बांदा में मनरेगा के तालाब

16 Jan 2013
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मनरेगा के तहत खोदे गए तालाब ज्यादातर उपयोगी नहीं है। कारण कि उनको बनाते समय न तो स्थान, न ही उनके कैचमेंट और न ही निकासी का ध्यान रखा गया है। इन कारणों से ये तालाब बहुत उपयोगी नहीं रह गए हैं। ज्यादातर सूखे पड़े हुए हैं। तालाबों को बनाने में न तो लोक ज्ञान का इस्तेमाल किया गया है, न ही परंपरागत ज्ञान का इस्तेमाल हुआ है और न ही आधुनिक विज्ञान का। इनको बनाने में दबंगई, पैसा और लूट-खसोट का इस्तेमाल ज्यादा दिखता है। ये तालाब लोगों के संकट को बढ़ा ही रहे हैं, बता रहे हैं भारत डोगरा।

बुंदेलखंड क्षेत्र में तालाबों की बहुत समृद्ध परंपरा रही है। आस-पास कितने ही अच्छे व पुराने पारंपरिक जल स्रोत देखे जा सकते हैं, पर हाल में बने इन तालाबों में न तो परंपरागत ज्ञान का प्रयोग किया गया और न ही आधुनिक विज्ञान का। उपयोगिता और गुणवत्ता को भुला दिया गया और जन-भागीदारी से बचा गया। इसमें धन तो बर्बाद होना ही था। अब भी गलती सुधारकर जन-भागीदारी से कार्य किया जाए, तो तस्वीर बदल सकती है।

मनरेगा के तहत होने वाले काम में सबसे बड़ी संभावना जल संग्रहण और संरक्षण की थी, पर उत्तर प्रदेश के बांदा जिले के नरैनी ब्लॉक में बने अनेक तालाबों को देखा, तो लगा कि यह सुनहरा अवसर गंवा दिया गया है। इनमें न तो पानी है, न पानी आने का रास्ता, न ही जल-ग्रहण क्षेत्र का कोई ध्यान रखा गया है। करोड़ों रुपये की लागत और मजदूरों की मेहनत, सब बेकार चली गई। सहबाजपुर पंचायत के ‘मॉडल’ तालाब में घेराबंदी है, बैठने की पैड़ी बनी है, पर इसमें पानी आने का कोई रास्ता नहीं है। तालाब साल भर सूखा पड़ा रहता है। बच्चे इसमें कभी कबड्डी खेल लेते हैं, तो कभी क्रिकेट। कभी महिलाएं उपले पाथ लेती हैं। आस-पास के लोगों ने बताया कि इसमें मनरेगा के लगभग 20 लाख रुपये बर्बाद हुए। इसमें पानी नहीं बहता, भ्रष्टाचार बहता है, क्योंकि इसकी कई बार खुदाई दिखाकर पैसे प्राप्त किए गए हैं। थोड़ा आगे, चंद्रपुरा पंचायत के मोहरछा तालाब की भी यही हालत है। न पानी, और न पानी आने का मार्ग। काफी खुदाई की गई, बीच में एक कुआं या चेक वेल भी बनाया गया है। घेराबंदी है, बैठने की पटिया है, नहाने का स्थान है, नहीं है तो बस पानी और उसके आने की संभावना। यह तालाब भी साल भर सूखा ही रहता है। पशुओं को पानी पिलाने की नाद में एक बूंद पानी नहीं था। इस सूखे तालाब के आस-पास कोई गांववासी नजर नहीं आया। तालाब के गेट पर बड़ा-सा ताला लगा हुआ था।

लगता है कि संबंधित अधिकारियों की अक्ल पर भी ताला पड़ा है। आखिर किस आधार पर ये जल-विहीन तालाब बनाए गए और इन्हें स्वीकृति दी गई? गांव का बच्चा भी जानता है कि जल-ग्रहण क्षेत्र और पानी आने के मार्ग के बिना तालाब का कोई मतलब नहीं। बात केवल एक तालाब की नहीं है। अकेले नरैनी ब्लॉक में ही बिलहरका, पंचमपुर, गड़हा, नौगंवा, सड़हा, परसाहर, कटरा-कालिंजर, आदि कितने ही पंचायती क्षेत्रों में मनरेगा के ये सफेद हाथी देखे जा सकते हैं। किसी तालाब का 15 लाख रुपये का बजट था, तो किसी का 20 लाख का। कितनी ही राशि बेकार हो गई।

सहबाजपुर के मॉडल तालाब के आस-पास लोगों से पूछा कि अगर यह बेकार था, तो आपने विरोध क्यों नहीं किया? पहले लोग चुप रहे, फिर बताया कि ताकतवर लोगों से कौन बैर मोल ले। बुंदेलखंड क्षेत्र में तालाबों की बहुत समृद्ध परंपरा रही है। आस-पास कितने ही अच्छे व पुराने पारंपरिक जल स्रोत देखे जा सकते हैं, पर हाल में बने इन तालाबों में न तो परंपरागत ज्ञान का प्रयोग किया गया और न ही आधुनिक विज्ञान का। उपयोगिता और गुणवत्ता को भुला दिया गया और जन-भागीदारी से बचा गया। इसमें धन तो बर्बाद होना ही था। अब भी गलती सुधारकर जन-भागीदारी से कार्य किया जाए, तो तस्वीर बदल सकती है। कम से कम नए जल संरक्षण कार्य ठीक से किए जा सकते हैं।

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