बांस की व्यथा कथा

1 Jun 2011
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पर्यावरणविद् इसे 'हरा सोना' भी कहते हैं । बांस उच्च मात्रा में जीवनदायी ऑक्सीजन गैस का उत्सर्जन करता है और कार्बन डाइऑक्साइड को सोखता है। बांस में उच्च तीव्रता के विकिरण (रेडिएशन) को सोखने की अद्भुत क्षमता है, इसलिए यह मोबाइल टॉवरों के दुष्प्रभाव को रोकने में काफी मददगार साबित हो सकता है। बांस प्रदूषण रहित ईंधन भी है क्योंकि यह जलने पर बहुत कम कार्बन डाइऑक्साइड गैस का उत्सर्जन करता है।

पर्यावरण का गहरा मित्र बांस किसान के लिए जितना उपयोगी है, उतना ही उससे दूर भी है। इसके बावजूद लोक-शिल्प का एक बड़ा हिस्सा बांस पर निर्भर है। बसबिट्टी यानी बांसों का जंगल। बिहार के सुपौल जिले में बुजुर्ग बताते हैं कि कभी यहां बांस के घने जंगल थे, इसलिए गांव का नाम बंसबिट्टी रखा गया। आज बंसबिट्टी में बांस के पेड़ खोजने पर भी नहीं मिलते। बिहार के ही अररिया और किशनगंज जिलों में नेपाल से सटे सीमाई इलाके आज भी बंसवना (बांस के वन) नाम से जाने जाते हैं, लेकिन अब इस क्षेत्र में बांस के पेड़ों के निशान भी नहीं बचे हैं। तस्कर, वन माफिया और भ्रष्ट अधिकारियों के गंठजोड़ ने बंसवना के 'भूट' (बांस की जड़)तक बेच डाले।

यह दास्तान सिर्फ बंसबिट्टी या अररिया-किशनगंज की नहीं, बल्कि समूचे पूर्वोत्तर और मध्य भारत की है। गौरतलब है कि पूर्वोत्तर और मघ्य भारत बांस के वन, बांस की देसी प्रजाति और इसकी खेती के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध रहे हैं। हालांकि बांस को लेकर कोई सिलसिलेवार सर्वेक्षण नहीं हुआ है, लेकिन बांस के पेड़ लगातार घटते जा रहे हैं। सरकार भी इससे अनजान नहीं है। पिछले दो-तीन दशकों से सरकारें बांस के संरक्षण के लिए योजना-परियोजना चलाती आ रही हैं। सन् 2006 में केंद्र सरकार ने बांस की खेती को बढ़ावा और संरक्षण देने के लिए महत्वाकांक्षी राष्ट्रीय बांस मिशन (एनबीएम) योजना की शुरुआत की थी। बीते अप्रैल में योजना के पांच साल पूरे हो गये, लेकिन कई राज्यों में अभी तक इसकी शुरुआत भी नहीं हो सकी है।

छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश को छोड़कर अधिकतर राज्यों में यह योजना कागज पर ही दम तोड़ रही है। बिहार में प्रखंड और जिले के अधिकतर अधिकारियों को भी नहीं मालूम कि ऐसी कोई योजना अस्तित्व में है। पिछले दिनों बिहार सरकार ने इस बाबत अखबारों में विज्ञापन प्रकाशित किये तो कार्यालयों में किसानों के आवेदन आने लगे, लेकिन एक पखवाड़े पहले तक एक भी किसान को योजना का लाभ नहीं मिल सका था। केंद्र सरकार ने सन् 2006 में वन अधिकार कानून के जरिये बांस को लघु वनोत्पाद (माइनर फॉरेस्ट प्रोडक्ट) की श्रेणी में डाल दिया था। इसके बावजूद आज भी अधिकतर राज्यों की सरकारें इस कानून को अमल में लाने से कतरा रही हैं। हाल में ही महाराष्ट्र सरकार ने इस दिशा में जरूर एक पहल की है।

अब महाराष्ट्र के आदिवासी किसान बांस को औद्योगिक और वाणिज्यिक इस्तेमाल में ला सकते हैं। इसे आश्चर्य ही कहा जायेगा कि जिसे वनस्पति विज्ञान स्पष्ट रूप से घास मानता है, उसे भारत सरकार स्वतंत्रता के छह दशक बाद तक लकड़ी-पेड़ ही मानती रही और इस मान्यता के कारण बांस की खेती चौपट होती चली गयी। लंबे समय से यह बहस रही है कि बांस लकड़ी है या घास। भारतीय वन अधिनियम बांस को लकड़ी मानता है, जिसके कारण इस पर वन विभाग का अधिकार है। जो लोग बांस की खेती करते हैं, वे भी उसे तब तक काट नहीं सकते, जब तक कि वन विभाग से इजाजत नहीं मिलती। किसानों को बांस काटने की इजाजत लेने से पहले कागजी खानापूर्ति की जटिल जंग लड़नी पड़ती है। ज्यादातर राज्यों में बांस को काटने के लिए ट्रांजिट पास की जरूरत होती है। इसके लिए बांस के मालिक को राजस्व रिकॉर्ड भरना होता है और फिर वन विभाग से पेड़ काटने की अनुमति लेनी पड़ती है।

बांस के पेड़बांस के पेड़लेकिन हाल में ही केंद्रीय पर्यावरण और वन मंत्री जयराम रमेश ने सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखकर कहा है कि बांस घास है, लकड़ी नहीं। मुख्यमंत्रियों से कहा गया है कि वे अपने-अपने वन प्रशासन को बता दें कि बांस पेड़ नहीं है और उस पर किसानों का पूरा अधिकार है। भारतीय संस्कृति में भी बांस का विशेष महत्व रहा है। पर्व-त्योहार, रीति-रिवाजों में बांस का इस्तेमाल किसी न किसी रूप में होता है। लोक-शिल्प के विकास में बांस का अतुलनीय योगदान है। बांस से बनी कलात्मक सामग्री से लेकर बांस के घरों तक की चर्चा विदेश में भी होती है। यह बात और है कि बांस-आधारित शिल्प, कला और उसकी तकनीक आज तेजी से गुम हो रही है। स्मरण और अनुकरण के सहारे जिंदा रहने वाली सदियों पुरानी बांस की कताई-कढ़ाई दस्तावेजीकरण के अभाव में अब लुप्तप्राय हो चली है।

प्लास्टिक क्रांति के कारण बांस और जूट-आधारित कुटीर और लघु उद्योग भी दम तोड़ रहे हैं। इस सबके बावजूद आज भी भारत की ग्रामीण आबादी बांस से घरेलू उपयोग की बहुत-सी चीजें बनाती है। सबसे बड़ी बात यह कि बांस पर्यावरण का गहरा मित्र है। पर्यावरणविद् इसे 'हरा सोना' भी कहते हैं । बांस उच्च मात्रा में जीवनदायी ऑक्सीजन गैस का उत्सर्जन करता है और कार्बन डाइऑक्साइड को सोखता है। बांस में उच्च तीव्रता के विकिरण (रेडिएशन) को सोखने की अद्भुत क्षमता है, इसलिए यह मोबाइल टॉवरों के दुष्प्रभाव को रोकने में काफी मददगार साबित हो सकता है। बांस की जड़ जमीन को इतनी मजबूती से पकड़ती है कि तेज आंधी भी इसे उखाड़ नहीं पाती। बांस की जड़ मिट्टी को कटाव से बचाती है और इस खूबी के कारण ही यह बाढ़ वाले इलाके के लिए वरदान है।

बांस प्रदूषण रहित ईंधन भी है क्योंकि यह जलने पर बहुत कम कार्बन डाइऑक्साइड गैस का उत्सर्जन करता है। बांस की उपयोगिता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इसका इस्तेमाल लगभग 1500 तरीकों से किया जा सकता है। पूर्वोत्तर में इससे कई तरह की घरेलू दवाएं बनायी जाती हैं। च्यवनप्राश बनाने के लिए जरूरी तत्व वंशलोचन बांस के तने से ही प्राप्त होता है। चीन में बांस की कोपलें लोगों की पसंदीदा सब्जी है और वहां के शर्मीले पशु पांडा का प्रिय भोजन भी यही है। एक अध्ययन के मुताबिक, बांस देश के पांच करोड़ ग्रामीणों को रोजगार दे सकता है। देश में बांस की लगभग 66 प्रतिशत पैदावार पूर्वोत्तर के राज्यों में होती है, लेकिन इन राज्यों में बांस में कभी-कभी अशुभ फूल (बौर) उग आते हैं, जो अकाल के साथ-साथ चूहों के उपद्रव की गंभीर समस्या उत्पन्न करते हैं। लेकिन सरकार इसका समाधान खोजने में असफल है। मिजोरम में मिजो विद्रोह की शुरुआत इसी समस्या के गर्भ से हुई थी। बांस की दुर्दशा पर बाबा नागार्जुन की चर्चित कविता 'सच न बोलना' की ये पंक्तियां सटीक बैठती हैं “जंगल में जाकर देखा, नहीं एक भी बांस दिखा/ सभी कट गये सुना, देश को पुलिस सबक रही सिखा।”
 

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