बेहद जरूरी है पर्यावरण बचाने हेतु प्रकृति से जुड़ाव

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वनों की कटाई से कम हो रहे जंगलों के कारण वन्यजीवों की तादाद में जहाँ कमी आई है, वहीं वह आहार हेतु मानव बस्तियों की ओर आने को विवश हो रहे हैं। आईआईटी मुम्बई का अध्ययन प्रमाण है कि बड़े पैमाने पर वनों की कटाई के कारण वर्षा की मात्रा में महत्त्वपूर्ण गिरावट आई है। भूमि उपयोग के हालिया परिवर्तनों के अध्ययन के बाद वैज्ञानिकों ने पाया है कि जंगलों के विनाश के कारण उत्तर पूर्वी और उत्तर मध्य भारत में वर्षा कम हो गई है।जंगल कहें या वृक्षों का मानव जीवन में महत्त्वपूर्ण योगदान है। असलियत यह है कि वृक्ष दुनिया में जीवन का समर्थन करने वाली अहम और महत्त्वपूर्ण भूमिका निबाहते हैं। यह ऑक्सीजन का उत्पादन करते हैं और कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करते हैं। लेकिन आज जिस तेजी से समूची दुनिया में जंगल खत्म हो रहे हैं, उससे ऐसा लगता है कि वह दिन दूर नहीं जब जंगलों के अभाव में धरती पर पाई जाने वाली बहुमूल्य जैव सम्पदा बड़ी तादाद में नष्ट हो जाएगी जिसकी भरपाई की कल्पना ही बेमानी होगी।

एक नए शोध के अनुसार समूची दुनिया में तकरीबन तीन ट्रिलियन पेड़ हैं। देखा जाये तो पूरी दुनिया में हर साल तकरीबन 15 अरब पेड़ काट दिये जाते हैं। मौजूदा हालात गवाह हैं कि मानव सभ्यता की शुरुआत के बाद से दुनिया में पेड़ों की संख्या में 46 फीसदी की कमी आई है। यह स्थिति की भयावहता का प्रतीक है। जबकि यह जगजाहिर है कि प्रदूषण रोकने में पेड़ों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। लेकिन विकास यज्ञ में सबसे ज्यादा पेड़ ही समिधा बन रहे हैं। यही नहीं हमारी बहुतेरी गतिविधियों में 31 फीसदी अव्यवस्थित कृषि, ऊर्जा 3.54 फीसदी, प्रदूषण 3.34, प्रकृति में बदलाव 9.26 फीसदी और जलवायु परिवर्तन का योगदान 3.96 फीसदी अहम है, जो वनस्पतियों को नुकसान पहुँचाती हैं।

असल में एक एकड़ का वन उतना ही कार्बन डाइऑक्साइड अवशोषित करता है जितना एक कार 41 हजार किलोमीटर चलने पर पैदा करती है। तात्पर्य यह कि एक कार एक साल में करीब छह टन कार्बन डाइऑक्साइड उगलती है। एक एयरकंडीशनर जितनी ठंडक पैदा करता है, उसका 30 फीसदी योगदान अकेले वृक्ष कर सकते हैं। लेकिन हम हैं कि इस सबसे बेखवर अन्धाधुन्ध पेड़ों को काटे जा रहे हैं। भले हम यह दावा करें कि अभी दुनिया में कुल मिलाकर 301 लाख वर्ग किलोमीटर जंगल बचा है जो दुनिया की धरती का कुल 23 फीसदी हिस्सा है। लेकिन यदि दुनिया में जंगलों के खात्मे की यही गति जारी रही तो 2100 तक समूची दुनिया से जंगलों का पूरी तरह सफाया हो जाएगा।

असलियत यह है कि जंगलों के महत्त्व को कम करके नहीं देखा जा सकता। हम अपने अस्तित्व के लिये उन पर निर्भर हैं। उनसे हमें उपयोग हेतु लकड़ी मिलती है। वे मिट्टी का क्षरण रोकते हैं, वर्षाजल संरक्षण में महत्त्वपूर्ण कारक हैं और जलवायु परिवर्तन पर अंकुश लगाने की दिशा में अहम योगदान देते हैं। वे वन्यजीवों के आवास स्थल हैं जिनका हमारे पारिस्थितिकी तंत्र में अहम योगदान है। स्थिति यह है कि इससे उष्णकटिबंधीय वर्षा वनों में पाई जाने वाली दुनिया की लगभग 80 फीसदी प्रजातियों के अस्तित्व पर खतरा मँडराने लगा है। जो जैवविविधता के लिये गम्भीर खतरा है।

वनों की कटाई से कम हो रहे जंगलों के कारण वन्यजीवों की तादाद में जहाँ कमी आई है, वहीं वह आहार हेतु मानव बस्तियों की ओर आने को विवश हो रहे हैं। आईआईटी मुम्बई का अध्ययन प्रमाण है कि बड़े पैमाने पर वनों की कटाई के कारण वर्षा की मात्रा में महत्त्वपूर्ण गिरावट आई है। भूमि उपयोग के हालिया परिवर्तनों के अध्ययन के बाद वैज्ञानिकों ने पाया है कि जंगलों के विनाश के कारण उत्तर पूर्वी और उत्तर मध्य भारत में वर्षा कम हो गई है।

यदि इण्डियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, बंगलुरु की मानें तो पिछले एक दशक में उत्तर, मध्य और दक्षिणी पश्चिमी घाटों के घने जंगलों में क्रमशः 2.84 फीसदी, 4.38 फीसदी और 5.77 फीसदी की कमी आई है। विडम्बना यह कि जंगलों पर इतनी निर्भरता के बावजूद हम अपने स्वार्थ के लिये उन्हें काटे चले जा रहे हैं। बीते चार सालों में सबसे अधिक पेड़ों की कटाई अकेले 2016-17 में हुई है। हरियाणा ने तो इसमें कीर्तिमान बनाया है। सड़क चौड़ीकरण के नाम पर इस राज्य में जल्दबाजी में 45 हजार पेड़ों को क्रुरतापूर्वक काट दिया गया। जबकि सरकार वन क्षेत्र में लगातार बढ़ोत्तरी का दावा कर रही है।

1980 में वन संरक्षण कानून बनने के बाद भी जंगलों के लगातार काटे जाने का सिलसिला जारी रहने और उसमें विकास की खातिर हो रही बेतहाशा बढ़ोत्तरी के चलते यह लगने लगा है कि वह दिन दूर नहीं जब हमारी सभ्यता ही न खतरे में पड़ जाये। आज समूची दुनिया के जंगलों का दसवाँ हिस्सा पिछले बीस सालों में खत्म हो चुका है जो तकरीबन 9.6 फीसदी के आस-पास है। हमारे देश में 19 करोड़ 626 लाख एकड़ वन क्षेत्र है। यह कुल भौगोलिक हिस्से का 24.16 फीसदी है। लेकिन इसके 15 लाख एकड़ क्षेत्र में अवैध कब्जा है।

दरअसल जंगलों के खात्मे के पीछे उनकी बेतहाशा कटाई तो है ही, इसके पीछे एक और अहम कारण है, वह है जंगलों में लगी आग। इसमें दो राय नहीं कि आग प्रकृति का एक हिस्सा है लेकिन यह भी सच है कि हर साल दुनिया में हजारों-लाखों हेक्टेयर जंगल आग की भेंट चढ़ जाते हैं। इसमें बहुत बड़ी तादाद में बेशकीमती जैव सम्पदा नष्ट हो जाती है। नतीजन जैव विविधता, जलवायु और अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और वह बड़े पैमाने पर प्रभावित होती है।

हमारे देश में वन विकास हेतु वन क्षतिपूर्ति कोष में करीब 40 हजार करोड़ की राशि जमा है लेकिन विडम्बना देखिए कि उस राशि का इस्तेमाल ही नहीं किया जा रहा। हालात गवाह हैं कि देश में हर साल 28 हजार हेक्टेयर के करीब जंगल घट रहे हैं। जबकि 1980 के वन संरक्षण अधिनियम के तहत वनों को अपरिवर्तनीय ही रहना चाहिए। वन क्षेत्र को अपवाद के रूप में ही बदला जाना चाहिए। रक्षा, सड़क चौड़ीकरण और पनबिजली परियोजनाओं हेतु सबसे ज्यादा जंगलों को काटा गया है।

असल में कानून बनने के बाद से अब तक पूरे देश में 23716 बाँधों, सिंचाई, उद्योगों, रेल, सड़क निर्माण आदि के लिये बनी परियोजनाओं हेतु कुल मिलाकर 11.02 लाख हेक्टेयर से अधिक वन विकास की समिधा बने जबकि सरकार यह आँकड़ा 9 लाख हेक्टेयर ही मानती है। इसके तीगुने वनीकरण के स्थान पर कुल 4.22 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में ही वनीकरण हुआ। देश में जंगलों के घटते चले जाने से पर्यावरण व पारिस्थितिकी तंत्र का संकट बढ़ता जा रहा है। ऐसी हालत में वनों के जीवन और पर्यावरण की रक्षा की आशा कैसे की जा सकती है।

यदि सरकारी आँकड़ों की मानें तो देश में वनाच्छादित क्षेत्र 701673 वर्ग किलोमीटर है, कुल वनक्षेत्र 764566 वर्ग किलोमीटर, रिजर्व फॉरेस्ट 424985 वर्ग किलोमीटर, संरक्षित वन 209420 वर्ग किलोमीटर और अवर्गीकृत वन 130141 वर्ग किलोमीटर है। देश के कुल भूभाग के 21.34 फीसदी हिस्से पर जंगल हैं और यदि ट्री कवर को जोड़ दे तो यह 24.16 फीसदी होता है। आज यही हमारी वन सम्पदा है। यह स्थिति की भयावहता की ओर इशारा करती है।

हमारी सरकार यह मान चुकी है कि प्रतिपूर्तिकारी वनीकरण किसी भी दशा में प्राकृतिक वनों का स्थान नहीं ले सकता जबकि दशकों से वह प्रतिपूर्तिकारी वनीकरण पर जोर देती रही है। असलियत में मानवीय स्वार्थ के चलते पैदा हुए प्रकृति के इस असन्तुलन ने जीवन के अस्तित्व पर ही सवाल खड़े कर दिये हैं। यदि अभी नहीं चेते तो आने वाला कल हमें सम्भलने का मौका नहीं देगा। हमारा पर्यावरण जिस रफ्तार से दिनोंदिन बिगड़ रहा है, इसको देखते हुए हमें प्रकृति से दूर रहने के गम्भीर परिणाम भुगतने होंगे।

हमारे जीवन में कितनी उथल-पुथल हो सकती है और किस तरह की प्रतिकूल आर्थिक, सामाजिक अव्यवस्थाएँ जन्म लेंगी, उसका अन्देशा हमें नहीं है। इसलिये सामाजिक वानिकी को प्रोत्साहित किया जाये। यह प्रक्रिया सदियों से देश में चलन में है। इससे जहाँ लकड़ी, ईंधन की लकड़ी, चारा आदि की बढ़ती माँग को पूरा किया जा सकेगा, वहीं पारम्परिक वन क्षेत्रों पर दबाव भी कम होगा। वृक्षारोपण कहें या वनीकरण की कमजोर पड़ रही प्रक्रिया में तेजी लाई जाये, वृक्षारोपण के बाद उनको जीवित रखने हेतु उनमें पानी की समुचित व्यवस्था की जाये।

पिछले सालों में वृक्षारोपण की दिशा में उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र सहित कुछ सरकारों ने प्रशंसनीय कार्य किये हैं। उत्तर प्रदेश की सपा सरकार ने तो पाँच करोड़ पौधारोपण कर कीर्तिमान बनाया है। मौजूदा उत्तर प्रदेश सरकार आने वाले दिनों में पाँच करोड़ वृक्षों का रोपण कराएगी। यह अच्छा कदम है। अन्य राज्य भी उनका अनुसरण करें तो उचित होगा।।

समय की माँग है कि अब प्रकृति को बचाया जाये। यह अपरिहार्य है। पर्यावरण को बचाने की दिशा में प्रकृति से जुड़ाव पहला कदम है। जरूरत है कि पुराने समय में लौटा जाये, फिर से ईकोफ्रेंडली कारोबारों, व्यवसायों से जुड़ना होगा जो न सिर्फ लोगों को रोजगार दिलाते हैं, बल्कि प्रकृति को बिना नुकसान पहुँचाए हमारी जरूरतों की पूर्ति भी करते हैं। इसके सिवाय कोई चारा नहीं है।

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