बिहार को विशेष राज्य का दर्जा और सिंचाई समस्या

बिहार राज्य के विभाजन के बाद से ही बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिए जाने की माँग उठ रही है, मगर पिछले 12 वर्षों में इस दिशा में केन्द्र के समक्ष जो माँगें रखी गईं, उनका कोई परिणाम सामने नहीं आया है। आमतौर पर विशेष राज्य का दर्जा पाने के लिए जो शर्तें हैं, उन पर केन्द्र सरकार के अनुसार बिहार खरा नहीं उतरता।

इसके लिए राज्य के दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों की अधिकता, आबादी की छिटपुट रिहाइश, उस तक पहुँचने के लिए परिवहन और संचार की मंहगी व्यवस्था और इन्फ्रास्ट्रक्चर का नितान्त अभाव जैसी परिस्थितियाँ आवश्यक होती हैं। राज्य को विशेष दर्जा न दिए जाने के पीछे यही तर्क केन्द्र सरकार द्वारा दिया जाता है।

फिलहाल देश में असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैण्ड, त्रिपुरा, सिक्किम, उत्तराखण्ड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर को ही यह सुविधा उपलब्ध है। बिहार अपने प्रस्ताव में सीमावर्ती राज्य और बाढ़ तक सूखे से परेशानहाल राज्य होने का वास्ता देता है। मगर बात यह कहकर टाल दी जाती है कि सीमावर्ती राज्य तो गुजरात और राजस्थान भी हैं और राजस्थान विरल बसा होने के कारण बहुत पहले से यह रियायत माँग रहा है।

बाढ़ और सूखाग्रस्त अनेक - ओडिशा और छत्तीसगढ़ जैसे दूसरे राज्य भी उम्मीदवारी रखते हैं। कुल मिलाकर परिस्थिति बिहार के फिलहाल अनुकूल नहीं है। राज्य और केन्द्र में अलग-अलग पार्टियों का शासन में होना एक अलग व्यावहारिक बाध्यता है।

जहाँ तक बिहार में बाढ़ और सूखे का प्रश्न है, राज्य को अगर विशेष दर्जा मिल जाता है तो, इस प्रक्षेत्र में अर्थाभाव की समस्या से निश्चित रूप से निपटा जा सकता है। यह बात निर्विवाद रूप से बिहार के हक में जाती है।

यहाँ यह बताना जरूरी है कि अविभाजित बिहार में बड़ी और मध्यम सिंचाई योजनाओं से 66.3 लाख हेक्टेयर जमीन पर सिंचाई उपलब्ध कराई जा सकती थी। 1990 तक जब राज्य में कांग्रेस शासन का अन्त हो गया, बिहार में कुल सिंचन क्षमता 26.95 लाख हेक्टेयर थी और वास्तविक सिंचाई 20.48 लाख हेक्टेयर पर होती थी।

1990 में राज्य में जनता दल/राजद की सरकार बनी और 1999-2000 में जो कि राजद सरकार का अविभाजित सरकार का, आखिरी वर्ष था राज्य की अर्जित सिंचन क्षमता तो बढ़कर 28.18 लाख हेक्टेयर हो गया मगर वास्तविक सिंचित क्षेत्र घटकर 15.95 लाख हेक्टेयर तक नीचे आ गया। यानी इन दस वर्षों में अर्जित सिंचन क्षमता में 1.23 लाख हेक्टेयर की बढ़ोत्तरी हुई मगर वास्तविक सिंचाई क्षेत्र 5.53 लाख हेक्टेयर कम हो गया।

राज्य के तत्कालीन जल संसाधन मन्त्री अपनी उपलब्धियों की गाथा बहुत जोर-शोर से सुनाते थे मगर विपक्ष जो कि अब सत्ता में है, शायद ही कभी इन विसंगतियों का संज्ञान लिया हो और सिंचित क्षेत्र में आई गिरावट को किसानों के बीच उजागर किया हो।

2000-01 के वर्ष में जब राज्य का विभाजन हुआ, तब उसके हिस्से में 53.53 लाख हेक्टेयर का वह कृषि क्षेत्र आया, जिस पर बड़ी और मध्यम सिंचाई योजनाओं से सिंचाई सम्भव थी।

जहाँ तक बिहार और केन्द्र के सम्बन्धों का सवाल है, भले ही दोनों जगह एक ही पार्टी की सरकार हो, क्या बराह क्षेत्र बाँध पर चर्चा 1937 से, बागमती नदी पर नुनथर बाँध की चर्चा 1953 से और कमला पर शीसापानी बाँध की चर्चा 1954 से नहीं चल रही है? बिहार को विशेष राज्य का दर्जा उसी शृंखला की एक कड़ी है। नेताओं का काम इसी बात से चल जाता है कि उनकी सक्रियता देखकर उनके वोटर प्रभावित रहें। परिणाम क्या निकलता है, जनता को सिर्फ उसी से फर्क पड़ता है।

उस समय राज्य की अर्जित सिंचन क्षमता 26.17 लाख हेक्टेयर थी। मगर वास्तविक सिंचाई 15.30 लाख हेक्टेयर क्षेत्र पर ही उपलब्ध थी और यह लगभग उतनी ही थी, जितनी राज्य के विभाजन के पहले। इसका एक अर्थ यह भी होता है कि झारखण्ड को इस तरह की की योजनाओं से कोई खास लाभ नहीं पहुँचता था। विषयान्तर के कारण हम इसके विस्तार में नहीं जाएँगे।

2005-06 में जब राज्य में राजग की सरकार सत्ता में आई, तब उसे विरासत में राज्य सरकार से 26.37 लाख हेक्टेयर की अर्जित सिंचन क्षमता और 16.65 लाख हेक्टेयर का वास्तविक सिंचित क्षेत्र मिला। राज्य में सिंचाई क्षेत्र में जड़ता कुछ शिथिल पड़ने के आसार दिखाई पड़ने लगे, जब 2006-07 में 17.83 लाख हेक्टेयर और 2007-08 में 17.09 लाख हेक्टेयर क्षेत्र पर सिंचाई उपलब्ध करवाई गई।

2008 में ही कुसहा में कोसी का पूर्वी एफ्लक्स बाँध टूटने से पूर्वी कोसी नहर व्यावहारिक रूप से ध्वस्त हो गई और इससे सिंचाई मिलना बन्द हो गया। नहर टूटने से पहले अगर 2006, 2006 और 2008 में इस नहर के सिंचित क्षेत्र का औसत लिया जाय तो यह नहर 1.37 लाख हेक्टेयर जमीन ही सींच पाती थी। जबकि इसका लक्ष्य 7.12 लाख हेक्टेयर जमीन पर पानी पहुँचाना था।

तमाम् उपलब्धियों के बावजूद 2009 में राज्य का सिंचित क्षेत्र घट कर 2005-06 के स्तर 16.66 लाख हेक्टेयर पर लौट आया। यहीं से राज्य में सिंचाई का पतन शुरू हुआ। 2010 में राज्य का सिंचित क्षेत्र 12.02 लाख हेक्टेयर और 2011 में मात्र 9.07 लाख हेक्टेयर रह गया।

इस तरह से 1989-90 में जहाँ राज्य में 21.48 लाख हेक्टेयर के क्षेत्र पर सिंचाई उपलब्ध थी, वह 2006 में घटकर 16.65 लाख हेक्टेयर पर आ टिकी और अब 9.07 लाख हेक्टेयर पर स्थिर है।

2006 से 2011 के इन वर्षों में राज्य में सिंचन क्षमता में 2.49 लाख हेक्टेयर की वृद्धि हुई, मगर वास्तविक सिंचाई में 7.58 लाख हेक्टेयर का ह्रास हुआ। अगर यही रफ्तार बनी रहती है तो जिस विजन 2050 की बात कभी-कभी की जाती है वहाँ तक पहुँचते-पहुँचते राज्य का जल-संसाधन विभाग अपनी उपयोगिता खो चुका होगा।

अब चलते हैं, लघु सिंचाई की ओर। विभाग की 2011 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार छोटे स्रोतों से राज्य की सिंचन क्षमता 64.01 लाख हेक्टेयर है। दसवीं योजना के अन्त तक लघु सिंचाई स्रोतों से 36.26 लाख हेक्टेयर क्षेत्र पर सिंचन क्षमता अर्जित की गई, मगर उपयोग केवल 9.72 हेक्टेयर कृषि भूमि पर ही हो सका।

इसमें भी 8.15 लाख हेक्टेयर क्षेत्र पर सिंचाई निजी क्षेत्र के नलकूपों से हुई। दसवीं योजना के अंत तक सरकार के अपने नलकूपों की संख्या 4575 थी, जबकि उनमें से मात्र 1630 कार्यरत थे, जिनसे 65,000 हेक्टेयर क्षेत्र पर सिंचाई होती थी। 2010-11 में यह संख्या बढ़कर 1851 हो गई है, मगर इससे कितनी सिंचाई हो सकती है यह विभाग बताने से गुरेज करता है।

कुल मिलाकर राज्य में सिंचाई व्यवस्था किसानों के अपने पुरुषार्थ से चल रही है और इसमें सरकार के जल संसाधन विभाग का क्या योगदान है वह तो उसके खुद के आँकड़े बताते हैं। हम स्थानाभाव के कारण बाढ़ नियन्त्रण पर चर्चा नहीं कर पा रहे हैं।

कुछ वर्ष पहले केन्द्र सरकार ने बिहार की बाढ़ और सिंचाई व्यवस्था की बेहतरी पर सुझाव देने के लिये एक टास्क फोर्स गठित किया था। इस टास्क फोर्स की रिपोर्ट के कुछ अंश ध्यान देने योग्य हैं। एससी झा की अध्यक्षता में बनी यह रिपोर्ट कहती है, “राज्य का जल-संसाधन विभाग बहुत बड़ा है, असंगठित है, उसमें जरूरत से ज्यादा लोग काम करते हैं, लेकिन पेशेवर लोगों की कमी है और पैसे का अभाव बना रहता है। आज इस विभाग की जो व्यवस्था है, प्रबन्धन है, नियुक्त कर्मचारियों का स्वरूप तथा उनकी क्षमता है, उसकी पृष्ठभूमि में, यह विभाग बहु-आयामी बड़ी परियोजनाओं का क्रियान्वयन करने में अक्षम है। ज्यादा-से-ज्यादा यह विभाग चालू योजनाओं का रख-रखाव, उनका संचालन और अनुश्रवण कर सकता है। फील्ड के स्तर पर तो हालत इससे भी बदतर है।”

बिहार में सिंचाईटास्क फोर्स के इस अध्ययन में अगर थोड़ी-बहुत भी सच्चाई है तो फिर राज्य को विशेष दर्जा मिले या न मिले, कोई फर्क नहीं पड़ता। काम की शुरुआत पैसों की उपलब्धता से नहीं, कार्य संस्कृति बदलने से करनी होगी जिसमें कोई पैसा नहीं लगता।

वैसे भी जहाँ तक बिहार और केन्द्र के सम्बन्धों का सवाल है, भले ही दोनों जगह एक ही पार्टी की सरकार हो, क्या बराह क्षेत्र बाँध पर चर्चा 1937 से, बागमती नदी पर नुनथर बाँध की चर्चा 1953 से और कमला पर शीसापानी बाँध की चर्चा 1954 से नहीं चल रही है? बिहार को विशेष राज्य का दर्जा उसी शृंखला की एक कड़ी है। नेताओं का काम इसी बात से चल जाता है कि उनकी सक्रियता देखकर उनके वोटर प्रभावित रहें। परिणाम क्या निकलता है, जनता को सिर्फ उसी से फर्क पड़ता है।

ईमेल : dkmishra108@gmail.com

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