बांध विजय गाथा -दावे झूठे साथी सच्चे, भाग -2

30 Nov 2013
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बांधों के लाभ हानि से लेकर उनके पर्यावरणीय, सामाजिक, आर्थिक, पारिस्थिकीय, राजनैतिक असरों पर साहित्य सामने है। जिससे सिर्फ आंख मूंद कर ही नकारा जा सकता है। बांध के पूर्व अध्ययनों से लेकर बांध बनने के बाद भी होने वाली परिस्थिति का आकलन हो रहा है। तभी तो बांध की लड़ाई मजबूत हुई है। विकास के मंदिर के नाम से कहा गया भाखड़ा बांध रेत के टिब्बों से भरा है। विस्थापितों का नया संघर्ष वहां खड़ा हुआ है। 1960 में लिखे विस्थापितों के नम्र निवेदन से 2013 तक के बांध विरोधी संघर्ष का अंतर तो सामने है उससे सरकारों व बांध समर्थक लॉबी के हथियार भोथरे सिद्ध हुए हैं। एक वर्ग है जो बांध परियोजनाओं का सीधा लाभ मौद्रिक रूप में पाता है, इसमें ठेकेदार-पूँजीपति-सरकारी दलाल और इनके इर्द-गिर्द के समूह ही बांध सर्मथकों के रूप में खड़ा दिखता है। यहां हम ठेकेदार और स्थानीय राजनैतिक नेताओं को ठेकेदारों से अलग नहीं कर रहे हैं। इनके लिए बांध अपने में बहुत बड़े लाभ का सौदा है। बांध को हरित ऊर्जा के रूप में प्रचारित किया जाता है। पर्यावरण-पुनर्वास समस्याओं को बहुत ही कम आंक कर परियोजना की लागत कम दिखाई जाती है, फिर बांधों से लाभ तो दिखेगा ही। किंतु इन तर्कों के साथ स्थानीय लोगों को रोज़गार का भ्रम और बिजली की कमी का रोना, देश के विकास आदि जैसे तर्कों को अब तक बन चुके 5500 से ज्यादा बांधों ने ही गलत साबित कर दिया है।

बांध, नदी व लोगों का दक्षिण एशियाई नेटवर्क (www.sandrp.in) व अन्य स्रोतों के अनुसार भारत भर में बने लगभग 5500 बड़े बांधों से 5.50 करोड़ से ज्यादा लोग विस्थापित हुए हैं। करीब 44 लाख हेक्टेयर ज़मीन 4528 बांधों में डूबी है। देश में बांधों के कारण विस्थापितों में से 47 प्रतिशत के लगभग आदिवासी हैं। 2 लाख करोड़ से ज्यादा निवेश के बाद भी घोषित दावों के अनुरूप बिजली पैदा नहीं हो सकी, न सिंचाई ही हो पाई। लगभग 30 प्रतिशत विद्युत का पारेषण में नुकसान हो जाता है। बांधों से मात्र 10 प्रतिशत अनाज उत्पादन में वृद्धि हो पाई है। देश में चूहे 10 प्रतिशत अनाज उत्पादन खा जाते है तथा 20 प्रतिशत अनाज गोदामों में सड़ जाता है। बांध जलाशयों से 4.58 करोड़ टन कार्बन डाइऑक्साइड पैदा होती है। जो पर्यावरण/मौसम परिवर्तन का प्रमुख कारण माना गया है।

रोज़गार को बांध के संदर्भ में जरा देखें कि बांधों में कितना रोज़गार, कितनों को आज तक कितने समय तक के लिए मिला है? कुछ राज्यों में जैसे हिमाचल व उत्तराखंड में स्थानीय लोगों के लिए 70 प्रतिशत रोज़गार देने की नीति बनी भी है पर उसका पालन नही होता हैं। किसी भी परियोजना में 70 प्रतिशत स्थाई रोज़गार, स्थानीयों को नहीं मिला। जो मिले हैं वो किस स्तर के हैं और कितनों को मिले हैं? कितने समय तक ये रोज़गार टिके हैं? कितने स्थाई थे? बन चुके बांधों के प्रभावित बता सकते हैं। देश में आज तक कोई ऐसा अध्ययन नहीं है जो यह बताए की बांध से कितना रोज़गार बड़ा है। हां यह आंकड़े ज़रूर मौजूद है कि बांधों से कितना विस्थापन हुआ है जिससे स्थायी रोज़गार छिना है।

जन आंदोलनों के मजबूत, ईमानदार नेतृत्व के साथ देश में अध्ययनकर्ताओं, वैज्ञानिकों, पत्रकारों, इंजीनियरों का एक बहुत बड़ा वर्ग तैयार हुआ है जो बांधों की असलियत खंगाल रहा है। लगातार सवाल खड़े कर रहा है। 1999 में विश्वस्तरीय लेखिका अरुंधती राय के बड़े बांधों पर लिखे लेख ने भारतीय न्यायपालिका तक को विचलित कर दिया था। अरुंधती ने उसके बाद देश-विदेश के लेखकों, बुद्धिजीवियों, कलाकारों के लोगों से अपील की और नर्मदा घाटी में 30 जुलाई से 4 अगस्त 1999 को रैली फॉर द वैली का आयोजन किया। बड़े बांधों का प्रश्न नए तार्किक तरह से रख कर राय ने फिर से इस बहस को आगे बढ़ाया।

प्रशांत भूषण, संजय पारिख, रित्विक दत्ता और राहुल चौधरी जैसे वकीलों के कारण देश में बांधों से त्रस्त लाखों प्रभावितों को बड़ी मदद मिली है। जिन्होंने अदालतों में बिना एक पैसा लिए बरसों से बांधों के प्रभावितों की मुकदमें लड़े है। बिना पैसा लिए सच्चे न्याय के लिए बरसों से न्यायालयों में कानूनी पेंचों पर खड़े होना आसान नहीं होता। जबकि सामने सरकार के महाअधिवक्ता हो या बांध कंपनियों के लाखों की फीस लेने वाले वकील खड़े हों।

बांधों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करते लोगबांधों के लाभ हानि से लेकर उनके पर्यावरणीय, सामाजिक, आर्थिक, पारिस्थिकीय, राजनैतिक असरों पर साहित्य सामने है। जिससे सिर्फ आंख मूंद कर ही नकारा जा सकता है। बांध के पूर्व अध्ययनों से लेकर बांध बनने के बाद भी होने वाली परिस्थिति का आकलन हो रहा है। तभी तो बांध की लड़ाई मजबूत हुई है। विकास के मंदिर के नाम से कहा गया भाखड़ा बांध रेत के टिब्बों से भरा है। विस्थापितों का नया संघर्ष वहां खड़ा हुआ है। 1960 में लिखे विस्थापितों के नम्र निवेदन से 2013 तक के बांध विरोधी संघर्ष का अंतर तो सामने है उससे सरकारों व बांध समर्थक लॉबी के हथियार भोथरे सिद्ध हुए हैं।

इसलिए कोई भी सरकारी अधिकारी से लेकर मंत्री तक बांध के सवाल पर खुली चर्चा करने को तैयार नहीं है। उन्हें सामना करने की हिम्मत नहीं होती। सुदूर महाराष्ट्र के आदिवासी अंचल से निकलकर पड़वी बाई मंत्री से पूछती है कि पहले ज़मीन दिखाओ फिर बांध की बात करो।

खासकर सरदार सरोवर बांध के विरोध में 28 वर्षों से संघर्षरत ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ के साथियों ने देश भर के विभिन्न वर्ग के लोगों को नर्मदा के संघर्ष से जोड़ा और बांध पर हर तरह से सवाल उठाए। आज भी सरदार सरोवर मे 17 मीटर ऊंचे दरवाज़े नहीं लग पाए हैं। ‘नर्मदा बचाओं आंदोलन‘ एक बांध विरोध का सशक्त संघर्ष और देश भर के आंदोलनों की प्रेरणा का स्रोत बना है। आंदोलन की प्रणेता सुश्री मेधा पाटकर ने बांध विरोध के संघर्ष को देश के विकास की अवधारणा के साथ जोड़कर मुद्दे को व्यापक और गहन बनाया है। उनका संघर्ष इतिहास के पन्नों में सुरक्षित होगा ही।

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