के महीने में बारिश कम होने लगी है और अगस्त में बढ़ी है। इसका हमारी खेती पर प्रभाव पड़ना तय है। क्या किसानों को बुवाई का समय बदल देना चाहिए? हमारे यहां खेती-किसानी का कैलेंडर परंपरा और धार्मिक पर्वों में गुंथा हुआ है। इस हद तक कि कृषि की तारीखों को पर्वों की तारीखों से अलग कर पाना मुश्किल है।

तो क्या हमारे पंचांग में भी ये बदलाव लाने चाहिए? भगवान विष्णु को राजा बलि के द्वार पर जाने की तिथि भी बदलनी चाहिए? अगर बदलें भी तो आखिर किस आधार पर? किस मौसम मॉडल पर विश्वास करें हम? हरेक मॉडल का अपना अलग अनुमान है। मॉनसून पर जलवायु परिवर्तन का असर होता है, परंतु क्या असर होगा कहना कठिन है। मसलन विश्व का तापमान बढ़ने से भाप ज्यादा बनेगी और बारिश भी ज्यादा होगी, ऐसा प्रतीत होता है। पर उत्तरी ध्रुव पर जमी बर्फ के पिघलने से क्या होगा? ध्रुवीय बर्फ तो समुद्र में है सो बहुत फ़र्क नहीं पड़ेगा। पर ग्रीनलैंड की बर्फ़ तो मीठे पानी की है। वो पिघल गई तो उत्तरी अंध महासागर में खूब सारा मीठा जल आ जाएगा, जिसका घनत्व खारे पानी से कम होता है। जाहिर है इससे समुद्र की धाराओं का प्रभाव भी बदल जाएगा और वहां का समुद्र ठंडा पड़ेगा। गोस्वामी को विश्वास है कि इससे मॉनसून कमजोर पड़ेगा लेकिन फिर यह बात भी है कि बंगाल की खाड़ी का तापमान बाकी समुद्र की तुलना में और तेजी से ऊपर उठ रहा है। ‘सारे जलवायु मॉडल अपूर्ण और अविश्वसनीय हैं,’ गोस्वामी कहते हैं।

मॉडलों को दुरुस्त करने के लिए आज के महाकंप्यूटरों से भी कहीं ज्यादा शक्तिशाली महाकंप्यूटर चाहिए। जरूरत कुशल और प्रतिभाशाली मौसम वैज्ञानिकों की भी है। साथ ही बहुत सारी मौसमी वेधशालाओं की, जो जलवायु के आंकड़े इकट्ठा कर सकें। खासकर समुद्र के ऊपर से, क्योंकि समुद्र के ऊपर बादलों का स्वरूप क्या होता है यह अंतरिक्ष में घूमते उपग्रहों से नहीं पता चल सकता। जब बुनियादी आंकड़े भी न हों तो विज्ञान भला किस आधार पर पूर्वानुमान लगाए। मॉनसून पर निर्भरता को हमारे पिछड़ेपन का कारण बताया जाता है, मीडिया में और सरकारी दस्तावेजों में भी। मानो चौमासा गांव से आया कोई गरीब संबंधी है, जिससे हमारे नवधनाढ्य समाज को शर्म आती है पर यह नया समाज मॉनसून के बारे में अपने पुराने समाज से बहुत कुछ सीख सकता है। जैसे मॉनसून को मजबूरी नहीं मानना। इसकी बजाय उसे चौमासे का सुअवसर मानना, जिसके बिना हमारा जीवन चल ही नहीं सकता। एक बार यह मान लें तो फिर राह आसान होगी। फिर हमें समझ में आएगा कि कैसे इतनी सहस्त्राब्दियों से उपमहाद्वीप में लोग जीते आए हैं, समृद्ध बने हैं, खुशहाल रहे हैं। बदल रहा है मॉनसून का मिजाज घमासान बारिश अब ज्यादा होने लगी है रिमझिम बारिश के दिन घटते जा रहे हैं जुलाई में बारिश कम और अगस्त में बढ़ी है
 

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