बहुत कुछ कहती है मालिन की तबाही

4 Aug 2014
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आपदा आने के पश्चात राहत कार्य शुरू करने में कम-से-कम समय लगना चाहिए और यदि पहले से ही चेतावनी मिल जाए तो तैयारी पहले से ही की जा सकती है। हमारे सामने इसका प्रत्यक्ष उदाहरण-जापान है, जहां भूकंप बहुतायत मात्रा में आते रहते हैं। अत: वहां के मकानों में भूकंपरोधी आधुनिक प्रणालियों का प्रयोग किया जाता है। इसलिए वहां के नागरिकों के जीवन एवं सम्पत्ति पर इसका प्रभाव न के बराबर पड़ता है। भारत में भी इन्हीं आपदा अवरोधी आधुनिक प्रणालियों को अपनाने की आवश्यकता है।

जब प्राकृतिक शक्तियों को हित साधने के लिए अत्यधिक नियंत्रित करने का प्रयास किया जाता है, तब वह प्रतिक्रिया स्वरूप रौद्र रूप धारण कर लेती है। ऐसा ही कुछ रौद्र रूप पुणे के भीमाशंकर के पास मालिन गांव में देखने को मिला है, जहां भारी बारिश के चलते भूस्खलन की वजह से पूरा-का-पूरा गांव काल के गाल में समा गया।

सहयाद्री पर्वत श्रृंखला की तलहटी में बसा यह पूरा गांव पहाड़ के मलबे में लुप्त हो गया। अब तक ऐसी घटनाएं पर्वतीय क्षेत्रों, विशेषकर हिमाचल व उत्तराखंड आदि में घटती रही थीं। प्रकृति में जो परिवर्तन का दौर चल रहा है वह दिन प्रतिदिन गंभीर होता जा रहा है।

आज के भौतिकवादी एवं प्रगतिशील युग में प्राकृतिक आपदाओं का आना कोई नई बात नहीं है। भयंकर बाढ़, भूस्खलन, बादल फटना, सूखा, चक्रवात, भूकंप, सुनामी, समुद्री तूफान जैसी घटनाएं अब आम हो चली है। इन सबके पीछे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हम ही जिम्मेदार हैं।

मालिन गांव भी इस प्रवृत्ति का ही शिकार हुआ है। चारों तरफ पहाड़ी से घिरे इस आदिवासी गांव में पर्यावरण मंत्रालय के निर्देशों को धता बताते हुए इस पहाड़ी पर गलत तरीके से रास्ते का निर्माण किया गया। उद्योगों के लिए प्लाटिंग की गई। पहाड़ी के जंगल काट दिए गए।

बारिश में पहाड़ की मिट्टी को बहने से थामने वाले पेड़ नहीं रहे तो बारिश में भूस्खलन का होना स्वाभाविक है। वर्ष 2012 में केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने पश्चिमी घाटों की पारिस्थितिकी के संरक्षण व विकास के लिए एक उच्च स्तरीय कार्य समूह गठित किया था। इस समूह द्वारा तैयार रिपोर्ट के मुताबिक महाराष्ट्र के कई गांव पारिस्थितिकी के लिहाज से संवेदनशील माने गए हैं। मालिन गांव भी उनमें से एक है।

भूस्खलन से खत्म हुआ मलिन गांवइन संवेदनशील इलाकों में किसी भी किस्म का निर्माण कार्य या औद्योगिक कार्य करने से पहले काफी एहतियात बरतनी चाहिए, ताकि इनकी प्राकृतिक बनावट पर कोई असर नहीं पड़े। मालिन के पास की पहाड़ी में यह सावधानी नहीं बरती गई। मनुष्य को प्रकृति के साथ अनावश्यक छेड़छाड़, पर्यावरण प्रदूषण तथा प्राकृतिक संतुलन बिगाड़ने जैसी बातों पर काबू पाना होगा, ताकि प्रकृति को रौद्र रूप धारण करने से रोका जा सके। उत्तराखंड की आपदा में भी यही बात प्रमुखता से सामने आई थी कि अगर यहां की प्राकृतिक संरचना से छेड़छाड़ न की जाती तो इतने बड़े पैमाने पर तबाही नहीं मचती।

मालिन में भी यही बात उभर कर आ रही है। भारत में हुई प्राकृतिक आपदाओं में अधिकांश में यही बात सामने आती है कि यह मनुष्य द्वारा प्रकृति को नुकसान पहुंचाने का नतीजा है। साल-दर-साल हम ऐसे नतीजे भुगत रहे हैं, फिर भी सबक सीखने तैयार नहीं हैं। लगातार हो रही ये घटनाएं भविष्य के लिए यह बहुत बड़ी चेतावनी है।

अगर अब भी हम न चेते और अपने छोटे-छोटे स्वार्थों के लिए पर्यावरण के साथ खिलवाड़ करते रहे तो न जाने कितने ऐसे हादसे और झेलने पड़ेंगे। अभी हाल ही में जारी की गयी ‘डिजास्टर मैनेजमेंट इन इंडिया’ नामक रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत का 85 प्रतिशत भाग एक या एक से अधिक प्राकृतिक आपदाओं के दायरे में आता है। 40 मिलियन हेक्टेयर जमीन बाढ़ के दायरे में आती है तथा देश के कुल भू-क्षेत्र का 8 प्रतिशत चक्रवात और 68 प्रतिशत सूखे के दायरे में आता है।

पिछले कुछ दशकों में भारत में प्राकृतिक आपदाओं की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है। इससे न केवल जीवन को भारी क्षति हो रही है, बल्कि पुनर्वास तथा पुनर्निर्माण के लिए अथाह धन व्यय करना पड़ रहा है। रिपोर्ट के अनुसार देश को सकल घरेलू उत्पाद का 3.28 प्रतिशत तथा कुल राजस्व का 13.7 प्रतिशत की हानि प्रतिवर्ष प्राकृतिक आपदाओं के कारण उठानी पड़ती है।

रिपोर्ट में इन आपदाओं का कारण भौगोलिक परिस्थितियों के अलावा संसाधनों की कमी, आपदाओं के पूर्व प्रबंधन में कमी तथा आपदाओं के पश्चात सक्रियता में विलंब आदि को बताया गया। अब प्रश्न यह है कि किस प्रकार इन आपदाओं से जन और धन की क्षति को कम किया जाए? इन आपदाओं का पूर्व प्रबंधन किस प्रकार किया जाए?

प्राय: आपदाओं के आने के बाद उनके प्रबंधन की बात की जाती है, परंतु अब चाहे प्राकृतिक आपदा हो या मानवीय उनके आने के पहले ही हमें उनके द्वारा होने वाली क्षति का पूर्वानुमान लगाकर कार्य योजना तैयार करनी होगी।

भूस्खलन से खत्म हुआ मलिन गांवआपदा प्रबंधन की तकनीकी द्वारा भविष्यवाणियों के आधार पर सभी प्रकार की अग्रिम तैयारियों के साथ अपार जन-धन की हानि को कम किया जा सकता है तथा जन-जीवन को सामान्य स्तर पर लाया जा सकता है। आपदा प्रबंधन की तैयारियों के संदर्भ में हमें परंपरागत विश्लेषण से हटकर आधुनिक उन्नत एवं अतिशीघ्र चेतावनी देने वाली प्राणलियों का प्रयोग करना होगा।

आपदा आने के पश्चात राहत कार्य शुरू करने में कम-से-कम समय लगना चाहिए और यदि पहले से ही चेतावनी मिल जाए तो तैयारी पहले से ही की जा सकती है।

हमारे सामने इसका प्रत्यक्ष उदाहरण-जापान है, जहां भूकंप बहुतायत मात्रा में आते रहते हैं। अत: वहां के मकानों में भूकंपरोधी आधुनिक प्रणालियों का प्रयोग किया जाता है। इसलिए वहां के नागरिकों के जीवन एवं सम्पत्ति पर इसका प्रभाव न के बराबर पड़ता है। भारत में भी इन्हीं आपदा अवरोधी आधुनिक प्रणालियों को अपनाने की आवश्यकता है।

लातूर भूकंप (1993) के बाद गठित बीके राव समिति ने सुझाव दिया था कि किसी विशेषज्ञ के नेतृत्व में एक एजेंसी का गठन किया जाए जो खतरे की आशंका को कम करने तथा विनाश के विस्तार को रोकने के लिए आवश्यक कदम उठाने तथा पहले से होने वाली तैयारियों के संबंध में सुझाव दें।

यह बात और है कि बीके राव समिति की संस्तुतियों को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। 26 दिसंबर 2004 को प्रशांत महासागर में सुनामी ने राष्ट्रीय नेतृत्व को आपदा प्रबंधन के क्षेत्र में कुछ विशेष करने में उत्प्रेरक की भूमिका निभाई।

इस दिशा में पहला प्रयास करते हुए केंद्र सरकार ने 23 दिसंबर 2005 को आपदा प्रबंधन अधिनियम पारित किया। विधेयक प्रावधानों के अनुसार इस अधिनियम के अंतर्गत प्रधानमंत्री के नेतृत्व में एक राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण का गठन किया गया है, किंतु आपदा प्रबंधन की मूलभूत कमियों को दूर नहीं किया गया। किसी भी योजना सफल बनाने के लिए नीति नियंताओं के साथ-साथ नागरिकों का भी योगदान बहुत आवश्यक होता है।

अतः आपदा प्रबंधन के आधारभूत तत्वों की जानकारी राष्ट्र के प्रत्येक नागरिक को होनी चाहिए, विशेषकर युवावर्ग को। आपदाओं के आने पर युवा वर्ग ही श्रेष्ठ स्वयंसेवक बनकर सरकारी और गैरसरकारी आपदा राहत संस्थानों के साथ राहत और बचाव कार्य कर सकते हैं।

भूस्खलन से खत्म हुआ मलिन गांवकागजी घोड़ों की पीठ पर सवार होकर प्राकृतिक आपदाओं की वैतरिणी को पार करने की अभिलाषा अव्यावहारिक ही नहीं, निराधार भी है। मूल प्रश्न फिर भी अनुत्तरित रह जाता है कि इस दिशा में पहल कौन करेगा? संपूर्ण राष्ट्र को इस दिशा में पहल करनी होगी तथा आपदा प्रबंधन की आवश्यकता को समझना होगा। इसके लिए राजनैतिक इच्छाशक्ति एवं दायित्वों का ईमानदारीपूर्वक निर्वहन प्रत्येक स्तर पर सुनिश्चित करना होगा, तभी हम एक सशक्त एवं विकासोन्मुक राष्ट्र की कल्पना को साकार कर पाएंगे।

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