बहिष्कार से विस्थापन तक का सफर

25 Aug 2012
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बरगी बांध से विस्थापित हुए लोगों को अपना जीविकोपार्जन करना बहुत कठिन हो गया है। वहीं मजदूरी नहीं मिलने से एक-एक पैसे के लिए मोहताज होना पड़ रहा है। बरगी बांध से विस्थापित हुए लोगों को विस्थापन के पहले किसी दूसरे शहर में जाने की जरूरत नहीं पड़ती थी। अपने पुश्तैनी धंधे से ही उन्हें इतना मिल जाता था कि बिना खेती किए भी एक काश्तकार के बराबर अनाज जुटा लेते थे। इसके साथ ही अपनी जरूरत के हिसाब से अन्य सामान भी जुटा लेते थे। लेकिन बांध बनने के कारण गांवों के उजड़ने से समाज का पूरा ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो गया है।

विस्थापन एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें वहां रह रहे परिवारों को अपना कारोबार, घरबार, मातृभूमि, खेती बाड़ी, पेड़-पौधे, कुएं तालाब आदि के साथ-साथ अपने परिजनों तक को छोडकर अपनी मातृभूमि से अलग होना पड़ता है। इस परिस्थिति में जहां एक ही परिवार के सदस्य अलग-अलग स्थानों पर रहने को मजबूर होते हैं, वहीं कुछ ऐेसे भी लोग हैं, जिनका पूरा आर्थिक ताना बाना बिगड़ जाता है। इन परिवारों के जीविकोपार्जन का पूरा दारोमदार गांव के रहवासियों पर ही होता है। भले ही ये हमारे समाज या हमारे परिवार का एक हिस्सा क्यों न हों, ये समाज की मुख्यधारा से वंचित होते हैं। ये मेहनत मजदूरी कर हमारे सामाजिक व आर्थिक ढांचे को मजबूत करने का काम करते हैं। इसके बाद भी गांव में रहने वाले परिवारों द्वारा इनका समुचित मान सम्मान नहीं किया जाता। कहीं न कहीं तो इन परिवारों को बहिष्कार का दंश भी झेलना पड़ता है।

बरगी नगर (जबलपुर, मध्यप्रदेश) निवासी धन्नूलाल सराठे व चेना बाई, जो बांध बनने के पहले हरदुली गांव में रहते थे, का कहना है कि नाई जाति होने के कारण ये अपने पैतृक धंधे से पूरे गांव की सेवा करते थे, जिसके बदले इन्हें भरपूर खाद्य सामग्री के अलावा जीवन निर्वाह के लिए अन्य सामान व पैसे भी मिल जाया करते थे। लेकिन आज उन्हें एक किलो आटा तक के लिए बाजार का रुख करना पड़ता है। इसका मुख्य कारण आज इनके पैतृक व्यवसाय का छूट जाना है। इन्हें पेट पालने तक के लिए अब दूसरे शहरों में जाकर मेहनत मजदूरी करनी पड़ रही है। धन्नूलाल का कहना है कि विस्थापन के पहले हमें किसी दूसरे शहर में जाने की जरूरत नहीं पड़ती थी। हमारे पुश्तैनी धंधे से ही इतना मिल जाता था कि हम बिना खेती किए भी एक काश्तकार के बराबर अनाज जुटा लेते थे। इसके साथ ही अपनी जरूरत के हिसाब से अन्य सामान भी जुटा लेते थे।

जमीन नहीं होने के बाद भी इन्हें काश्तकारों से 30 से 35 बोरा अनाज मिल जाता था। इसके साथ ही पैसे भी मिल जाया करते थे। शादी ब्याह जैसे अवसरों के अलावा कभी बाजार का रुख नहीं करना पड़ता था। इनका कहना है कि हमें पहली बार वर्ष 1980 में अपनी मातृभूमि से हटना होना पड़ा। इसके बाद हम वहां से कुछ दूर गागंधा में जाकर रहने लगे, लेकिन हमें नहीं पता था कि परेशानी हमारे पीछे-पीछे चलने को तैयार बैठी है। यहां से भी हमें गांव डूबने की बात कह कर वर्ष 1988 में दोबारा हटा दिया गया। ऐसे में हम लगातार विस्थापन की त्रासदी से बहिष्कृत होते चले गए।

चेना बई का कहना है कि विस्थापन के बाद हमारा परिवार बिखर गया। हमारे परिवार की खुशियों को तो जैसे ग्रहण लग गया। आज हम अपने पैतृक व्यवसाय को छोड़कर दूसरे कामों में मेहनत मजदूरी कर रहे हैं। हमारे पास दोनों वक्त पेट भरने तक के लिए दाने तक नहीं हैं। चेना बाई का कहना है कि हमारे पिता जी तीन गांवों के काश्तकारों की सेवा व हजामत करते थे। उनके पास खुद की खेती बाड़ी का समय नहीं मिल पाता था। खुद की खेती मजदूर लगवाकर करवाते थे, लेकिन आज हमें व हमारे बच्चों को ढूंढने से भी इतनी मजदूरी नहीं मिल रही है, कि हम अपना पेट भर सकें।

मगरधा निवासी पंजीलाल सराठे का कहना है कि पहले गांव से 10 से 15 बोरा अनाज मिल जाया करता था, जिससे साल भर के लिए खाने पीने की व्यवस्था हो जाती थी। इसके साथ अन्य सामान व पैसा भी मिल जाता था, जिससे घर परिवार की सभी जरूरतें पूरी हो जाती थीं। साथ शादी ब्याह भी उसी में निपटा लेते थे। इसके बाद भी कुछ पैसे व अनाज सहित अन्य सामान बच जाता था, लेकिन आज दाने-दाने को मोहताज हैं। आज खोटा सिक्का तक नहीं मिल पा रहा है। विस्थापन के बाद से पूरा परिवार अस्त व्यस्त हो चुका है, जिससे आज जीविका चलाना मुश्किल हो रहा है।

इसी गांव के निवासी कुम्हार शिवा व टिकऊ का कहना है कि पहले हम अपना पैतृक व्यवसाय करके अपना व अपने परिवार का पालन पोषण करते थे, लेकिन आज हमें दूसरे शहरों मे जाकर मजदूरी ढूढनी पड़ रही है। यह सब किसी और के कारण नहीं बल्कि बरगी बांध बनने के कारण हुए विस्थापन से हुआ है। ऐसे में अब जीविकोपार्जन करना कठिन हो रहा है। वहीं मजदूरी नहीं मिलने से एक एक पैसे के लिए मोहताज होना पड़ रहा है।

लखनपुरा निवासी नन्हे भाई का कहना है कि पहले हम अपना जूते चप्पल आदि की मरम्मत का पैतृक व्यवसाय करते थे, लेकिन आज दूसरे शहरों में जाकर मजदूरी करके अपना व अपने परिवार का पेट पालना पड़ रहा है। इनका कहना है कि पहले खेती किसानी होने से हमें भी दोनों सीजन में इतना अनाज मिल जाता था कि उससे हमारे परिवार का भरण पोषण हो जाता था, उन किसानों व कृषि कार्य पर हमारा काम निर्भर होता था, लेकिन आज जब किसान ही नहीं बचे तो हमारा काम धंधा कहां से बच पाता। क्योंकि हमारा तो सब कुछ उन्हीं पर निर्भर था। उनकी खुशहाली में ही हमारी भी खुशी शामिल होती थी। पहले दिन रात मेहनत करके भी काफी खुश थे, लेकिन इस बांध ने हमसे सब कुछ छीन लिया।

मगरधा निवासी सुरेश रजक का कहना है कि विस्थापन के समय उनकी उम्र 16 वर्ष थी। उस समय हमारा पुश्तैनी धंधा धोबी का था। हम पूरे गांव का काम करते थे। इसके बदले में हमें अनाज पैसा व अन्य सामान मिल जाया करता था, जिससे हमारे परिवार का पेट पलता था, लेकिन आज हमें मजदूरी तक नहीं मिल पा रही है। ऐसे में हम घर पर ही खाली बैठे रहते हैं। आज हमारा पांच लोगों का परिवार है, इसमें दो बेटियां हैं। आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होने से इनकी पढ़ाई बीच में ही रोकनी पड़ी। इस बांध के कारण आज हम बहिष्कृत जीवन जीने को मजबूर हैं।

यह सब एक पविार या जाति की व्यथा नहीं है, बल्कि कई समुदाय के लोगों की है, जो गांव वासियों के ऊपर आश्रित रहते थे। गांव की तरक्की खुशहाली के साथ इनके घरों में भी खुशहाली आती थी। बल्कि यूं कहें कि गांववासियों के कंडील के तेल से ही इनके घरों के चिराग रोशन होते थे तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इनमें नाई, धोबी, मोची, कुम्हार, लोहार सहित अन्य कई जातियां शामिल हैं, जो समाज से बहिष्कृत होने के बाद भी उस समाज का एक अभिन्न अंग थीं, जिनसे पूरा समाज संचालित होता था। लेकिन बांध बनने के कारण गांवों के उजड़ने से समाज का पूरा ताना बाना छिन्न भिन्न हो गया है।

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