बेंगलुरु के गुमनाम पानी-प्रहरी

22 Aug 2019
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दक्षिण भारत में दक्कन का एक पठारी शहर बेंगलुरु अपने सदाबहार मौसम के लिए प्रसिद्ध है। कर्नाटक राज्य की राजधानी बेंगलुरु की आबादी लगभग एक करोड़ बीस लाख है। शहर समुद्र तल से 920 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है और इसके आसपास कोई बारहमासी नदी नहीं बहती है। पुराने समय से बेंगलुरु में झीलें ही लाइफलाइन रही हैं, जो आपस में जुड़ी हुई थीं, पर आज वे या तो प्रदूषित हैं, कचरे से अटी पड़ी हैं और अतिक्रमण ने उनके रास्ते और रिश्ते दोनों ही तोड़ दिए हैं। हालांकि कुछ झीलों को राज और समाज द्वारा पुनर्जीवित करने की कोशिश हो रही है। फिर भी कभी 262 झीलों की मिल्कियत वाला यह शहर आज तो पानी की सभी जरूरतों के लिए कावेरी नदी पर निर्भर हो चला है। यह नदी शहर से 95 किलोमीटर दूर है और 300 मीटर नीचे है, यानि कावेरी के बहने की जो ऊंचाई है वह है 620 मीटर। बेंगलुरु को जल देने के लिए रोजाना 300 मीटर ऊंचाई और 95 किमी लम्बाई का सफर पंपिंग द्वारा कराया जाता है। 14000 लाख लीटर पानी की प्रतिदिन की यह पंपिंग भारत के सबसे महंगे पानी में से एक है।

बरसाती पानी को इन झीलों तक ले जाने वाले रास्तों में अवरोध, शहरी ज़रूरतों जैसे सड़क आदि के लिए झीलों के आगोर के साथ छेड़छाड़, बिना किसी ट्रीटमेंट कचरे को झीलों में डालना जैसे कारणों से बेंगलुरु की झीलें मरती गई हैं। यह दुखद और भयावह है, पर इस भयावहता को कम करने के लिए इस बीच ‘शहर’ वर्षाजल संचयन, भूजल पुनर्भरण, झील के पुनर्जीवन में अपना भविष्य ढूंढ रहा है। शहर के कुछ शुद्ध और सरल लोग चुपचाप इस हालात को बदलने की कोशिश में लगे हुए हैं। आइए जानते हैं ऐसे ही कुछ गुमनाम नायकों को, एक मछुआरा, एक किसान और एक कुंआ खोदने वाले के माध्यम से बंगलुरु के पानी के हालात में बदलाव की कहानी जरूर जानिए। उनकी कहानी में बेंगलुरु के पानी की कहानी भी है, और इन गुमनाम नायकों का संघर्ष और समर-गाथा भी है।

जोआचिम नाम के मछुआरे की कहानी

बेंगलुरु शहर के उत्तरी हिस्से में 50 हेक्टेयर से भी बड़ी जक्कुर-झील है। इस झील में बरसात का पानी तो आता ही है, साथ ही एक सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट का पानी भी आता है जो प्रतिदिन 15 मिलियन लीटर जल को संशोधित करता है। ये संशोधित पानी आगे एक कृत्रिम-वेटलैंड द्वारा साफ किया जाता है। और फिर पानी इस झील में भर जाता है। स्थानीय मछुआरा समुदाय का इस झील में मछली-पालन का पुस्तैनी काम रहा है। हाल ही में मैं इसी समुदाय के एक मछुआरा जोआचिम से मिला। जोआचिम ने बताया कि झील को साफ रखने के काम में मैं गर्व महसूस करता हूँ। हाल ही में सरकार से हमारे समुदाय को जक्कुर-झील में मछली-पालन का पांच साल का टेंडर भी मिला है। हम लोग जक्कुर-झील से प्लास्टिक कचरा और जलकुंभी साफ भी करते रहते हैं। मत्स्य पालन विभाग से सेवानिवृत्त एक अधिकारी मुझसे मिलने नियमित आते हैं, और हमें मछली और झीलों पर सलाह देते हैं। वो उम्रदराज होने के कारण खुद तो दूर तक चलकर जा नहीं सकते लेकिन जोआचिम की बाइक पर घूमकर झील के बारे में सलाह देते रहते हैं।

जक्कुर-झील, चूंकि अब भरने के लिए पूरी तरह से बरसाती पानी की जगह ट्रीटमेंट-प्लांट से निकले पानी पर निर्भर है। इसलिए ट्रीटमेंट-प्लांट से निकला पानी जो झील में जाता है, उसकी गुणवत्ता बहुत मायने रखती है। अगर उपचारित पानी की गुणवत्ता ठीक नहीं होगी, तो मछलियाँ मर जाएंगी। उपचारित पानी की गुणवत्ता यदि ठीक रहेगी तो मछलियों के बच्चे यानि मत्स्य-बीज मरेगे नहीं। झील में हर साल मछली-पालन का काम होता है। झील में 4000 मत्स्य बीज प्रति हेक्टेयर डाला जाता है। हालांकि इसमें से कुछ मर जाती हैं, कुछ को पक्षी आदि खा जाते है। यदि पानी की गुणवत्ता खराब हुई तो छोटे बच्चे मर जाएंगे। साथ ही छोटी मछलियाँ ही पक्षी, सांप और बड़ी मछलियां का भी भोजन हैं। जलकौआ या कुछ तो एक-एक दिन में पांच किलो तक मछली खा सकते हैं। झील में तो रोजाना सैकड़ों पक्षी आते हैं। जोआचिम बताते हैं पक्षीयों के आकर्षण में काफी लोग पक्षियों को देखने या उनकी तस्वीर लेने आते हैं।

झील साफ-सुथरी और आकर्षक बनी रहे और उसकी हरियाली आबाद रहे, उसके लिए पानी को साफ रखना पड़ता है और शैवाल को नियंत्रित रखना पड़ता है। इस काम के लिए नमक, फिटकरी या चूना पत्थर पानी में डालना पड़ता है। हालांकि हमें यह सब काफी मंहगा पड़ता है। क्योंकि यह सैकड़ों किलोग्राम में होता है, यह खर्चीली प्रक्रिया है। हमें अपने घर की तरह झील को साफ रखना अच्छा लगता है, इसीलिए यह खर्च उठा लेते हैं। पर हमें हमारी साफ झील पर गर्व है।

हम पूरी कोशिश करते हैं कि पानी में घुलित ऑक्सीजन के स्तर को बनाए रखने के लिए मल-जल वाला पानी उपचारित होकर ही आए, ताकि मछलियाँ आबाद रहें। झील में पंछियों का आना-जाना बना रहे। झील मछलियों से भरी रहे। जोआचिम जैसे लोग सच्चे झील-योद्धा हैं। बिना औपचारिक पढ़ाई के भी जोआचिम झील के पारिस्थितिकी तंत्र की गहरी समझ रखते हैं। यदि बेंगलुरु की सभी 200 झीलों का इसी तरह प्रबंधन किया जाए तो बेंगलुरु शहर के पास खाने के लिए खूब सारी मछलियाँ होंगी। और उनके आस-पास बहुत सारे पक्षी होंगे और भूजल ठीक होगा। झील में भरा हुआ पानी आस-पास के भूजल को भी ठीक रखता है।

कूप-खनक शंकर की कहानी

दक्षिण भारत में एक मनु-वद्दार समुदाय है, पीढ़ियों से इस समुदाय के लोग कुआँ खोदने, गहरा करने और साफ सफाई का काम करते आए हैं। बेंगलुरु शहर में जो कुएं आज भी अस्तित्व में हैं, उनके बारे में इस समुदाय से बेहतर कोई नहीं समझ सकता, पीढ़ियों से इन लोगों की आजीविका का साधन भी यही काम रहा है। बेंगलुरु शहर में आज बहुत से कुएँ ऐसे हैं जिनका इस्तेमाल लंबे वक्त से नहीं हो रहा है, क्योंकि उनमें पानी ही नहीं है। इस समुदाय की मदद से इन कुओं को फिर से जिंदा किया जा सकता है और नए कुएं भी खोदे जा सकते हैं।

शहर की झीलों में आग-झाग देखकर मनु-वद्दार समुदाय के लोग चिंतित थे। अब समुदाय के कुछ लोग कम लागत में कुएं बनाने की योजना पर काम कर रहे हैं। उनका मानना था कि चालीस हजार रुपये से भी कम की लागत से बीस फुट गहरे छोटे रिचार्ज वाले कुएं बनाए जो सकते हैं, जो बारिश के पानी को धरती की पेटे में पहुचाएंगे। इससे बारिश का पानी सड़कों, गलियों में नहीं भरेगा। बारिश का पानी कुओं में जाएगा तो शहरों में जल भराव की समस्या नहीं होगी और साथ ही भूजल पुनर्भरण भी होगा। बहुत सारे मामलों मे तो देखा गया है कि अगर कुएं में पानी है तो उसे बहुत सारे अन्य कामों में इस्तेमाल कर लिया जाता है।

बेंगलुरु में भूजल संकट को देखते हुए कुएं खोदने वाले भी अब वर्षाजल संचयन की तकनीकों को अपना रहे हैं जैसे रूफटोप रेनवाटर हार्वेस्टिंग करके बरसाती पानी को कुएं में डालना, ताकि भूजल में एक्विफर भी रीचार्ज हो सकें और जल स्तर बढ़े। मनु-वद्दार समुदाय के लोगों के साथ नए पानी संरक्षण तकनीकों की जानकारी साझा की जा रही है। अब वे पारम्परिक कुओं के रख-रखाव के साथ रीचार्ज कुएं भी बना रहे हैं जिससे बरसाती पानी को भूजल में डाला जा सके। जरूरत है ऐसे लोगों को साथ में लेकर, उन्हें प्रशिक्षित करके उनके और उनके कौशल के बारे में समाज को जानकारी दी जाए। इन लोगों की आजीविका सुनिश्चित करके शहर इनकी मदद से जल सुरक्षा हासिल कर सके। इससे बारिश के पानी को सहेजकर, भूजल को रीचार्ज करके भूजल स्तर उंचा करके कुंओ को फिर से इस्तेमाल करने के लायक बना सकते हैं।

शंकर और रमेश- मन्नु-वद्दार समुदाय से आते हैं। कुएं बनाना उनका पुस्तैनी काम रहा है। ये दोनों पुराने कुओं को साफ करके उनमें वर्षाजल का पुनर्भरण करके बेंगलुरु शहर को पानीदार बनाने के लिए काम कर रहे हैं। इसके लिए उनका लक्ष्य बेंगलुरु में 10 लाख से ज्यादा रीचार्ज कुएं खोदना या तैयार करना है। इनका मानना है कि ऐसा करने से शहर में गिरने वाली बारिश का आधा पानी भी अगर इन कुओं में उतार दिया तो भूजल का एक बड़ा बैंक बन जाएगा, बाढ़ और सुखाड़ दोनों से मुक्ति होगी।

किसान राजन्ना की कहानी 

2011 के जनगणना आँकड़ों के मुताबिक बेंगलुरु शहर में पांच लाख से ज्यादा गड्ढा शौचालय और सेप्टिक टैंक हैं। इसके बाद से तो यह संख्या और भी कहीं ज्यादा बढ़ गई है। 20-25 साल में शौचालय के पिट या गड्ढे जब भरने लगते हैं, तो उनको खाली कराना पड़ता है। शौचालयों के इन गडढों से मल निकालने वाले वैक्यूम-सकिंग ट्रक को ‘हनीसकर’ कहते हैं वे इन मल के भरे हुए इन गड्ढों को खाली तो कर देते हैं लेकिन उन्हें ये नहीं पता कि मल और मूत्र को कहाँ ले जाकर डालें। वे कहीं भी किसी भी ड्रेन लाइन में जाकर मल-जल खाली कर देते हैं।

राजन्ना बताते हैं कि उन्होंने ‘हनीसकर’ ट्रकों के लोगों को अपनी 6 हेक्टेयर जमीन लीज पर दे दी है। यह जमीन शहर के बाहर है इस जमीन पर वो पपीता, केला, रागी और मुख्य रूप से घास उगाते है। घास की भी कईं किस्में उगाते हैं जैसे बरमुडा घास, मेक्सिकन घास और तमाम दूसरी किस्में भी होती हैं। 'हनीसकर्स' से लिये गए मल-जल को वे उर्वरक के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। इस मल-जल को एक गड्ढे में डालकर कम्पोस्ट करके सोन-खाद बना लेते हैं। और फर्टीलाइजर की तरह इसे फसल में इस्तेमाल करते हैं। इससे घास इतनी अच्छी होती, उसका दाम भी अच्छा मिलता है। राजन्ना ने सही मायने में मल-जल को सोने में बदल लिया है। राजन्ना के खेत में एक दिन में हनीसकर के 30 ट्रक का मलजल डाला जा सकता है। लगभग बीस हजार घरों से यानि एक लाख लोगों से उपजे मलजल को एक अकेला किसान राजन्ना अपने खेत में कम्पोस्टिंग करके खाद बना रहा है।

शहर की सबसे बड़ी समस्या पानी और मलजल प्रबंधन हैं जिसका समाधान हमारे किसान, मछुआरे और कूप खनक दे सकते हैं और दे रहे हैं। ये लोग अपनी आजीविका के लिये काम करते हुए बेंगलुरु शहर को अनजाने में ही इकोलॉजिकल सुरक्षा भी प्रदान कर रहे हैं। उनके काम के स्वभाव को जानते समझते हुए, हमें उन्हें जल और मलजल प्रबंधन के काम का हिस्सा बनाने पर जोर देना होगा, और उनके पेशे को सम्मान देना होगा। इससे शहर और समाज दोनों का भला होगा।

लेखक पानी के जानकार और पर्यावरणीय समस्याओं पर काम करने वाली कंपनी वायोमे के डायरेक्टर हैं।

 

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