बढ़ती आबादी के बढ़ते दबाव

पृथ्वी पर बढ़ती जनसंख्या का भार
पृथ्वी पर बढ़ती जनसंख्या का भार
पृथ्वी पर बढ़ती जनसंख्या का भार (फोटो साभार - हॉलीडेसैंडोबसर्वेंसेस)कहा जाता है कि धरती की भी धारण करने की अपनी सीमा होती है। इस सीमा को पार करने के नतीजे जल, जंगल और जमीन की बौखलाहट के रूप में हम भुगत रहे हैं। हमारी लगातार बढ़ती आबादी साथ उसकी जरूरतों की आपूर्ति के लिये प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव बढ़ रहा है और नतीजे में हम बार-बार प्रकृति के प्रकोप का सामना करने को अभिशप्त हो गए हैं।

संयुक्त राष्ट्र की ओर से जारी किये गए एक बयान में कहा गया है कि वर्ष 1968 में आयोजित ‘तेहरान अन्तरराष्ट्रीय मानवाधिकार सम्मेलन’ ने अभिभावकों को बच्चों की संख्या तय करने का अधिकार दे दिया था। पचास साल पहले हुई इस ‘तेहरान घोषणा’ ने मानव इतिहास में एक बड़ा बदलाव किया था। इसी घोषणा के माध्यम से दुनिया भर की महिलाओं को यह अधिकार मिल गया था कि वे बच्चे को जन्म देने और अनचाहे बच्चे को दुनिया में लाने से रोक सकती हैं।

वर्ष 1989 में यूनाइटेड नेशंस डेवलपमेंट प्रोग्राम (यूएनडीपी) की गवर्निंग काउंसिल ने सिफारिश की थी कि इस सन्दर्भ में प्रतिवर्ष ग्यारह जुलाई को विश्व जनसंख्या दिवस मनाया जाना चाहिए। इस पहल के अन्तर्गत पहले वर्ष में दुनिया के तकरीबन नब्बे देशों ने अपनी सक्रिय हिस्सेदारी दर्ज करवाई थी।

दिलचस्प है कि परिवार कल्याण कार्यक्रमों में वर्ष 1952 से भारत अग्रणी भूमिका में रहा है, लेकिन वर्ष 2018 के ताजा आँकड़ों के मुताबिक भारत विश्व का दूसरा सर्वाधिक जनसंख्या (लगभग 135 करोड़) वाला देश बन गया है। चीन अभी भी पहले क्रम पर बना हुआ है, किन्तु वर्ष 2025 में चीन को पीछे छोड़ते हुए भारत दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश बन जाएगा। वर्ष 2050 तक चीन अपनी एक बच्चा नीति के कारण भारत की आबादी का सिर्फ 65 फीसदी ही रह जाएगा।

भारत सहित दुनिया के 178 देशों ने वर्ष 1994 में काहिरा इंटरनेशनल कान्फ्रेंस ऑन पॉपुलेशन के माध्यम से इस बात पर जोर दिया था कि स्वैच्छिक परिवार नियोजन प्रत्येक व्यक्ति का अधिकार है। गौर किया जा सकता है कि भारत सहित अन्य विकासशील देशों में तकरीबन साढ़े इक्कीस करोड़ महिलाएँ ऐसी हैं, जो बच्चे को जन्म देने में थोड़ा विलम्ब करने की इच्छुक हैं, किन्तु आधुनिक गर्भनिरोधकों की जानकारी के अभाव में अपने अधिकारों का इस्तेमाल करने से वंचित रह जाती हैं। इससे उनकी सेहत ही नहीं बल्कि प्रजनन क्षमता भी प्रभावित होती है। विश्व बैंक ने अभी-अभी बताया है कि लड़कियों को शिक्षित नहीं करने की वजह से दुनिया पर तीन सौ खरब डॉलर का भार पड़ रहा है।

वर्ष 1989 में जब ग्यारह जुलाई को विश्व जनसंख्या दिवस मनाने का फैसला किया गया था, तब दुनिया की आबादी पाँच अरब थी, जबकि वर्ष 2018 में इसी तारीख पर दुनिया की आबादी सात अरब अस्सी करोड़ आँकी गई है। इस वर्ष अन्तरराष्ट्रीय जनसंख्या दिवस का आधार विषय ‘परिवार नियोजन मानवाधिकार दिवस’ रखा गया था।

आबादी का बढ़ता आकार भारत सहित दुनिया के अधिकतर देशों के लिये परेशानी का सबब बनता जा रहा है। बढ़ती आबादी के कारण सीमित संसाधनों पर बोझ बढ़ता जा रहा है। भारत सरकार की ओर से वर्ष 2000 में जनसंख्या आयोग का गठन करते हुए वर्ष 2017 में परिवार विकास भी प्रस्तुत किया गया लेकिन परिवार नियंत्रण और परिवार कल्याण के लिये शुरू किये गए इन दोनों ही उपक्रमों का कोई खास लाभ दिखाई नहीं दिया।

भारत में जनसंख्या वृद्धि दर का ऊँचा होना कोई उत्साहजनक स्थिति नहीं है। देश के ग्रामीण इलाकों में आज भी बच्चों को आजीविका अर्जित करने में सहायक उपादान माना जाता है। गरीबी अथवा गन्दी व तंग बस्तियों में रहने वालों के हालात तो बेहद दयनीय और चिन्ताजनक ही कहे जाएँगे। इन इलाकों में सामाजिक, पारिवारिक तथा आर्थिक स्थितियों के खराब रहने के कारण बच्चों को पैसा कमाने के लिये बचपन से ही लगा दिया जाता है। किशोरवय की लड़कियों को सामाजिक विसंगतियों के चलते कई तरह की परेशानियों से जूझना पड़ता है। कम उम्र में शादी कर दिये जाने से लड़कियों को सेहत सम्बन्धी परेशानियाँ भी उठानी पड़ती है।

लड़कियों के मामले में घरेलू हिंसा, यौनाचार मातृ-मृत्यु तथा शिशु-मृत्यु आदि की आशंकाएँ सदा ही बनी रहती हैं। उन्हें बदहाली से उबारने के लिये किशोरवस्था से ही महिला सशक्तिकरण जरूरी है, शिक्षा तथा कौशल विकास जैसे क्षेत्रों में भी लड़कियों के लिये बहुत कुछ किया जा सकता है। दक्षिण कोरिया, जापान, सिंगापुर और मलेशिया जैसे देशों ने युवा वर्ग की संख्या का अधिकतम लाभ लेने के लिये इस दिशा में उल्लेखनीय प्रगति की है।

अपनी दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति से भारत भी ऐसे ही प्रयास कर सकता है और विकास के वांछित लक्ष्य हासिल कर सकता है। इस तरह भारत अपनी पैंतीस-छत्तीस करोड़ युवा आबादी की उपेक्षा से उपजे सामाजिक-असन्तोष के खतरे को भी कम कर सकेगा।

प्राचीन लेखक तेर्तुल्लियन ने दूसरी सदी में लिखा था कि पृथ्वी की क्षमता के मुताबिक ही आबादी होना चाहिए। ऐसा माना जाता है कि इस पृथ्वी पर चार अरब लोग ही बेहतर जीवन जी सकते हैं और पृथ्वी अधिकतम सोलह अरब से अधिक आबादी का भार वहन नहीं कर सकती।

थामस माल्थोस जैसे विद्वान ने भी कहा था कि पृथ्वी के संसाधन सीमित हैं किन्तु इसकी चिन्ता किये बगैर सीमित संसाधनों की तुलना में मानवजाति की आबादी कई गुना बढ़ जाएगी, अर्थात जनसंख्या वृद्धि दर की विस्फोटक स्थिति के कारण पृथ्वी की अन्तिम भारधारक क्षमता कभी भी ध्वस्त हो सकती है।

माना जा रहा है कि वर्ष 2050 तक दुनिया की आबादी आठ अरब से बढ़कर साढ़े दस अरब तक पहुँच जाएगी, क्योंकि प्रतिवर्ष साढ़े सात करोड़ की दर से पृथ्वी पर आबादी का विस्तार हो रहा है। वर्ष 2050 तक दुनिया में सात देश ऐसे होंगे जिनके पास दुनिया की आधी आबादी होगी। जाहिर है, अगर सक्षम कार्रवाई नहीं की गई तो उन सात देशों में पहले क्रम पर भारत ही होगा।

बढ़ती आबादी के बढ़ते दबाव की वजह से एक ओर जहाँ जल, जमीन, जंगल और आजीविका के लिये संघर्ष बढ़ेंगे वहीं दूसरी ओर आवास, शिक्षा, चिकित्सा, भोजन, नगर-नियोजन तथा अन्य दैनिक जीवन में उपयोगी चीजों की उपलब्धता और माँग का भी विस्तार होगा। आबादी बढ़ने और संसाधन न बढ़ने से दुनिया के कई देश निरन्तर बिगड़ते पर्यावरण, खाद्य-आपूर्ति, ऊर्जा एवं जलसंकट, यातायात के संसाधन, भुखमरी, बेरोजगारी, अपराध सहित आत्महत्या और आतंकवाद जैसी कई गम्भीर समस्याओं का सामना कर रहे हैं।

वैश्विक स्तर पर आक्रामक उपभोग के चलते ऊर्जा की खपत में अनाप-शनाप वृद्धि हुई है जिसके चलते दुनिया के अनेक नगर और महानगर जलवायु परिवर्तन व पर्यावरण प्रदूषण के शिकार होते जा रहे हैं, इन्हें ‘हीट आइलैंड’ तक भी कहा जाने लगा है।

पिछले दशक में फ्रांस की राजधानी पेरिस ने भीषण लू का भीषण प्रकोप झेला है। अमेरिका के ह्यूस्टन और बैंकाक के थाइलैंड ने बाढ़ की तबाही भुगती है और न्यूयार्क ने बर्फीली बारिश। इतना ही नहीं छः सात बरस पहले न्यू ऑरलियन्स में आये कैटरीना तूफान के कहर को कैसे भुलाया जा सकता है?

अतीत को आतंकित कर देने वाली कोई भी प्राकृतिक आपदा क्या सहज ही विस्तृत की जा सकती है? वैश्विक-स्तर पर बढ़ती जा रही आबादी के कारण ही पर्यावरण के इन खतरों को देखा गया है। आज दुनिया में एक करोड़ से अधिक आबादी वाले तकरीबन तीस से अधिक महानगर हो गए हैं, जिनमें टोक्यो, जकार्ता, शंघाई, ओसाका, कराची, ढाका और बीजिंग आदि शामिल हैं।

भारत के दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता जैसे शहर भी उसी श्रेणी में शुमार होते हैं। भारतीय सन्दर्भ में बढ़ती आबादी का बढ़ता दबाव एक बड़ी चुनौती हैं क्योंकि भारत में वर्ष 2001 से 2011 के बीच आबादी के ग्राफ में सीधे-सीधे पैंतीस फीसदी से अधिक की वृद्धि देखी गई है।

हमारे देश में नब्बे फीसदी से अधिक लोग असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। जिनकी सामाजिक-सुरक्षा का कोई ठौर-ठिकाना नहीं हैं। वृद्धावस्था में भी सामाजिक असुरक्षा बनी हुई है। देश में 24 बरस से नीचे की युवा आबादी 44 फीसदी है किन्तु इस आबादी का निर्भरता अनुपात 52 फीसदी है मतलब बेरोजगारी। जाहिर है कि बढ़ती आबादी के बढ़ते दबाव की वजह से संसाधनों के वितरण में असन्तुलन पैदा हो जाता है, तब प्रतिस्पर्धा ही नहीं, सम्पूर्ण-संघर्ष भी बढ़ते हैं।

लेखक राजकुमार कुम्भज वरिष्ठ कवि एवं लेखक हैं।


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